मजरूह लिख रहे हैं अहले वफ़ा के नाम, हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह…

ये बहार भी क्या बहार है जो सब कुछ बहा कर ले चली है! चाहे वो साहित्य हो, अस्मिता हो, साझापन हो या संस्कृति।

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