पिछले एक दशक में राजनेताओं और सरकारों की आलोचना पर 405 भारतीयों के खिलाफ राजद्रोह के केस दायर किए गए जिनमें से 96% मामले 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद दर्ज किए गए।
वेबसाइट आर्टिकल 14 ने 1 जनवरी 2010 से 31 दिसंबर 2020 के बीच दायर राजद्रोह के मामलों को ट्रैककर ये डेटा जारी किया है। बड़ी बात यह है कि एक तरफ सुप्रीम कोर्ट लगातार कह रहा कि आलोचना को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता वही दूसरी ओर राजद्रोह के मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
वेबसाइट के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ “आलोचनात्मक” या “अपमानजनक” टिप्पणी करने के आरोप में 149 व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ 144 लोगों पर राजद्रोह के मामले दर्ज किये गए हैं।
इस नए डेटाबेस से यह सामने आया है कि राजद्रोह के 6 मामले किसान आंदोलन के दौरान दायर किये गए, इसके अलावा 22 मामले हाथरस बलात्कार के बाद, तो वही 25 नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों के दौरान दायर किये गए। यही नहीं, 27 राजद्रोह के मामले पुलवामा हमले के बाद भी दायर हुए।
भाजपा शासित राज्यों में सीएए विरोधी प्रदर्शनों से जुड़े देशद्रोह के 22 मामले दर्ज किए गए। पुलवामा हमले के मामले में जिन राज्यों में भगवा पार्टी सत्ता में थी, वहां राजद्रोह के 27 में से 26 मामले भी दर्ज किए गए।
पिछले दस वर्षों में दायर सभी राजद्रोह के मामलों में 65 फ़ीसदी मामले बिहार, कर्नाटक, झारखंड, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में दर्ज किये गए। भाजपा के कार्यकाल में चार राज्यों- बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और झारखंड में अधिकांश मामले दायर किए गए थे।
डेटाबेस से यह भी पता चलता है कि पिछले दशक में 10,938 आरोपियों में से 65% पर 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद राजद्रोह का आरोप लगाया गया।
आर्टिकल 14 के डेटाबेस से यह जानकारी सामने आती है कि पोस्टर व नारे लगाना, सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखना यहां तक की व्यक्तिगत बातचीत भी तत्कालीन सरकार द्वारा देशद्रोही माने जाने वाले भावों में शामिल था।
राजद्रोह के लगभग 30% मामलों में, गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान की (रोकथाम) अधिनियम, राष्ट्रीय सम्मान अधिनियम के अपमान की (रोकथाम) और अन्य कानूनों को FIR में जोड़ा गया था ।
2014 से 2020 में मोदी के कार्यकाल के दौरान UPA गठबंधन के दुसरे कार्यकाल की तुलना में राजद्रोह के मामलों में 28 फ़ीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गयी। इसका कारण नागरिकता कानून और हाथरस सामूहिक दुष्कर्म के विरोध के बाद मामलों में भारी वृद्धि को माना गया।
डेटाबेस में पाया गया की मौजूदा सरकार के छह सालों के दौरान कुल 519 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए, जबकि पिछली UPA-2 सरकार के कार्यकाल में 2010 से मई 2014 के बीच राजद्रोह के 279 मामले आमने आये। 279 में से 39 फ़ीसदी मामले तमिलनाडु के कुडनकुलम में लगाए जाने वाले न्यूक्लियर प्लांट के खिलाफ हुए प्रदर्शनों के दौरान व पूरे भारत में वामपंथी उग्रवाद के संबंध में दर्ज किए गए। 18 मामले ऐसे भी थे जिनमें अपर्याप्त जानकारी होने के कारण डेटाबेस कार्यकाल निर्धारित नहीं कर सका।
राजद्रोह का क़ानून सरकारों के लिए आलोचनाओं व आलोचकों से निपटने का एक लोकप्रिय ज़रिया रहा है, चाहे सत्ता में NDA हो या UPA, ऐसा प्रतीत होता है कि आलोचना व जवाबदेही किसी भी सरकार को रास नहीं आती है। कन्हैया कुमार, असीम त्रिवेदी, अरुंधति रॉय, यह कुछ ऐसे उदाहरण है जिन पर यूपीए सरकार के दौरान राजद्रोह का आरोप लगाया गया।
हाल की बात की जाए तो 26 जनवरी को दिल्ली में भड़की हिंसा के बाद कांग्रेस सांसद शशि थरूर, इंडिया टुडे के पत्रकार राजदीप सरदेसाई व नेशनल हेराल्ड की सीनियर कंसल्टिंग एडिटर मृणाल पांडे पर राजद्रोह के आरोप लगाए गए है।
इसके अलावा नेशनल हेराल्ड के संपादक ज़फर आगा, कारवां मैगज़ीन के संस्थापक एवं संपादक परेश नाथ, कारवां के ही संपादक अनंत नाथ व मैगज़ीन के एग्जीक्यूटिव एडिटर विनोद के. जोस पर भी “असत्यापित” समाचार साझा करने के लिए देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया है।
जोश-होश से साभार प्रकाशित