चमोली हादसे पर अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समूह के कुछ शुरुआती निष्कर्ष

एक उल्लेखनीय साझे प्रयास में पर्वतों पर ग्लेशियर और पेराफ्रॉस्ट से जुड़े खतरों को समझने वाले एक अंतर्राष्ट्रीय और भारतीय वैज्ञानिकों के समूह ने उत्तराखंड में बीती 7 फरवरी को आयी आपदा के कारणों का आकलन किया है। उनके इस आकलन में तमाम महत्वपूर्ण बातें सामने आयीं हैं जो कि हमारी पर्वतीय आपदाओं के बारे में समझ को बढ़ाती हैं।

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NTPC पर गैर-इरादतन हत्या का केस दर्ज हो: तपोवन-रैणी से लौटे पर्यावरणकर्मियों की रिपोर्ट और मांगें

एनटीपीसी को 8 फरवरी 2005 में तपोवन विष्णुगाड परियोजना बनाने के लिए पर्यावरण स्वीकृति मिली थी। 2011 में यह परियोजना के पूरा होने की संभावित तारीख थी। किंतु परियोजना लगातार क्षेत्र की नाजुक पर्यावरणीय स्थितियों के कारण रूकती रही है। सन 2011, 2012 व 2013 में काफर डैम टूटा, बैराज को कई बार नुकसान पहुंचा।

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उत्तराखंड के 85 फ़ीसद जिलों की आबादी प्राकृतिक आपदा से खतरे के मुहाने पर: CEEW

सीईईवी विश्लेषण ने यह भी बताया कि उत्तराखंड में 1970 के बाद से सूखा दो गुना बढ़ गया था और राज्य के 69 प्रतिशत से अधिक जिले इसकी चपेट में थे। साथ ही, पिछले एक दशक में, अल्मोड़ा, नैनीताल और पिथौरागढ़ जिलों में बाढ़ और सूखा एक साथ आया।

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हिमालय में अनियंत्रित विकास योजनाएं चमोली त्रासदी के लिए जिम्मेदार: UPP

चिपको, वन बचाओ आंदोलन और हिमालयी संवेदनशीलता को समझने वाले तमाम विरोध के बावजूद सरकार पूंजीपतियों, माफियाओं व कम्पनियों के हाथों में खेल रही है। जलवायु परिवर्तन की विभीषिका ने इस प्रक्रिया को और तीव्र किया है जिससे उत्तराखंड में भारी तबाही की संभावनाएं बढ़ गई हैं।

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क्या टल सकती थी चमोली में ग्लेशियर फटने से हुई तबाही?

साल 2019 के इस अध्ययन में साफ़ कहा गया है कि भारत, चीन, नेपाल और भूटान में 40 वर्षों के उपग्रह अवलोकन से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन हिमालय के ग्लेशियरों को खा रहा है।

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