अख़बारनामा: वैश्वीकरण के दौर में भारतीय पत्रकारिता का एक जायज़ा


संवाद प्रकाशन से प्रकाशित यह किताब ‘अख़बारनामा’ वैश्वीकरण के दौर में भारतीय पत्रकारिता का एक जायजा प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक में प्रस्तुत लेख मुख्य रूप से 1990 में नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद भारत के प्रिंट-मीडिया में हुए बदलावों को रेखांकित करते हैं। ये शोध निबंध नहीं हैं, न ही पत्रकारिता पर किया गया कोई अकादमिक लेखन। ये एक पत्रकार के द्वारा देखे-जाने गये बदलावों का विश्लेषण और दस्तावेज़ीकरण है। ये लेख ‘कथादेश’ में सन् 2000 से 2008 तक नियमित स्तंभ ‘अख़बारनामा’ के रूप में लिखे गए थे।

भारत के प्रिंट-मीडिया ने विगत तीन दशकों में जो स्वरूप पाया है, यह किताब उसके इस स्वरूप और यात्रा के कुछ जरूरी आयामों को उद्घाटित करती है। आज हम अपने आसपास जिस समाज को देखते हैं उसके बनने में समाचार माध्यमों अख़बार, टेलीविजन इत्यादि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आज जो साम्प्रदायिकता का ज़हर हमारे समाज की जड़ों में गहरे तक उतरता जा रहा है तो यह केवल आज घटित हो गई कोई परिघटना नहीं है। इसकी भूमिका तभी से बननी शुरू हो गई थी जब उदारीकरण की नीतियों के माध्यम से हमारा देश अमेरिकी साम्राज्यवाद के जाल में फंसने लगा था। इस बारे में आलोक श्रीवास्तव जी की यह पुस्तक आंखें खोलने वाली है।

‘विचार बचने न पाए’ इस शीर्षक से अपने एक लेख में वे लिखते हैं, “भारत में अधिकांश अख़बार पूंजीवादी संस्थानों से निकलते हैं और पहले भी न उनका स्वरूप आदर्श था, न मक़सद। वे सत्ता और शक्ति के प्रतिनिधि थे, उसके नुमाइंदे थे, पर इसके लिए एक सीमा तक उन्हें आम जन की ज़रूरत पड़ती थी – उसके जीवन के बारे में वे उस हद तक उदासीन नहीं रह सकते थे। एक संतुलन की पद्धति काम करती थी। व्यापक समाज से जुड़े मुद्दों को थोड़ी ही सही, जगह हासिल थी। पिछले दस सालों में साम्राज्यवादी असर ने अख़बारों को जिन विषयों तक सीमित कर दिया है, वे हैं –

  1. मनोरंजन-उद्योग के जनसंपर्क माध्यम के रूप में।
  2. धर्म, आध्यात्म (हिन्दू) के प्रचार-तंत्र के रूप में।
  3. हिन्दुत्व, विनिवेश, व वैश्वीकरण की राजनीति के प्रचारक के रूप में।

इस पुस्तक में प्रस्तुत लेखों को निम्न शीर्षकों से पांच खंडों में बांटा गया है – ‘साम्राज्यवाद-फासीवाद के साथ क़दमताल’, ‘पूंजीवादी प्रेस का महाख्यान’, ‘जमीर के एवज़ में, एक मतिमूढ़ गौरवान्वित दासता’। यह शीर्षक ही वर्तमान समय में अख़बार और मीडिया-संस्थानों के बारे में बहुत कुछ कहते हैं। देश भर में लाखों की संख्या में छपने वाले और उससे भी बड़े पाठक वर्ग द्वारा पढ़े जाने वाले ये अख़बार, जो वैचारिक सामग्री अपने पाठकों तक ले जा रहे हैं, उसमें कोई चयन-दृष्टि नहीं है। उसमें भविष्य का कोई सपना नहीं है। यह पत्रकारिता आज उन शक्तियों के हाथ में है जो स्वतन्त्रता-संग्राम के दौर में अर्जित मूल्यों से भी समाज को पीछे ले जाना चाहते हैं।

