यूक्रेन पर रूस के हमले का आज 28वां दिन है। भारत में पेट्रोलियम के दामों में बढ़ोतरी कर दी गयी, हालांकि दावा यही किया जाता रहा कि भारत स्वतंत्र विदेश नीति का पालन करेगा और युद्ध में देशहित को ऊपर रखेगा। इस संदर्भ में दावा किया गया कि भारत तेल की सस्ती खरीद रूस से करेगा जिससे अंतर्राष्ट्रीय बाजार के दबाव से वह खुद को बाहर रख सकेगा। इसके साथ में यह भी कहा गया कि भारत युद्ध के हालात से बने अनाज के बाजार में भी अपनी हैसियत बढ़ाएगा और खासकर गेहूं की आपूर्ति बढ़ाकर मुनाफा कमाने के अवसर का प्रयोग करेगा। अखबार में इन सबके संदर्भ में कुछ-कुछ खबरें भी आती रहीं, लेकिन सच्चाई क्या है? अभी बाहर से न तो कच्चा तेल आया और न ही गेहूं इतना निर्यात किया गया जिससे भारत का आंतरिक बाजार प्रभावित होता। फिर भी रसोई गैस, पेट्रोल और डीजल में वृद्धि कर दी गयी। युद्ध और युद्ध की आशंका से घरेलू बाजार में की गयी इस कृत्रिम दाम वृद्धि को अर्थशास्त्र से अधिक राजनीतिक खेल के रूप में समझना चाहिए।
भारतीय रुपया अंतर्राष्ट्रीय बाजार में डॉलर के सामने लगातार गिरता गया है। विदेशी निवेशक (इसमें भारतीयों की संख्या भी शामिल कर लेना चाहिए) शेयर बाजार और वित्त निवेशों में अपने जमा पैसे पर अधिक ब्याज की मांग कर रहे थे। जैसे ही अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत से अधिक लाभ वाले निवेश की स्थिति बनी- कहा जा रहा है इस युद्ध की वजह से- वे यहां से निकलने का रास्ता बनाने लगे। देखते-देखते लाखों करोड़ रूपये बाजार से गायब हो गये। उन्हें रोकने के लिए रूपये का मूल्य सरकार ने गिराने का फैसला ले लिया जिसका सीधा असर भारत के थोक भाव सूचकांक पर चलने वाले घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर पड़ा। यदि इसे सरल भाषा में कहें तो भारत का खुदरा बाजार और लोन महंगा हुआ, वहीं पीएफ जैसे जमा पैसे पर ब्याज कम कर दिया गया। सरकारी पूंजी को और अधिक बेचने की तैयारियों की घोषणा कर दी गयी जिससे बाजार की साख बची रहे।
यहां यह याद रखना जरूरी है कि कोरोना के समय में भारत ने सबसे खतरनाक तरीके से बंदी को लागू किया था। बाजार की उत्पादक गतिविधियां बंद हो गयी थीं और उन्हें दोबारा पटरी पर आने में बहुत वक्त लगा। बहुत बड़ा हिस्सा पटरी से ही बाहर हो गया। इस दौरान उच्च और मध्यवर्ग अपनी बचत का बड़ा हिस्सा शेयर और वित्त बाजार में ले गया। रूपये के मूल्य में स्थिरता बने रहने की स्थिति तो पैदा हुई, लेकिन बाजार की आधारभूमि में निर्णायक पक्ष जो श्रम है वह तबाह होने की स्थिति में चला गया। खुद सरकारों ने अपने श्रम कानूनों और श्रम मूल्य को गिराने में कोर कसर न छोड़ी। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में सस्ते श्रम का यह नायाब नमूना अर्थशास्त्र के नियमों से ज्यादा राजनीति से ही तय किया गया। इस संदर्भ में बहुत से अर्थशास्त्री सिर पीटते रह गए लेकिन उन्हें सूझ नहीं आया कि यह सब क्यों हो रहा है, क्यों किया जा रहा है। या यूं कहें कि जो समझ में आ रहा था उस पर उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था। अंततः इसका प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत द्वारा उतारे जा रहे उत्पादों के मूल्य, मूल्य निर्धारण और रुपये पर पड़ना ही था।
पिछले साल भर में निर्यात की सुधरती स्थिति के दावों पर रूपये के अवमूल्यन ने कितनी भूमिका निभायी या निर्यात से विदेशी मुद्रा कमाने में यह कितना कारगर हुआ, इसे देखना होगा लेकिन इसका सीधा असर घरेलू बाजार में दामों में होती जा रही वृद्धि के रूप में पड़ा है। इसका सीधा असर श्रमिकों के जीवन पर पड़ रहा है। और अधिक लोग गरीबी के गिरफ्त में होंगे। भारत सबसे युवा देश की जगह सबसे अधिक बेरोजगार श्रमिकों की कतार में खड़ा हो रहा है। ऐसे में सरकार मध्यवर्ग और श्रमिक दोनों की ही बदतर हालत को अर्थशास्त्र के नियमों से नहीं, लाभार्थी और धार्मिक उन्माद की राजनीति से सुलझा रही है और देश के विकास का दावा आंकड़ों से अधिक जबानी जमाखर्च यानी चुनावी जंग में दिखा रही है। इन दावों और उलझाकर रखे जाने वाली नीतियों पर होने वाले खर्च और अंतर्राष्ट्रीय बाजार की निरंतर पैदा हो रही जरूरतों के लिए वह घरेलू बाजार से ही पैसे उठा रही है। इसके लिए उसे किसी लिहाज की भी जरूरत नहीं रह गयी है।
