बात बोलेगी: त्रेता और द्वापर के लोकतांत्रिक कड़ाहे में लीला और मर्यादा का ‘डिस्ट्रक्टिव’ पकवान
हमारी संसद दो महान मिथकीय युगों के पहियों पर टिका ऐसा रथ है जिस पर जबरन लोकतंत्र को सवार कर दिया गया है। यह अनायास नहीं है कि त्रेता और द्वापर के बीच ग्रेगरियन कैलेंडर से लयबद्ध आधुनिक लोकतंत्र कहीं लुप्त हो रहा है। हिंदुस्तान का मानस इसी त्रेता और द्वापर में कहीं अटक गया है। गलती उसकी नहीं है, उसे इस रथ पर यही मर्यादा और लीला दिखलायी दे रही है। वो उसी को देखकर जी रहा है।
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