समकालीन भारतीय राजनीति का दारा शिकोह, जो कभी ‘शहज़ादा’ था

राहुल के विचार भी अपने परदादा से मिलते-जुलते हैं लेकिन दारा की तरह उनमें भी अपने परदादा के मुकाबले राजनीतिक सूझ-बूझ की कमी देखने को मिलती है। दिन-प्रतिदिन की चुनावी राजनीति को लेकर वे उदासीन नजर आते हैं।

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‘भारत जोड़ो यात्रा’ कैसे बन गयी है संविधान बचाओ यात्रा? सौ दिन पूरे होने पर एक यात्री के विचार

भारतीय अंतर्मन की बाहरी अभिव्यक्ति हमारा संविधान है। इसीलिए भारत जोड़ने की यह यात्रा अपने आप संविधान बचाओ यात्रा में तब्दील होती गयी है क्योंकि आप जब गांधी, नेहरू, कलाम, अंबेडकर या भगत सिंह की याद लोगों को दिलाएंगे तो उसकी सर्वोच्च बाहरी अभिव्यक्ति संविधान में ही होती है, चूंकि वे जिस इतिहासबोध को निर्मित करते हैं वह संविधान में आकर ही पूर्णता पाता है।

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आज़ाद भारत में दलित सशक्तिकरण के तीसरे चरण की शुरुआत

भाजपा सरकार द्वारा उन्हें कमजोर करने के इन षड्यंत्रों से दलित वर्ग में बेचैनी है। भाजपा के लिए भी अब इन्हें रोक पाना चुनौती बनती जा रही है। ऐसे में कांग्रेस खड़गे के चेहरे और राहुल और प्रियंका गांधी के दलितों के पक्ष में खड़े रहने वाले नेता की छवि के मिश्रण से हिंदी बेल्ट में इन्हें फिर से अपने साथ ला सकती है।

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कांग्रेस के संकटकालीन अध्यक्ष की वैचारिक व रणनीतिक चुनौतियां

नवनिर्वाचित अध्यक्ष खड़गे के लिए आने वाला समय बहुत चुनौतीपूर्ण है। सबसे बड़ी चुनौती तो कांग्रेस के उस वैचारिक आधार को पुनर्जीवित और पुनर्प्रतिष्ठित करने की है जो अहिंसक संघर्ष, सेवा, सहयोग, समावेशन और बहुलताओं की स्वीकृति जैसी विशेषताओं से युक्त है। बिना वैचारिक प्रतिबद्धता के वर्तमान फासीवादी उभार का मुकाबला असंभव है।

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चुनावी पॉलिटिक्स की असाध्य वीणा को यात्रा से साधने की एक कोशिश

भविष्य राहुल गांधी का ही मगर इसके लिए राहुल गांधी को एक लकीर खींचनी पड़ेगी। यह लकीर तब तक नहीं खींच सकते जब तक कांग्रेस के वेटरन चाटुकारों की सरपरस्ती से राहुल खुद को निकाल कर अपनी एक अलग इमेज नहीं बना लेते। यह भारत जोड़ो यात्रा दरअसल राहुल की इमेज बनाने की कवायद ही है।

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तराजू और तलवार साथ रखने की अर्थनीति

सरकार को चाहिए कि उद्योगपतियों को प्रोत्साहन दे, न कि अमर्यादित सहायता, अन्यथा क्रॉनी कैपिटलिज्‍म (याराना पूंजीवाद) नाम का राक्षस सत्ता को निगल जाएगा। यह पूंजीवाद स्वतंत्र मीडिया, निष्पक्ष न्यायपालिका, मूर्ख और कम पढ़े लिखे की सत्ता में भागीदारी, सभी को लील लेगा क्योंकि याराना पूंजीवाद कभी लोकतंत्र में विश्वास नहीं करता है और न ही वह किसी कानून को मानता है।

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क्या ‘परिवार’ की कांग्रेस ही राहुल गांधी के सपनों की नयी कांग्रेस है?

अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी को लेकर मचे घमासान से बात साफ हो गयी थी कि ‘परिवार’ पार्टी संगठन पर अपनी पकड़ को ढीली नहीं पड़ने देना चाहता है। अस्सी-वर्षीय मल्लिकार्जुन खड़गे की एंट्री के बाद चीजों को लेकर ज्‍यादा स्पष्टता आ गयी है कि 17 अक्टूबर को मुक़ाबला परिवार के प्रति ‘वफादारी’ और विद्रोहियों द्वारा की जा रही पार्टी के ‘सामूहिक नेतृत्व’ की माँग के बीच होना है। सभी मानकर चल रहे हैं कि जीत अंत में ‘वफादारों’ की ही होती है।

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राहुल को दिल्ली आकर ‘भारत जोड़ो’ की बजाय ‘कांग्रेस जोड़ो’ अभियान चालू करना पड़ेगा!

राजस्थान में चली यह नौटंकी सबसे ज्यादा खुश किसे कर रही होगी? शशि थरूर को! और सबसे ज्यादा दुखी, किसको? राहुल गांधी को! क्योंकि राहुल ने ही केरल से मंत्र मारा था कि ‘एक आदमी, एक पद’। अब आदमी और पद, दोनों ही हवा में लटक गए हैं।

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भारत जोड़ो यात्रा: बौद्धिकों के समझने के लिए तीन जरूरी पहलू

धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने साम्प्रदायिकता, जातिवाद आदि के विरुद्ध राष्ट्र्वादी परिप्रेक्ष्य से संघर्ष नहीं किया। भारत जोड़ो यात्रा वह जरूरी व ऐतिहासिक कार्य कर रही है।

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गांधी बनाम मोदी: लोकतंत्र में सियासी जंग का आखिरी मोर्चा सज चुका है!

भाजपा को अपने इस अभियान को सफल करना है तो गांधी परिवार को राजनैतिक रास्ते से हटाना होगा क्योंकि गांधी परिवार ने दंडवत होने से या रास्ता छोड़ देने से इनकार कर दिया है। सत्ता के चारों हथियार साम, दाम, दंड, भेद गांधियों को झुकाने में नाकाम रहे हैं।

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