UP: जातिगत गोलबंदियों में बंटे पूर्वाञ्चल के मतदाता के पास भाजपा के अलावा क्या कोई विकल्प है?


पिछले कई दिनों से मैं पूर्वांचल के विभिन्न जिलों में आम लोगों से बातचीत कर रहा हूँ. बातचीत का सार यह जानना है कि क्या पूर्वांचल के आम लोगों में योगी आदित्यनाथ की सरकार को लेकर कोई गुस्सा है? यदि हाँ, तो कितना और क्या यह गुस्सा भाजपा को 2022 में कोई नुकसान पहुंचा पाएगा? इस बातचीत में मैं यह भी समझना चाहता हूँ कि क्या दिल्ली में कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे किसानों से पूर्वांचल में भाजपा को कोई नुकसान होगा?

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से रोजगार की तलाश में सबसे ज्यादा प्रवासी मजदूर विभिन्न राज्यों में काम करने के लिए जाते हैं. जब अर्थव्यवस्था में गिरावट का दौर जारी हो, जीडीपी, बेरोजगारी, महंगाई आदि के सवाल पर मोदी सरकार लगातार घिरी हुई हो, तब क्या 2022 के विधान सभा चुनाव में इस इलाके के प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों से भाजपा को कोई नुकसान होगा? बातचीत के क्रम में मैं यह जानना चाहता था कि क्या उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार पूर्वांचल में अपने पिछले प्रदर्शन को दोहरा पाएगी?

जहां तक मै समझ पाया, पूर्वी उत्तर प्रदेश में आम मतदाता के लिए दिल्ली में किसानों का यह आन्दोलन कोई खास मायने नहीं रखता. जातियों में बंटे हुए इस समाज में जहां बहुत छोटी जोत वाले किसान बहुतायत हों, जहां फसल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा किसान व्यक्तिगत उपयोग के लिए रख लेते हों- वहां इस आन्दोलन की मांगों पर कौन उद्वेलित होता है? कुल मिलाकर इस आन्दोलन से भाजपा को पूर्वांचल में कोई कोई खास नुकसान नहीं होगा.  

बात यहीं तक सीमित नहीं है. पूर्वांचल में अतिपिछड़ी और अति दलित जातियों में लोगों के पास कोई खास कृषि योग्य भूमि नहीं है. इसलिए पूर्वांचल की इन बहुसंख्य जातियों के बीच किसान आन्दोलन का यह सवाल ‘जमींदारों का सरकार से संघर्ष’ बनकर बहुत छोटे स्तर पर कैद हो गया है. इस आन्दोलन के बारे में आम धारणा यह है कि जिनके पास जमीन ही नहीं है उनके लिए इस आन्दोलन की ज्यादातर मांगों का क्या मतलब है? बाकी आगे बात करने की किसी सम्भावना को गोदी मीडिया ने ‘वे किसान नहीं बिचौलिये हैं’ पर ख़त्म कर दिया है. इसलिए अब इस सवाल को यहीं ख़त्म कर देना चाहिए.

यह एक सच्चाई है कि पूर्वांचल का समाज बड़े स्तर पर जाति की चेतना के आधार पर संगठित है. जाति के आधार पर संगठित यह समाज अपनी राजनैतिक चेतना जाति के नेता को आगे करने और उसके साथ खड़े होने तक सीमित रखता है. ये जातियां इसी में अपना लाभ देखती है. इस व्यवस्था में जाति का नेता जिस दल के साथ जाता है उसके साथ जातियां अपने आप उस दल में शिफ्ट जाती हैं. जाति के आधार पर संगठित समाज में ‘जाति’ ही केन्द्रीय तत्व और विचार है. सत्ताधारी दल इन नेताओं का पहिला आकर्षण होते हैं और इस तरह ये नेता जातियों को सत्ता के साथ जोड़ देते हैं.

