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भारत में सहमति आधारित समावेशी राष्ट्रवाद का उभार और पतन: पुस्तक अंश
मेरी उम्र के भारतीय, जो आज़ादी के कुछ साल बाद पैदा हुए, उनके भीतर राष्ट्रवाद को किसी शासनादेश के माध्यम से नहीं भरा गया। माहौल ही कुछ ऐसा था कि वह अपने आप भीतर अनुप्राणित होता गया। हमें इस बात को परिभाषित करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी कि हम भारतीय क्यों और कैसे थे, बावजूद इसके कि हमने बिलकुल तभी विभाजन की खूंरेज़ त्रासदी झेली थी जिसे सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के नाम पर अंजाम दिया गया था।
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