आधुनिक विश्व का उदय युद्धों के साथ हुआ। राष्ट्रवाद की आधारभूमि पूंजी आधारित बाजार होता है। इस बाजार की सीमाओं ने बहुत सी अन्य सीमाओं का ध्वस्त कर दिया, लेकिन इन सीमाओं का निर्णायक पक्ष पूंजी का घरेलू बाजार ही रहा। साम्राज्यवाद के दौर में भी इसी घरेलू बाजार पर नियंत्रण करने और दूसरे के बाजार पर कब्जा करने के अभियानों के लिए घरेलू बाजार के राष्ट्रवाद ने फासीवाद की शक्ल ले ली। साम्राज्यवादी पूंजी ने अपने पतित चेहरे के साथ जिस युद्ध का सहारा लिया उसे हम दूसरे विश्वयुद्ध में देख चुके हैं। इसके बाद युद्ध पर चलने वाली दुनिया लोकतंत्र के जुमलों से चलायी जा रही है। सारे युद्ध या शांति इसी जुमले के इर्द-गिर्द ही घूम रहे हैं, लेकिन अब भी युद्ध निरन्तर बनी रहने वाली सच्चाई है। इससे भारत अछूता नहीं है। इन युद्धों का निश्चित ही घरेलू बाजार के अर्थशास्त्र के नियमों पर असर पड़ता है, लेकिन जो बात निर्णायक है वह घरेलू बाजार ही है। ऐसे में दुनिया में चल रहे युद्धों का आईना दिखाकर यह कहना कि यह अंतर्राष्ट्रीय स्थिति है जिससे हमारा देश बुरी तरह से प्रभावित हो रहा, महंगाई इन्हीं कारणों से है, हमें खतरनाक तर्कों की तरफ ठेलने जैसा है। ये ऐसे तर्क हैं जिससे देखते-देखते हम भी दुनिया में चल रहे युद्धों में एक युद्ध लड़ने वाले देश में बदल जाएंगे।
ऐसी स्थिति इराक पर अमेरिकी हमले के समय बनी थी और कुछ हद तक भारत को अमेरिकी सहयोग में जाना पड़ा था। उस समय इराक भारत का करीबी देश था जहां से न सिर्फ तेल का आयात होता था, बल्कि भारत से बड़े पैमाने पर वहां लोग नौकरियां कर रहे थे। वह युद्ध जो मूलतः झूठ के दावों पर लड़ा गया और पेट्रो-डॉलर पर कब्जा कर सिर्फ इराक ही नहीं कई देशों को बर्बाद किया गया, हम भी उसकी गिरफ्त की ओर बढ़ रहे थे। आज भी इराक के बच्चों और वहां के लोगों की चीखें युद्ध की भयावह सच्चाइयों को खोलकर सामने नहीं ला सकी हैं।
अंतर्राष्ट्रीय बाजार और घरेलू बाजार के अंतर्संबंधों में ही विदेश नीति का आधार छुपा होता है। रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध में अमेरिका भारत पर लगातार दबाव बनाए हुए है कि वह रूस के खिलाफ पोजीशन ले। इस संदर्भ में वह भारत को हथियार की आपूर्ति के लिए अपने दूतों के माध्यम से लगातार समझाने की कोशिश कर रहा है कि अमेरिका भारत को हथियार देगा। इन दावों का सीधा असर पाकिस्तान पर पड़ रहा है। भारत के कई कूटनीतिज्ञ और अखबार, चैनल भी पाकिस्तान के इस हाल में चले जाने पर तालियां बजा रहे हैं जबकि वे भूल रहे हैं कि यह सब कुछ पर-निर्भर रणनीति से अधिक कुछ भी नहीं है। कोई ऐसा दिन नहीं है जब अमरीका से जुड़े लोगों का इस संदर्भ में भारत के अखबारों में साक्षात्कार या बयान न छप रहा हो जबकि रूस, भारत को ठोस तरीके से वायदे कर रहा है। इसी दौरान जापान भारत में आकर निवेश की घोषणा कर गया। चीन से भी एक प्रतिनिधि भारत में वार्ता के लिए आया।
