अंतर्राष्ट्रीय महत्व की हिंदीसेवी संस्था नागरीप्रचारिणी सभा में पिछले पंद्रह वर्षों से चल रहे कानूनी विवाद का पटाक्षेप हो गया है। जानेमाने कवि-आलोचक-संस्कृतिकर्मी व्योमेश शुक्ल की लिखित आपत्ति को स्वीकार करते हुए वाराणसी के उपज़िलाधिकारी : सदर नंदकिशोर कलाल ने 27 पृष्ठों के आदेश में संस्था में काबिज़ पद्माकर पांडेय और शोभनाथ यादव की कमेटी को ग़ैरकानूनी मानते हुए सहायक निबंधक : सोसाइटीज़ को 2004 की साधारण सभा के सदस्यों की सूची के आधार पर ज़िला प्रशासन की देखरेख में नये चुनाव कराने के आदेश दिये हैं।
बीते पचास वर्षों से एक परिवार हिंदी की इस 128 साल पुरानी महान संस्था पर क़ब्ज़ा जमाये बैठा था। इस निर्णय के बाद संस्था को उस शिकंजे से मुक्ति मिल गयी है। इस बीच संस्था में बौद्धिक संपदा और ज़मीन-जायदाद के घपले से जुड़ी ख़बरें समय-समय पर प्रकाश में आती रही हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की भी इस संस्था पर नज़र बनी रही है और पिछले बरस उसने यहाँ हुए चुनावों की जाँच का आदेश स्थानीय न्यायालय को दे रखा था। उसी सिलसिले में आये इस निर्णय के बाद देश-भर के शोधार्थियों और लेखकों को उम्मीद बंध गयी है कि अब संस्था को उसका खोया हुआ गौरव वापस मिल जायेगा।
नागरीप्रचारिणी सभा की मुश्किलें
हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के निर्माण और प्रसार में अनिवार्य भूमिका निभाने वाली 128 वर्ष पुरानी संस्था नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी की हालत चिंताजनक थी। इस संस्था पर लंबे समय से एक परिवार ग़ैरकानूनी तरीक़े से क़ाबिज़ था। ये लोग निजी लाभ के लिए मनमानेपन से संस्था की मूल्यवान चल-अचल संपत्ति का दुरुपयोग कर रहे थे। हाल ही में बहुमूल्य पांडुलिपियों को दीमकों द्वारा चट कर लिये जाने की ख़बर भी सामने आई। यों, ‘सभा’ की वाराणसी, नई दिल्ली और हरिद्वार स्थित अप्रतिम भौतिक और बौद्धिक संपदा और इसकी स्थापना के संकल्प ख़तरे में थे।
नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी-परिसर के पूर्वी हिस्से में स्थित प्रकाशन-कार्यों के लिए बनाया गया ऐतिहासिक भवन एक दवा व्यापारी को ‘लीज़ डीड’ के ज़रिये दस साल के लिए दे दिया गया है। ग़ौरतलब है कि उस भवन का उद्घाटन भारत के प्रधानमंत्री श्रीयुत लालबहादुर शास्त्री ने किया था। उनके नाम का शिलापट्ट भी भवन के बाहर से हट गया है।
नागरीप्रचारिणी सभा की अतिथिशाला में कुछ लोगों का कब्ज़ा है। उस अतिथिशाला के कमरे शोधार्थियों और साहित्यसेवियों के लिए – दरअसल किसी के भी लिए – उपलब्ध नहीं हैं। उसका कोई दाख़िला रजिस्टर, बिल-बुक और ऑफिस आदि कुछ नहीं है। यही हाल नयी दिल्ली-स्थित अतिथिशाला का भी है – वह भूखंड भी भारत सरकार ने ‘सभा’ को दिया है, लेकिन उसका व्यावसायिक इस्तेमाल हो रहा है। पूरी बिल्डिंग ही किराये पर उठा दी गयी है। ख़ास बात यह है कि सभा की नयी दिल्ली शाखा की बैलेन्स शीट, बैंक ऑपरेशन और आयव्यय से जुड़ा कोई काग़ज़ सहायक निबंधक कार्यालय, वाराणसी में जमा नहीं है।
अनियमितताएँ अनेक हैं। संस्था की भू-संपदा को ग़ैरकानूनी तरीक़े से बेच देने या बहुत लंबी अवधि के लिए किराये पर उठा देने के षड्यंत्र के साथ-साथ ‘सभा’ की बौद्धिक संपदा को भी विदेश-स्थित व्यक्तियों और संस्थाओं को चोरीछिपे बेच देने की कोशिशें चल रही हैं। हिंदी भाषा, नागरी लिपि और भारतीय साहित्य की अनमोल संपदा – लगभग 80 वर्ष पहले नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा संकलित, संपादित और प्रकाशित ग्रंथ – ‘हिंदी शब्दसागर’ इन्हीं लोगों ने अपनी जनरल काउंसिल – साधारण सभा – की अनुमति के बग़ैर शिकागो विश्वविद्यालय के एक विभाग को महज़ 21 लाख रुपये में बेच दिया है।
नागरीप्रचारिणी सभा के ऐतिहासिक मुद्रण और प्रकाशन विभाग अरसे से बंद हैं। अगर सभा द्वारा प्रकाशित सभी किताबें आज भी उपलब्ध हो जाएँ तो हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों और शोधार्थियों समेत वृहत्तर हिंदी-संसार न सिर्फ़ लाभान्वित होगा, बल्कि उनकी बिक्री से होने वाली आय से ‘सभा’ का ‘इकोसिस्टम’ भी सुधर जा सकता है। वे किताबें आज अनुपलब्ध हैं और दूसरे प्रकाशक मौक़े का लाभ उठाकर, कॉपीराइट कानूनों का उल्लंघन करते हुए उन्हें चोरीछिपे छाप भी रहे हैं।
सभा का मुख्यभवन – जिसमें हिंदी का सबसे पुराना ‘आर्यभाषा पुस्तकालय’ है – सवा सौ साल पुरानी एक हेरिटेज इमारत है – जिसे तत्काल सघन देखरेख और सरंक्षण की ज़रूरत है, जबकि रखरखाव के अभाव में वह जीर्णशीर्ण होकर गिरने की कगार पर है। भूतल पर उसका एक हिस्सा ढह भी गया है।
सन 2000 के आसपास तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने 94 लाख रुपये की एक परियोजना में नोएडा-स्थित एक कंपनी सी-डैक के माध्यम से नागरीप्रचारिणी सभा में मौजूद सभी दुर्लभ पाण्डुलिपियों, हस्तलेखों और पोथियों का डिजिटाईजेशन करवाया था; लेकिन उस डिजिटाइजेशन की सीडी या सॉफ्ट कॉपी कहीं – किसी के भी लिए – उपलब्ध नहीं है।
पांडुलिपियाँ और हस्तलेख न जाने किस हाल में हैं ? पता नहीं कुछ बचा भी है या नहीं। वे पाठकों और शोधार्थियों आदि के लिए उपलब्ध नहीं हैं।
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