अदब के आसमां में चमक के पलट गया एक और चाँद, नहीं रहे शम्‍सुर्रहमान फ़ारूक़ी

समकालीन पीढ़ी उन्‍हें उनके 2006 में आए उपन्‍यास ‘कई चांद थे सरे आसमां’ से बेहतर जानती थी। आज से कोई पंद्रह साल पहले उन्‍होंने दास्‍तानगोई को भारतीय सांस्‍कृतिक परिदृश्‍य में दोबारा जिंदा करने का काम किया था।

Read More