जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय दो तूतुकुडी निवासियों जयराज और बेनिक्स पर शांतांकुलम पुलिस की तरफ से की गई नृशंस शारीरिक, मानसिक व यौन हिंसा, जिससे अंतत: उनकी हिरासत में दर्दनाक मौत हो गयी, से बुरी तरह व्यथित है। इस खबर ने तमिलनाडु समेत देश को हिलाकर रख दिया है। उसने मांग की है कि सिविल सोसायटी को साथ लेते हुए इस भयावह घटना की स्वतंत्र, समयबद्ध न्यायिक जांच हो। इस स्थिति में सी.बी.आइ. की जांच के बजाय एक स्वतंत्र न्यायिक आयोग की जांच में एसआइटी का गठन किया जाना उचित होगा।
खबरों और चश्मदीद गवाहियों के अनुसार शांतांकुलम पुलिस व पिता-पुत्र के बीच ‘विवाद‘ 18 जून को शुरू हुआ जब गश्ती पर पुलिसकर्मियों ने बेनिक्स को लॉकडाउन टाइमिंग के उल्लंघन के लिए घेरा। उसके बाद हुए बहस व झगड़े में अज्ञात लोगों ने कुछ ऐसे शब्द कहे कि पुलिसकर्मी खफा हो गये। दूसरे दिन पुलिस ने बेनिक्स के पिता जयराज को उठा लिया। पिता की गिरफ्तारी की बात सुनकर बेनिक्स भी शांतांकुलम पुलिस थाने गये और उसे भी हिरासत में ले लिया गया।
दोनों को कोविलपट्टी उप जेल में ले जाया गया और उन पर हिंसा की गई और फिर उनके दोस्त की कार में न्यायिक दंडाधिकारी पी. सरवनन के घर पर उनके समक्ष 20 जून को पेश करने से पहले कोविलपट्टी अस्पताल ले जाया गया। बेनिक्स के दोस्त, जिनकी कार दोनों को ले जाने के लिए इस्तेमाल की गई, ने आरोप लगाया कि उनकी गुदा से इतना रक्तस्राव हो रहा था कि बार-बार लुंगी बदलनी पड़ रही थी। उनका आरोप है कि इसके बावजूद उन्हें रक्तस्राव रोकने के लिए कोई चिकित्सा सेवा नहीं मुहैया कराई गई और अस्पताल में डॉक्टर पर दबाव डाला गया कि वह ‘फिटनेस‘ प्रमाण-पत्र दे दे।
बेनिक्स के दोस्त और वकील यह भी आरोप लगाते हैं कि जयराज व बेनिक्स को धमकाया गया था कि न्यायिक दंडाधिकारी के समक्ष उन्होंने कुछ भी बोला तो अंजाम बुरा होगा और आरोप यह भी है कि उन्हें दंडाधिकारी से काफी दूरी पर रखा गया, जिससे लगभग पूरी प्रक्रिया एक ढोंग बनकर रह गई। मजिस्ट्रेट ने उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजा। अखबारों में छपी खबरें संकेत देती हैं कि कोविलपट्टी में उप जेल के रजिस्टर में की गई एंट्री में उन्हें लगी चोटों और शरीर के निचले भाग में चोटों का जिक्र था। कोविलपट्टी सरकारी अस्पताल की चिकित्सीय रिपोर्ट ने इसकी पुष्टि की है।
22 जून को बेनिक्स ने छाती में दर्द की शिकायत की, बेहोश हो गये और उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहां उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके पिता की एक दिन बाद उसी अस्पताल में मौत हुई। मद्रास उच्च न्यायालय के आदेश पर हुए पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट अभी आई नहीं है पर बेनिक्स की बड़ी बहन समेत जिन्होंने उनके शव देखे, संकेत देते हैं कि दोनों पर यौन हिंसा की गई थी।
