ऑक्सफैम इंटरनेशनल की हालिया रिपोर्ट बताती है कि कोरोना के बाद दुनिया में गैर-बराबरी बढ़ गई है। अमीरों को कोरोना की वजह से जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई उन्होंने कर ली है जबकि गरीबों को कोरोना से हुए नुकसान से उबरने में वर्षों लग जाएंगे।
दुनिया में कुल अमीरी बढ़ती जा रही है, पर गरीब और गरीब हो रहा है। जीडीपी बढ़ता जाता है, मगर मानव सूचकांक के मामले में दुनिया पिछड़ती जाती है। जीडीपी का बादल दीवाना नहीं सयाना है, कुछ खास छतों पर ही बरसता है और बाकी को प्यासा छोड़ देता है। क्या यह उस पूंजीवाद के विचार की असफलता है, जो मानता है कि अमीरी बढ़ाने से गरीबी घटती है?
पूंजीवाद का ट्रिकल डाउन मॉडल मानता है कि ऊपर पैसा बढ़ेगा तो वह रिस कर नीचे आएगा। इसे एक समय हॉर्स स्पैरो मॉडल भी कहा जाता था। यदि आप घोड़ों को बहुत सा दाना देंगे, तो थोड़ा बहुत दाना चिड़ियों के लिए भी गिरेगा। मगर ऐसा नहीं हो रहा है। घोड़े मोटे होते जा रहे हैं, चिड़िया दुबली की दुबली है!
इसलिए गरीब आखिर क्यों गरीब है, इस पर नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।
गरीबी की वजह समझने के लिए हमारे पास धर्म से आया एक विचार था, जो कहता था कि गरीबी पिछले जन्म के पापकर्मों का फल है। फिर मार्क्स और दूसरे विद्वानों ने हमें बताया कि गरीबी का संबंध पिछले जन्म के पाप से नहीं, बल्कि इस जन्म के दूसरे अमीरों से है जो शोषण करने के लिए गरीब को गरीब बनाए रखना चाहते हैं।
ये दोनों विचार एक दूसरे से ठीक उल्टे हैं, मगर इन में एक समानता है। दोनों ही खुद गरीब को उसकी गरीबी के लिए जवाबदार नहीं मानते। ज़्यादातर विचारकों ने गरीबों को क्लीन चिट दी है, इसलिए अक्सर गरीबी को चरित्र का प्रमाण पत्र भी मान लिया जाता है।
नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी ने गरीबी की वजह ढूंढने के लिए कुछ प्रयोग किये। उन्होंने देखा कि गरीबी एक दुष्चक्र है। पैसे की कमी की वजह से गरीब पोषणयुक्त आहार नहीं ले पाते जिसकी वजह से उनका शारीरिक दमखम उतना नहीं होता कि वह अधिक पैसा कमा सकें। फिर इसी वजह से उन्हें कम पैसा मिलता है और गरीबी का चक्र चलता जाता है!