उधर पूर्वी यूरोप के देश नाटो के साथ गोलबंद हो रहे हैं, लेकिन वहां की जनता में ‘महान रूस’ की अवधारणा जगह बना रही है। पूर्वी यूरोप में यह तनाव उसे गृहयुद्ध की तरफ ले जाएगा, जैसा कि यूक्रेन में हो चुका है। इन गृहयुद्धों का प्रयोग आमतौर पर साम्राज्यवादी खेमे के किसी एक देश के कब्जे में ही बदलता है। ये देश रूस या अमेरिका का निवाला बन जाएंगे और जनता गुलामी के भंवर में फंस जाएगी। यदि हम मानचित्र पर देखें तब हमें पूर्वी यूरोप और उससे सटे मध्य एशियाई देशों की स्थिति का पता चलता है। तुर्की, ईरान, अरब अमीरात, इजरायल, पोलैंड जैसे देश ही नाटो और रूस के बीच मजबूत देश की तरह दिखते हैं। दूसरी तरफ भारत, चीन, कोरिया और जापान हैं। इसमें भारत एक ऐसा देश है जो आर्थिक और सैन्य मोर्चों पर पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर है। यदि हम मोर्चेबंदी पर नजर डालें तो नाटो के तहत यूरोप और उसके सहयोगी देश एक साथ हैं। इसी तरह रूस और चीन ने एससीओ नाम से एक धुरी बना रखी है। भारत जिस गुटनिरपेक्ष आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाता रहा था, आज वह खत्म हो चुका है। भारत समझौतों के माध्यम से रूस और अमेरिका के साथ रणनीति या कूटनीति बनाने की नीति पर चल रहा है जो निश्चय ही बेहद कमजोर भूमि पर टिकी हुई है। आर्थिक हालात के लिए यह अमेरिका पर निर्भर है और सैन्य मोर्चों पर मुख्यतः अमेरिका और रूस पर- खासकर रूस पर निर्भर है। इस तरह भारत की स्थिति इन अंतर्राष्ट्रीय मोर्चों पर बेहद कमजोर है। इसके अपने पैरों के नीचे की जमीन उतनी मजबूत नहीं है जितने से यह वैश्विक रंगमंच पर तनकर खड़ रह सके। यदि यह युद्ध लंबा खिंचता है तब भारत पर दबाव बढ़ता जाएगा। यह दबाव उसके खड़े रहने की स्थिति का कमजोर करेगा। यदि वह अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति में अपने घरेलू बाजार की निर्भरता छोड़कर इस या उस के दांवपेंच में घुसेगा, युद्ध की तबाहियों का हिस्सा बनेगा, तब भारत के लिए विषम स्थिति पैदा होना लाजिमी होगा।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि इस युद्ध में भारत की भूमिका क्या होगी? बहुत से प्रोफेसर और बुद्धिजीवी, जो युद्ध की वजह से बाजार के उठान में चरम भरोसा रखे हुए हैं वे इसे अवसर में बदल लेना चाहते हैं। उनके अनुसार भारत अपने अनाज बाजार को बढ़ा सकता है। कुछ बुद्धिजीवी लोकतंत्र के दावों के आधार पर रूस के साथ खड़े होने के लिए तैयार नहीं हैं और उन्हें डर है कि पुतिन का समर्थन देने का अर्थ एक दिन भारत में पुतिन जैसा राज का रास्ता खोलने जैसा हो जाएगा। वे अमेरिका का समर्थन नहीं करते हैं और न ही नाटो का, लेकिन वे जिस तरह के हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं उसमें अमेरिकी नेतृत्व वाले युद्ध की बात अंतर्निहित है।
मेरी समझ यही बनती है कि साम्राज्यवादी मंसूबे और अभियान निरंतर चलने वाले युद्धों से भरे होते हैं। इन युद्धों में किसी भी तरह की हिस्सेदारी कम से कम उस देश की तबाही का कारण ही साबित होगी। खासकर, उसके घरेलू बाजार और राजनीति में जनता की उपस्थिति खत्म होने की ओर बढ़ती है। तानाशाह पैदा होते हैं। ये तानाशाह सिर्फ सत्ता के शीर्ष पर नहीं होते हैं, वे गली-मोहल्लों में पैदा हो जाते हैं और जनता को ढोर-डांगर की तरह हांकने लगते हैं। युद्ध मोर्चों से अधिक घरेलू जिंदगी पर थोप दिया जाता है। युद्ध जो विभीषिका लाती है वह विदेश से चलते हुए हमारे घरों तक आती है। यह मानवता के लिए खतरा है।
इसलिए जरूरी है कि भारत जैसे देश और देश की जनता रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे जंग का विरोध करे, उसे रोकने के लिए कदम बढ़ाए और इस युद्ध में अमेरिका या नाटो के हस्तक्षेप को रोका जाय। यह दुर्भाग्य है कि भारत के इतने छात्रों के यूक्रेन में फंसे होने के बावजूद न तो हमने युद्ध रोकने का आह्वान किया और न ही इन युद्धों से आने वाले प्रभावों को रोकने के लिए, युद्ध में मारी जा रही आम जनता के पक्ष में ढंग से कोई आवाज बुलंद की। हम अखबारों में युद्ध की कतरनें देख रहे हैं और हथियारों की खरीद-फरोख्त के लिए होने वाली दलीलों की खबर पढ़ रहे हैं जबकि हम जान रहे हैं कि युद्ध चल रहा है और लोग मारे जा रहे हैं। युद्ध के प्रति हमारा यह नजरिया कभी नहीं था। आइए, कहें, रूस और यूक्रेन युद्ध अब बंद हो!