पुलिस की तरफ से दाखिल प्राथमिकी (FIR) लीपापोती करती दिखती है, जिसमें बताया गया है कि लॉकडाउन निर्देशों के अनुसार जब उन्हें दुकान बंद करने को कहा गया तो पिता-पुत्र ने इंकार कर दिया और ‘जमीन पर लेट गये’, जिससे उन्हें अंदरूनी चोट आई। इस मामले के तथ्य स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि पुलिस अधिकारी, रिमांड का आदेश देने वाले मजिस्ट्रेट और चिकित्सीय अधिकारी अपनी कानूनी ज़िम्मेदारी और न्यायिक मूल्यों की मर्यादा बनाये रखने में विफल रहे हैं, जैसे कि डी.के. बासु बनाम पश्चिम बंगाल सरकार के मामले में निर्धारित किये गए थे।
अब खबरें आ रही हैं कि इस जयराज और बेंनिक्स की ‘मृत्यु’ के लिए मुख्य आरोपी सब इन्सेप्क्टर बालाकृष्णन और रघु गणेश हिरासत में लोगों को प्रताड़ित करने का इतिहास रखते हैं। पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कोई एफआइआर दर्ज न होना इस बात की ओर इशारा करता है कि वरिष्ठ अधिकारीयों की ओर से उनके कृत्य के लिए दंड-मुक्ति है। इस मामले में, दक्षिणपंथी संस्थाओं की स्थानीय पुलिस अधिकारीयों के साथ घुसपैठ के भी दावे किये गए हैं। इस प्रकार की शिकायतें अन्य राज्यों, जैसे कि तेलंगाना, उत्तर प्रदेश आदि से भी प्राप्त हुई हैं और इस पहलू पर विस्तृत जांच की आवश्यकता है।
एन.ए.पी.एम संलिप्त पुलिसकर्मियों के गैरकानूनी और अमानवीय कृत्यों की तीव्रतम आलोचना करती है और निम्नलिखित मांगें करती है:
- पोस्टमार्टम के दौरान एक स्वतंत्र डॉक्टर की मौजूदगी हो।
- सिविल सोसायटी को साथ लेते हुए इस भयावह घटना की स्वतंत्र, समयबद्ध न्यायिक जांच हो। इस स्थिति में. सी.बी.आई. की जांच के बजाए, एक स्वतंत्र न्यायिक आयोग की जांच में एसआइटी का गठन किया जाना उचित होगा।
- शामिल पुलिसकर्मियों व उनके खिलाफ, जो घटना देखते रहे पर इसे रोकने की कोशिश न की, धारा 302 व अन्य धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज की जाए।
- मृतकों के परिजनों को समुचित मुआवजा दिया जाए।
- पुलिस महानिदेशक व मुख्यमंत्री परिवार से सार्वजनिक रूप से माफी मांगें और स्पष्ट आश्वासन दें कि दोषियों को जल्द से जल्द सजा दिलाई जाएगी।
हम मानते हैं कि लोगों का ध्यान खींचने वाली यह हिंसक घटना देश भर में हिरासत में होने वाली भयावह हिंसा का ‘छोटा हिस्सा’ मात्र है। तूतुकुडी घटना के सुर्ख़ियों में आने के कुछ दिन बाद, अब श्री.कुमरेसन, पिछले महीने तेनकासी पुलिस द्वारा प्रताड़ित एक ऑटो चालक की जानकारी भी सामने आई है! कुछ महीने पहले, हम सबने राष्ट्रीय राजधानी में 23-वर्षीय फैज़ान पर भयानक पुलिस हिंसा देखी थी, जिसे वे राष्ट्रीय गान गाने पर मजबूर कर रहे थे!