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि पूर्वांचल में योगी आदित्यनाथ ने चमारों और यादवों को छोड़कर हिन्दुओं की अतिपिछड़ी और अतिदलित जातियों के बीच अभियान चलाकर न केवल नेता पैदा किया, बल्कि जहां तक हो सका इन जातियों के पहिले से स्थापित नेताओं को भी पूरी तरह से अपने पाले में कर लेने का प्रयास किया. इस तरह से देखा जाय तो उत्तर प्रदेश में भाजपा ने अतिदलितों और अतिपिछड़ों के बीच अपने जनाधार को बहुत मजबूत किया है. जातियों के यह नेता अपनी जातियों में जहां हिंदुत्व के फायदे गिना रहे हैं, वहीँ इसके खिलाफ इन जातियों के बीच से कोई मजबूत प्रतिरोध सत्ताई आकर्षण के चलते दिखाई नहीं दे रहा है. जो दिखते भी हैं वह हिंदुत्व को नकारने की जगह उसे संशोधित करने और उसमे जगह पाने की बातें करते हैं.

अपनी बातचीत में मैंने पाया है कि संघ ने पिछले चार साल में अपने हिंदुत्व के एजेंडे को इन जातियों के बीच न केवल स्थापित किया है बल्कि उनकी समूची वैचारिक प्रक्रिया पर ही कब्ज़ा कर लिया है. ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि इन जातियों के बीच हिंदुत्व विरोधी कोई आन्दोलन पिछले तीस साल में कभी दिखाई नहीं दिया है.

लोगों से बातचीत में मैंने यह अनुभव किया कि उत्तर प्रदेश की जनता में सत्ता के खिलाफ एक रुझान है, लेकिन यह योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली को लेकर ज्यादा है, सरकार के क्रियाकलापों के खिलाफ नहीं. तबाह हो चुकी अर्थव्यवस्था, महंगाई के स्तर पर सरकार की असफलताओं के सन्दर्भ में लोग यह मानते हैं कि कोरोना महामारी के कारण ही ज्यादातर दिक्कतें आई हैं और समय के साथ इन्हें सरकार दूर कर लेगी. मंदिर निर्माण और उससे सम्बंधित सवालों के खिलाफ भी लोग बड़े स्तर पर असहमत नहीं हैं. ज्यादातर अतिपिछड़े और अतिदलितों को मंदिर निर्माण अभियान से कोई बड़ी समस्या नहीं है. वह इसे स्वाभाविक परिघटना के बतौर देखते हैं.

अब सवाल उठता है कि पूर्वांचल में विपक्ष के पास योगी आदित्यनाथ और उनके हिंदुत्व के खिलाफ क्या एजेंडा है? क्या पूर्वांचल में भाजपा विरोधियों को मतदाता जगह देंगे? क्या भाजपा को पूर्वी उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और कांग्रेस कोई खास चुनौती दे पाएंगे?

उत्त्तर प्रदेश में कांग्रेस पिछले तीस साल से ज्यादा समय से सत्ता से बाहर है. प्रियंका गाँधी द्वारा उत्तर प्रदेश की कमान सँभालने के बाद, संगठन निर्माण की दिशा में भले ही ठोस प्रगति हुई है और पार्टी अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू अपनी नई टीम के साथ सरकार को सड़क से सदन तक घेर रहे हैं, लेकिन इस बात की सम्भावना कम है कि जातियों में बंटे इस समाज में, जहां हिंदुत्व ने अपने प्रसार के लिए जातियों में न केवल घुसपैठ की है, बल्कि अपने एजेंडे के मुताबिक मुताबिक उन्हें ढाला भी है- कांग्रेस तत्काल कोई बड़ा चमत्कार कर पाए. अगर कांग्रेस अपने पूर्वप्राप्त मत में कोई बढ़ोत्तरी कर सकी तो यही खुद में एक चमत्कार होगा.

