जिन्हें अपनों ने छोड़ दिया, उन्हें ‘आग देने वाले’ योद्धाओं का इतिहास अभी बाकी है!

कोरोना संक्रमण के पहले चरण में जिस तरह से मजदूरों के साहस और संघर्ष को याद किया जाएगा उसी से तरह श्‍मशान घाट पर ‘आग देने वाले’ इन ‘योद्धाओं’ को भी नहीं भूलना चाहिए और इनके योगदान को भी इतिहास में जगह मिलनी चाहिए। यह बात हिन्दूवादी व्यवस्था को चलाने वाले ‘ठेकेदारों’ को भी समझने की जरूरत है।

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दो दूनी चार, 1600 से ज़्यादा की क़तार: मारे गए शिक्षकों के नाम बच्चों का एक सबक!

हर बार जब वह गिनती में लगे होते, तो खोई हुई आत्माओं की इस अंतहीन सूची में कुछ और नाम जुड़ चुके होते. उन्होंने सोचा कि अगर वह इन भटकती आत्माओं को पाताललोक में अपने ऑफ़िस के बाहर क़तार में खड़ा कर दें, तो यह लाइन सीधा प्रयागराज तक पहुंच जाती.

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क्या UP में कोविड मौतों की वास्तविक संख्या छुपायी गयी? कांग्रेस ने जारी किये चौंकाने वाले आँकड़े!

विशेषज्ञों का मानना है कि पहली लहर के दौरान आंकड़ों को सार्वजनिक न करना दूसरी लहर में इतनी भयावह स्थिति पैदा होने का एक बड़ा कारण था। जागरूकता का साधन बनाने की बजाय सरकार ने आँकड़ों को बाज़ीगरी का माध्यम बना डाला।

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‘आज’ के दिवंगत निदेशक की पत्नी ने लगायी थी PM से इंसाफ की गुहार, आज तक है जवाब का इंतज़ार

पति के निधन के 19 दिन बाद 12 मई को प्रधानमंत्री को लिखे अपने पत्र में अंजलि ने लिखा है: ‘’कोरोना ने नहीं, अस्पताल वालों के क्रूर व्यवहार और लापरवाही ने उन्हें असमय हमसे दूर कर दिया है। मेरे बच्चों ने अपना पिता और मैंने अपने पति को हमेशा के लिए खो दिया है।‘’

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दक्षिणावर्त: क़त्ल पर जिन को एतराज़ न था, दफ़्न होने को क्यूं नहीं तैयार…

दरक चुके अपने समाज की आलोचना हम कब करेंगे? अपने सामाजिक-सांस्‍कृतिक दायित्व का बोध हमारे भीतर कब होगा और हम संविधान में वर्णित अधिकारों को रटने के साथ सामाजिक ‘कर्त्तव्यों’ को भी कब जानेंगे?

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गंगा में बहते शवों को नोचती मछलियों और कुत्तों ने बजाया निषादों के लिए खतरे का अलार्म!

लाशों के मिलने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। उन शहरों में खौफ और हड़कंप ज्यादा है जहां से होकर गंगा गुजरती है। अधिसंख्य लाशें कोरोना संक्रमितों की हैं जिन्हें लाचारी के चलते नदियों में बहा दिया गया था, अब इन्‍हें नदी के अंदर मांसाहारी मछलियां और किनारे पर आवारा कुत्ते नोच खा रहे हैं। इससे नदी किनारे रहने वाले और उसी से अपनी आजीविका चलाने वाले समुदायों पर स्‍वास्‍थ्‍य का गंभीर खतरा पैदा हो गया है।

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आप यहूदियों से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे गोएबल्स की मौत का शोक मनाएं?

2019 के लोकसभा चुनाव के बाद दंगल के ‘मुस्लिम-मुक्त भारत’ जैसे शो से प्रभावित होकर तुम्हारा पड़ोसी जो तुम्हारे हर सुख दुःख में साथ रहा हो और तुम उसके सुख दुःख में साथ रहे हो, अचानक एक दिन आकर तुम्हारे सामने तुम्हारे पिता जी से कहे कि मुझे तुम्हारा घर पसन्द है, जाते वक्त (पाकिस्तान) मुझे देकर जाना। ये सुनकर आप पर क्या गुजरेगी?

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ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि लाशों के ढेर पर सम्पन्न कराया गया यूपी का पंचायत चुनाव?

वहां किसी तरह की कोई सोशल डीस्टेंसिंग नहीं थी, बहुत सारे लोग वहां बिना मास्क के घूम रहे थे, सामग्री वितरण, हस्ताक्षर करते समय लोग एक दूसरे के ऊपर चढ़ जा रहे थे। मैं क्या कोई भी चाह कर भी किसी तरह की सोशल डिस्टेंसिंग नहीं रख सकता था। यहीं से मुझे कोरोना से मरने वाले शिक्षकों के कारण नजर आने लगे।

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कोरोना: रोज बनते मौतों के रिकार्ड के बीच अब गांवों से भी निकल रही हैं लाशें

24 अप्रैल को पंचायती राज दिवस के मौक़े पर पंचायत सदस्यों और प्रतिनिधियों के साथ वर्चुअल बातचीत और ‘पुरस्कार वितरण’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंचायत प्रतिनिधियों से कहा- “पिछले साल की तरह इस साल भी कोरोना महामारी को गाँवों तक पहुँचने नहीं देना है”। इस बयान पर आप हंस भी सकते हैं, रो भी सकते हैं और चाहें तो अपना माथा भी पीट सकते हैं।

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श्रद्धांजलि में ‘श्रद्धा’ ही मूल बात है!

रोहित पेशेवर पत्रकार नहीं थे। अगर होते तो उसकी पहली कसौटी यही होती कि सत्तापक्ष से उन्‍हें इतना संरक्षण न मिला होता। इसकी पुष्टि रोहित के तमाम धतकर्म भी करते हैं जो उन्होंने पत्रकार के रूप में किये। पत्रकारिता उनका पेशा था, वो पेशेवर पत्रकार नहीं थे। यह भेद ही उन्हें रोहित सरदाना बनाता था।

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