पुलिस महकमे में प्रताड़ना को शायद संस्थागत मान्यता प्राप्त है और इसके लिए ज़िम्मेदार पुलिस अधिकारीयों को शायद ही कभी सज़ा दी गयी हो। वास्तव में, जैसा कि हमने आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी के शारीरिक और यौनिक प्रताड़ना के कुख्यात मामले में देखा था, आइपीएस अधिकारी अंकित गर्ग को राज्य सरकार ने ‘सराहनीय’ सेवा के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार दिए जाने की सिफारिश तक कर दी थी! इस तरह की कार्यवाहियां, न केवल गलत अधिकारियों को दंड-मुक्ति देती हैं, बल्कि उन्हें प्रोत्साहन देती हैं।
हर राज्य में ऐसी पुलिस प्रताड़नाओं के अनगिनत उदाहरण हैं और हमें अच्छे तरह से पता है कि धार्मिक अल्पसंख्यक, आदिवासी, दलित, विमुक्त जनजातियाँ, औरतें, अल्पवयस्क, ट्रांसजेंडर लोग विशेष रूप से पुलिस द्वारा ज़्यादती और हिरासत में हिंसा के प्रति संवेदनशील हैं।
2018 और 2018 की भारत-वार्षिक ‘यातना रिपोर्ट’ के अनुसार देश में रोज हिरासत में औसत पांच लोगों की ‘मौत’ होती है। 2018 में 1966 लोगों की मौत हुई थी और 2019 में 1731 लोगों की और इनमें से अधिकांश की मौत न्यायिक हिरासत में हुई है जो बताता है कि उनकी मौत मजिस्ट्रेट के सामने पेश किये जाने के बाद हुई। संभावना है कि कई मामलों का तो पता ही नहीं चलता। जाहिर है इस सांस्थानिक हिंसा की संस्कृति को बदलने के लिए बड़े ढांचागत बदलावों की आवश्यकता है। बड़े अफसोस की बात है कि 2010 में लोकसभा ने जो ‘प्रताड़ना विरोधी विधेयक’ पारित किया था, पिछले दशक में उस पर कोई अग्रिम कार्यवाही नहीं हुई।
इस संदर्भ में हम तमिलनाडु सरकार समेत अन्य सरकारों से निम्नलिखित मांग करते हैं:
- प्रदेश पुलिस शिकायत प्राधिकरण की कार्यशीलता सुनिश्चित की जाए और इसके पास इसकी सिफारिशें सरकार से लागू करवाने की ताकत हो।
- सभी स्तरों पर पुलिसकर्मियों वार्षिक आधार पर प्रशिक्षण में निवेश किया जाए, पुलिस प्रशिक्षण में मानवाधिकारों को केंद्र में रखा जाए और सुनिश्चित किया जाए कि सिविल सोसायटी व सामाजिक कार्यकर्ता प्रशिक्षण प्रक्रिया में संलिप्त हैं।
- अधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित करने की अंतरराष्ट्रीय तौर पर स्वीकृत प्रणाली अपनाई जाए जिसमें अधिकारियों को उनके अधीन कार्य करने वालों के कृत्यों को जिम्मेदार माना जाता है।
- भारत सरकार पर यातना और अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या सज़ा, 1984 के खिलाफ यू.एन कन्वेंशन को मानने व उसके तहत प्रतिबद्धताओं का पालन करने के लिए ‘यातना विरोधी कानून’ पारित करने के लिए दबाव डाला जाए।
- गिरफ्तार लोगों को हिरासत में भेजने से पहले न्यायिक दंडाधिकारी का उनके समक्ष लाये गये लोगों से अलग से (पुलिस की अनुपास्थिती में) बात करना अनिवार्य किया जाए।
- भारतीय पुलिस बल को सुधारने के लिए ढांचागत सुधार किये जाएं, जिनमें द्वितीय प्रशासनिक संशोधन आयोग की संस्तुति में दी गई सिफारिशों और सुप्रीम कोर्ट की तरफ से प्रकाश सिंह एवं अन्य विरुद्ध केंद्र सरकार (2006) मामले में पारित आदेशोंको अमल में लाया जाए, जिनकी अनदेखी आदेश आने के बाद 14 साल तक की गई है।
तमिलनाडु की इस घटना ने ऐसे समय में लोगों का ध्यान आकर्षित किया है जब केवल अमरीका में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में पुलिस द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड, ब्रेओंना टेलर, टोन म्क्दादे और कई अन्य काले व्यक्तियों पर नस्लवादी पुलिस हमलों ने लोगों के बीच आक्रोश पैदा किया है, जिसके परिणामस्वरूप, ब्लैक लाइव्स मैटर आन्दोलन को नयी ऊर्जा मिली और साथ ही, पुलिस के उन्मूलन और वित्तपोषण रोकने की मांग को भी।
भारत में राज्य-स्वीकृत, ढांचागत हिंसा तथा दंड-मुक्ति की संस्कृति समाप्त करने के लिए हमें लंबा सफर करना है। हम नागरिकों, सिविल सोसायटी व सरकारों से संवेदनशल व हिंसा मुक्त पुलिस बल की जरूरत को पहचानने का आह्वान करते हैं ताकि हिंसा मुक्त समाज और मानव अधिकारों, शांति, गरिमा और न्याय के सम्मान के बड़े लक्ष्य की दिशा में कार्य किया जा सके।
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