मेरी बातचीत में लोगों ने यह स्वीकार किया कि कांग्रेस योगी सरकार के खिलाफ सड़क पर उतर रही है, जनता के सवालों पर लड़ रही है, लेकिन इसके पास किन जातियों का ठोस वोट है, यह अभी तय नहीं है. सवाल उठता है कि बाकी जातियां किसे देखकर कांग्रेस के साथ आवें? इस विषय पर वर्तमान राजनैतिक परिस्थिति में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता है.

बसपा कभी पूर्वांचल में ज्यादा मजबूत नहीं थी. आगामी विधानसभा चुनाव में दलित मायावती को योगी सरकार के खिलाफ कोई विकल्प स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि अब वे यह मान चुके हैं कि विश्वसनीयता के संकट ने उनके सत्ता में आने की किसी उम्मीद को ख़त्म कर दिया है. फिर अतिदलित भाजपा छोड़कर उन्हें क्यों वोट करें? मायावती के साथ जाने पर उन्हें क्या मिलेगा? वैसे भी, मायावती की सियासी दिशा को लेकर कोई स्पष्टता नहीं दिखती. कुछ लोग यह मानते हैं कि बसपा आज जिस भूमिका में आ गई है वह अब खुद ही सियासी पारी खेलने की इच्छुक नहीं है. फिर वहां जाने से क्या लाभ होगा?

लेकिन, वर्तमान में विपक्ष के बतौर सबसे ज्यादा सीटें रखने वाली समाजवादी पार्टी के लिए भी पूर्वांचल में सियासी राहें आसान नहीं हैं. इस बात में संदेह है कि सपा 2022 में भाजपा को कोई मजबूत चुनौती दे पाएगी. इसकी कई ठोस वजहें हैं.

सबसे पहला तो यही है कि भाजपा ने जिन अतिपिछड़ी जातियों को अपने पाले में किया है वह भाजपा को क्यों छोड़ें और सपा के साथ क्यों आवें? उन्हें सपा में आने से वह क्या मिलेगा जो भाजपा उन्हें नहीं दे सकी है? क्या इससे सम्बंधित कोई रोडमैप सपा के पास है? शायद नहीं है. इस समय अखिलेश यादव का सारा ध्यान अपने प्रमुख जातिगत आधार को खुद से जोड़े रखने पर है और इसकी सारी कोशिशें हिंदुत्व के दायरे में ही हो रही हैं क्योंकि सपा को हिंदुत्व से कभी कोई परहेज नहीं रहा है और उसके जातीय आधार का एक बड़ा हिस्सा हिंदुत्व समर्थक हो चुका है.

इस बार, पूर्वांचल का मुसलमान अखिलेश यादव से नागरिकता संशोधन बिल पर उनकी चुप्पी के खिलाफ नाराज है. वह क्या करेगा इसे लेकर भी बहुत कयास लग रहे हैं. उत्तर प्रदेश में ओवैसी की एंट्री भी पूर्वांचल में सपा को कुछ चुनौती दे सकती है. मुसलमानों के बीच कांग्रेस भी बहुत मेहनत कर रही है. ऐसे में सपा योगी आदित्यनाथ को नहीं हरा सकती क्योंकि वह अपने अस्तित्व संकट से ही दो चार हो रही है.

कुल मिलाकर पूर्वांचल में योगी को किसी खास नुकसान की संभावना हाल फिलहाल नहीं दिख रही है. नुकसान की कोई ठोस संभावना तब थी जब भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों के पास हिंदुत्व को नकारने की इच्छाशक्ति होती. कांग्रेस हिंदुत्व को नकार रही है लेकिन सांगठनिक स्तर पर आम जनता के बीच इसे कितना बाँट पाएगी, यह आकलन वक्त के साथ ही सामने आएगा. कुल मिलाकर पूर्वांचल में भाजपा को कोई मजबूत चुनौती नहीं मिल रही है.


लेखक बिहार स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं


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