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अख़बारनामा: वैश्वीकरण के दौर में भारतीय पत्रकारिता का एक जायज़ा
आज जो साम्प्रदायिकता का ज़हर हमारे समाज की जड़ों में गहरे तक उतरता जा रहा है तो यह केवल आज घटित हो गई कोई परिघटना नहीं है। इसकी भूमिका तभी से बननी शुरू हो गई थी जब उदारीकरण की नीतियों के माध्यम से हमारा देश अमेरिकी साम्राज्यवाद के जाल में फंसने लगा था। इस बारे में आलोक श्रीवास्तव जी की यह पुस्तक आंखें खोलने वाली है।
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