पत्रकारिता का साम्राज्यवादी चेहरा: संदर्भ एस.पी. सिंह

1990 के बाद से यह तीन बातें अख़बारों के कंटेंट का मुख्य विषय बन गई — हिन्दुत्व की राजनीति, विनिवेश और वैश्वीकरण का प्रचार। इस बारे में पुस्तक के लेखक लिखते हैं कि, “हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व में स्पष्ट अंतर है। इन अख़बारों ने इस अंतर को पाटने का काम बड़ी दक्षता से अपने हाथों में ले लिया”। ….. हिन्दुत्व की राजनीति एक तरह से हिन्दी-क्षेत्र में हिन्दी प्रिंट मीडिया द्वारा ही स्थापित और प्रचारित की गई। 1985 से लेकर बाबरी ध्वंस तक के हिन्दी अख़बारों का यदि समग्र अध्ययन किया जाए तो इस हिन्दुत्व को आकार लेते देखा जा सकता है।

राग दरबारी: भारतीय मीडिया, संपादक और उसकी नैतिकता

बल्कि सच तो यह है कि 1980 के आसपास स्थानीय और छोटे हिन्दी अखबारों में से जिन अख़बारों ने, उत्पादन और संचार में आए नये तकनीकी परिवर्तनों के ज़रिए अपने विस्तार की यात्रा शुरू की थी, उन्हें सहसा हिन्दुत्व की राजनीति के रूप में एक ऐसा कंटेंट भी मिल गया, जिसके सतत प्रस्तुतिकरण से वे अपनी प्रसार संख्या में निरंतर वृद्धि करते जा सकते थे। यही हुआ भी। हिन्दी के छोटे स्थानीय अख़बारों का बड़े कारपोरेट समूहों के रूप में विकास और हिन्दुत्व की अंतर्वस्तु का विकास साथ-साथ परास्परावलम्बी के रूप में हुआ।

पत्रकारिता के वर्तमान परिदृश्य पर विचार करते हुए लेखक का कहना है कि “कुल मिलाकर, 1990 के बाद भारत की पत्रकारिता ने स्पष्टत: जनविरोध की एक लाइन चुनी और अप्रतिहत रूप से इस दिशा में उसने अपनी यात्रा की। इस काम के लिए जो सबसे ज़रूरी बात थी, वह यह कि एक विचारहीन समाज का निर्माण किया जाए। समाज पूरी तरह तो विचारहीन हो नहीं सकता, किंतु समाज उतना समाज ज़रूर विचारहीन हो सकता है जितना इन अखबारों की ज़द में था। यह था भारत का शिक्षित मध्यमवर्ग। अखबारों को अपने इस लक्ष्य में अभूतपूर्व सफलता मिली, परंतु यह तो मात्र नींव निर्माण का काम था। 1990 से 2000 तक का यह दौर जब प्रिंट मीडिया ने भारत के विचारहीन करोड़ों के मध्यम वर्ग को एक रूप दे दिया। यहां प्रथम चरण समाप्त हुआ। दूसरे चरण में चैनल इस मोर्चे पर आ डटे और तीसरे चरण में चैनल + सोशल मीडिया ने मंच संभाला।”

प्रेस स्वतंत्रता दिवसः उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर बढ़ते हमलों और धमकियों पर CPJ की विस्तृत रिपोर्ट

यह पुस्तक पत्रकारिता के छात्रों के साथ-साथ उन पाठकों के लिए भी बेहद विचारोत्तेजक और उपयोगी है जो पत्रकारिता, उसके स्वरूप और उसकी यात्रा को समझना चाहते हैं। पुस्तक का प्रकाशन ‘संवाद प्रकाशन’ मेरठ से हुआ है। पुस्तक का मूल्य 300 रूपए मात्र है। यह किताब प्रकाशक से डाक द्वारा मंगवाई जा सकती है। अमेज़न पर भी उपलब्ध है।


अंकेश इलाहाबाद स्थित स्वतंत्र लेखक हैं

About अंकेश मद्धेशिया

View all posts by अंकेश मद्धेशिया →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *