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प्रशांत भूषण के हाथ से फिसला वह क्षण और ‘स्थायी भयावहता’ में तब्दील होते ‘तात्कालिक भय’!
बीतने वाले प्रत्येक क्षण के साथ नागरिकों को और ज़्यादा अकेला और निरीह महसूस कराया जा रहा है। जिन बची-खुची संस्थाओं की स्वायत्तता पर उनकी सांसें टिकी हुई हैं, उनकी भी ऊपर से मज़बूत दिखाई देने वाली ईंटें पीछे से दरकने लगी हैं।
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