यही बात खेती में भी लागू होती है। खाद खरीदने के लिए पैसा चाहिए। जब पैसा नहीं होता तो खाद के बगैर फसल नहीं होती। जब फसल नहीं होती तो फिर खाद खरीदने के लिए पैसे नहीं होते और फिर गरीबी का चक्र चलता जाता है। इसे उन्होंने पावर्टी ट्रैप का नाम दिया। इस चक्र को तोड़ने के लिए उन्होंने एक प्रयोग किया।
उन्होंने गरीबों को कुछ अतिरिक्त पैसा दिया ताकि वे अपने लिए प्रोटीनयुक्त आहार खरीद सकें और उनकी कुपोषण की समस्या दूर हो सके। मगर नतीजे वैसे नहीं थी जैसे उन्होंने सोचे। ज्यादातर गरीबों ने पोषणयुक्त आहार खरीदने के बजाय उस रकम का इस्तेमाल चाट पकौड़ी या स्वाद में किया। ऐसे ही जब खाद या किसी दूसरे व्यापार के लिए उन्हें रकम दी गई तो उस पैसे का इस्तेमाल गरीबों ने टीवी या मोबाइल खरीदने में किया।
अभिजीत बनर्जी ने पाया कि लंबे समय तक गरीबी में रहने की वजह से वे मान लेते हैं कि उनका जीवन ऐसा ही चलेगा और वह बस अभी और इसी वक्त अपने जीवन को मनोरंजक व मजेदार बना लेना चाहते हैं। पता नहीं उन्हें जीवन में दूसरा मौका मिले या ना मिले। इस तरह पॉवर्टी ट्रैप से निकलने के कई अवसर गंवा दिए जाते हैं। अभिजीत बनर्जी के निष्कर्षों को हम गरीबी को समझने के लिए पूर्व जन्म के पाप, अमीरों द्वारा शोषण के बाद तीसरे विचार के रूप में ले सकते हैं।
ये निष्कर्ष महत्वपूर्ण इसलिए हैं क्योंकि गरीबी को हटाने के हमारे सारे प्रयास अब तक राजनीतिक और आर्थिक नीतियों के ही रहे हैं। हमने समझ और संस्कार को ज्यादा महत्व नहीं दिया। अभिजीत बनर्जी की मानें तो हमें गरीबी हटाने के लिए गरीबों को सेल्फ कंट्रोल सिखाने की जरूरत है। तुरंत मजे के टेम्पटेशन पर किस तरह काबू पाएं, यह सिखाने की जरूरत है। तुरत फुरत फायदे के बजाय, दूरगामी फायदे को प्राथमिकता देने के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। अगर हम बनर्जी महोदय की बातें मान लेते हैं, तो हमें मानना होगा कि गरीबों का स्वभाव ही गरीबी के लिए जिम्मेदार है। तो क्या गरीबी एक चारित्रिक दुर्गुण है? यह एक नया विचार है जिस पर सब लोग सहमत नहीं हो सकते!
प्रेमचंद की एक कहानी है- कफन! इसके दो पात्र घीसू और माधव निकम्मे और आलसी हैं। जब लड़के की पत्नी मर जाती है तो गांव वाले बाप-बेटे को कफन दफन के लिए पैसा देते हैं जिसे यह दोनों शराब और खाने में उड़ा देते हैं। प्रेमचंद ने गरीबी की हकीकत बयान की थी मगर कुछ लोग मानते हैं कि घीसू और माधव के व्यवहार के लिए व्यवस्था को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। व्यवस्था के लगातार शोषण की वजह से इंसान का व्यवहार गैर-ज़िम्मेदाराना हुआ। वह व्यवस्था जिसने सारी दुनिया को शोषक और शोषित वर्ग में बांट रखा है। भारत मे इस बंटवारे में जाति व्यवस्था भी शामिल हो जाती है, जो कोढ़ में खाज का काम करती है। इसलिए घीसू और माधव को दोषमुक्त किया जाना चाहिए!
संभव है इस बात में कुछ दम हो, मगर कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपना अपराधबोध कम करने के लिए गरीबी को महिमामंडित करते हैं? शायद हमें गरीबों के व्यवहार को ऑब्जेक्टिवली समझने की जरूरत है। हमें गरीबी हटाने में गरीबों की सहभागिता पर बात करने की भी जरूरत है। गरीबी को हटाने के हमारे राजनीतिक और आर्थिक उपाय यदि काम नहीं कर रहे हैं तो इस बहस में अब मनोविज्ञान और सांस्कृतिक पहलुओं को भी जोड़े जाने की आवश्यकता है।
क्या गरीबी हटाओ अभियान में अब नेताओं, अर्थशास्त्रियों के अलावा मनोवैज्ञानिकों और सामाजिक सांस्कृतिक व्यवहार विशेषज्ञों को भी शामिल किया चाहिए?
लेखक इंदौर स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं