भावनाएं और संवेदनाएं ऐसी अमूर्त चीज़ें हैं जिनका बहुत छोटा सा अंश ही इंसान शब्दों में, भाषा में, हावभाव में समेट पाता है, बाकी का अधिकतर हिस्सा उस इंसान के अंदर ही रहता है जिसे वह महसूस करता है, जानता है, समझता है और जीता है; लेकिन हूबहू उसे किसी से कह पाना किसी को बता पाना उसे शब्दों-भाषाओं में बांध पाना मुमकिन नहीं होता है।
हर इंसान दिन भर में सैकड़ों-हज़ारों संवेदनाओं और भावनाओं से होकर गुज़रता है। कई ख़ुशी वाली होती हैं, कई दुःख देने वाली और कई सुख-दुःख और सभी परिभाषाओं से परे होती हैं जिन्हें हम खुद ही कम समझ पाते हैं। कई दफा हमें यूँ ही घंटों खाली बैठे रहना अच्छा लगता है भले ही उसका कोई मतलब न हो। हो सकता है कुछ लोग उसे वक्त बर्बाद करना कहें और शायद आपको भी न समझ आए कि आप इतनी देर बिना कुछ किए हुए क्यों बैठे रह गए थे, लेकिन इस बैठने का मतलब अपने आप में बैठे रहना ही है। किसी बात के लिए, किसी काम के लिए नहीं बल्कि सिर्फ बैठने के लिए बैठना।
जैसे सुबह सूरज को निकलते देखना, शाम को ढलते देखना, आधी रात के बाद अकेले में चाँद देखते रहना या बालकनी में बैठे फूलों को निहारना जैसे आज ही वो खिले हों जबकि वो महीनों और सालों से वहीं हैं लेकिन आज उन्हें देखने का मन किया और ‘बेवजह’ (हालाँकि इन्हें देखना ही अपने आप में एक वजह है) देखते जाना।
इस तरह से तमाम ऐसी बातें, चीज़ें दिनभर में होती हैं जिस दौरान तमाम संवेदनाएं मन में आती हैं लेकिन न आप किसी से कहते हैं न लिखते-बोलते हैं और न ही इसकी ज़रूरत महसूस होती है हमें। उस संवेदना या भावना को बस महसूस करने में ही अच्छा लगता है, ख़ुशी होती है और यही उस भावना या संवेदना की सफलता भी है।
वर्तमान में भावनाओं और संवेदनाओं को मन में रहने और पकने का इतना वक्त नहीं मिल पाता। आजकल वास्तविक दुनिया के समांनातर एक आभासी दुनिया भी चल रही है और कई-कई बार आभासी दुनिया वास्तविक दुनिया पर हावी होने लगती है। यह दुनिया हमारी वास्तविक दुनिया पर इतना प्रभाव डालने लगती है कि हम इसे कई बार सही मानने लगते हैं। इसके पैमानों से खुद को तौलते हैं और सही-गलत और गुणवत्ता का निर्णय लेने लगते हैं।
वर्तमान में इंसान एक अदृश्य दबाव में है कि वो हर ख़ुशी और दुःख दूसरों के साथ साझा करना चाहता है उसे बताना चाहता है। कभी-कभी सहानुभूति पाने की उम्मीद में, कभी-कभी जताने के लिए और कभी-कभी सिर्फ इसलिए ही कि बाकी लोग भी ऐसा कर रहे हैं। भले ही इसका कोई मतलब न हो क्योंकि जिस आभासी संसार में हम ये चीज़ें दिखाते-बताते हैं वहां बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो वाकई में आपको जानते हैं और उससे भी कम हैं जो आपके दुःख-सुख को वाकई समझते होंगे। उनकी संख्या तो बिलकुल कम होती है जो आपके आसपास हों ऐसे समय में जिनसे आप आमने-सामने बैठकर अपनी भावना साझा कर सकें।
ऐसे में ये होता है कि लोगों की कम या अधिक प्रतिक्रिया को हम पैमाना मानकर अपनी बात के महत्त्व निर्धारित कर लेते हैं। कम लोगों ने हमारी बात पर प्रतिक्रिया दी तो हम दुखी हो जाते हैं कि लोग मेरी बात को महत्त्व नहीं दे रहे हैं और अगर प्रतिक्रिया ज़्यादा मिल गई तो हमें लगता है कि लोग मुझे बहुत मानते हैं या फ़िक्र करते हैं। लेकिन वाकई में ये दोनों तरह की प्रतिक्रिया वास्तविक नहीं है और इनके आधार पर कोई निर्णय करना स्थायी नहीं है। और धीरे-धीरे हम इसी आधार पर अपनी सारी बातें तय करने लगते है
कई बार होता है कि हम इंटरनेट पर तमाम चीज़ें देखते, सुनते, पढ़ते हैं लेकिन उसके बारे में वहां कुछ लिखते नहीं या कोई प्रतिक्रिया नहीं देते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि उस चीज़ का महत्व कम हो गया। नहीं, उसका महत्त्व जो है वो रहेगा किसी की प्रतिक्रिया देने या न देने से कम या ज़्यादा नहीं होगा।
आभासी दुनिया की प्रतिक्रिया के आधार पर गुणवत्ता या महत्त्व निर्धारित करने से अच्छी चीज़ों का महत्त्व कम हो जाता है और कभी-कभी कुछ फर्ज़ी चीज़ें भी सच का रूप ले लेती हैं लेकिन इसमें सबसे अधिक नुकसान हमारी संवेदना का होता है।
किसी के मरने का दुःख सिर्फ दुःख या रोने वाले इमोजी पोस्ट करने या RIP लिखने के बराबर नहीं है। इससे कहीं ज़्यादा है ये दुःख जो आप सिर्फ महसूस कर सकते हैं। बता नहीं सकते लेकिन वहां हम ये रिएक्शन देकर अपनी ज़िमेदारी से जैसे छुटकारा पा लेते हैं कि हम भी दुखी हुए हैं फलां घटना पर; अर्थात मुझे भी इस घटना से दुःख हुआ है और मैंने भी इस आभासी संसार में अपनी मानवीयता प्रदर्शित कर दी है।
असल में उन सभी प्रतिक्रियाओं का न ही उस शख्स के जीवन पर कोई फर्क पड़ेगा और न ही इंसान के तौर पर आपको आधा एक कदम वह आगे ले जाएगा। आपको आगे ले जाएगा उस दुःख को सोचने-समझने, उसे महसूस करने और उसका कारण जानने का उपक्रम। जब आप उस आवेग को समझेंगे कि किसी का जाना का क्या होता है, तब असल मायने में इंसान के रूप में हम आगे जाएंगे। ये एक-एक प्रतिक्रिया धीरे-धीरे संवेदना का संसार सीमित करती जाती है और मरने लगती है। और फिर आप जब पीछे मुड़कर देखेंगे कि जिन घटनाओं पर कुछ साल पहले आप शांत हो जाया करते थे, दुखी होते थे अंदर से और सुन्न हो जाया करते थे; उन घटनाओं से आजकल आपको कुछ फर्क नहीं पड़ता और उनको दरकिनार करना या आह भरकर रह जाना आपकी आदत में आ चुका है।
संवेदनाएं खर्च होती हैं, उन्हें ज़िंदा रखना पड़ता है। आज के आधुनिक समाज में निर्माण कम दुर्घटना अधिक होती दिखती है; ऐसे में बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें संवेदनात्मक और भावनात्मक साथ की ज़रूरत पड़ती है लेकिन उसे बाँटने के लिए लोग कम हैं। भागदौड़ में संवेदनाएं हर बार पीछे छूट जाती हैं क्योंकि संवेदना को फलने-फूलने में वक्त लगता है। खुद को खर्च करना पड़ता है दुनिया समाज में, जुड़ना पड़ता है अपने आसपास के लोगों और अंजान लोगों से भी। संवेदना की सीमा नहीं होती। वह निर्धारित नहीं है कि किसी खास के लिए ही जगेगी। अगर वो हमारे भीतर है तो हर उस बात पर जगेगी जिससे दुनिया का कोई इंसान प्रभावित होता है।
हम सैकड़ों कोस दूर बैठे-बैठे किसी अनजान के दुःख में रो लेते हैं, चुप हो लेते हैं और दुखी हो जाते हैं। क्यों? संवेदना की वजह से, ये जो साथ है ये संवेदना का साथ ही इंसानी साथ है जो एक बनाता है। हम यहाँ बैठे-बैठे शायद वास्तविकता में कोई मदद न कर पाएं लेकिन उसके लिए सोच रहे हैं, दुखी हैं, ये इंसानी मनोभावों के ऊंचाई पर पहुँचने और उसके बने रहने का इशारा है। लेकिन जब इसे सीमा में बांध दिया जाता है तो इसकी पहुँच भी कमज़ोर पड़ जाती है।
इसलिए शायद हर संवेदना को ज़ाहिर करना या बताना ज़रूरी नहीं है, ज़रूरी है उसे महसूस करना, उसे ज़िंदा रखना और संवेदित होते रहना।
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