जम्मू कश्मीर में हिंसा जारी है। बावजूद इस आंशिक सत्य के कि मारे गए लोगों में अधिकतर स्थानीय मुसलमान हैं मीडिया में इस बात की चर्चा जोरों पर है कि आतंकी टारगेटेड किलिंग की रणनीति का उपयोग करते हुए अल्पसंख्यक समुदाय और बाहर से आने वालों को निशाना बना रहे हैं और नब्बे के दशक की स्थितियां दुहरायी जा सकती हैं- घाटी में निवास करने वाले बचे-खुचे कश्मीरी पंडितों को भी पलायन के लिए विवश होना पड़ेगा।
5 अगस्त 2019 को पहले से कमजोर हो चुके अनुच्छेद 370 के कतिपय प्रावधानों को अप्रभावी बनाकर हमारी केंद्र सरकार ने गर्वोक्ति की थी कि आजादी के इतने वर्षों के बाद पहली बार कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया है और अब वह विकास की मुख्य धारा से जुड़ चुका है। अब कश्मीरी पंडित अपने घरों को लौट सकेंगे। हो सकता है कि अनुच्छेद 370 वाले प्रकरण से सरकारी राष्ट्रवाद के समर्थकों में यह संदेश गया हो कि उनकी सरकार ने पाकिस्तानपरस्त कश्मीरी नेताओं और उनके समर्थकों को करारा झटका दिया है, लेकिन इन दो वर्षों में आम कश्मीरी के जीवन में कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं आया है। शायद विश्व की सबसे लंबी इंटरनेट बंदी की सौगात ही उन्हें मिली। हिंसा कुछ समय के लिए रुकी रही क्योंकि सुरक्षा बलों की व्यापक उपस्थिति थी और आम जनजीवन बाधित था, प्रदर्शन आदि पर भी पाबंदी थी।
अनुच्छेद 35ए की समाप्ति के बाद उस निजीकरण की आहट अवश्य सुनायी दे रही है जो स्थानीय निवासियों का सुख-चैन छीनकर ऐसी भौतिक समृद्धि लाता है जिसका उपभोग कॉरपोरेट मालिक और उनके आश्रित करते हैं। जनसंख्या की प्रकृति में बदलाव का डर यदि कश्मीरियों में न भी होता तब भी भाजपा नेताओं की आक्रामक बयानबाजी और जहरीली पोस्ट के कारण इसे उत्पन्न होना ही था। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि अनुच्छेद 370 के कुछ फायदे थे तो वे हर कश्मीरी के लिए थे, जिसमें कश्मीरी पंडित भी शामिल थे।
अनुच्छेद 370 के ‘हटाने’ और उसके बाद सरकार के सख्त नियंत्रण ने कश्मीरियों के इस संदेह को पुख्ता अवश्य किया होगा कि सब कुछ ठीक नहीं है, सरकार उन पर अविश्वास कर रही है और संभावित अपराध के भावी संदिग्धों के रूप में उन्हें चिह्नित किया जा रहा है।
कश्मीरी पंडितों और उनके साथ हुई त्रासदी को पिछले कुछ वर्षों में विज्ञापन की वस्तु भांति इस्तेमाल किया जाता रहा है। कभी उन्हें सरकारी राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थकों और लाभान्वितों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तब स्वाभाविक रूप से वे पुराने सहिष्णु-समावेशी राष्ट्रवाद की “कमजोरियों” और “भेदभाव” के भुक्तभोगी के रूप में चित्रित किए जाते हैं। कभी उनका उपयोग यह भय उत्पन्न करने हेतु किया जाता है कि यदि मुस्लिम आबादी सारे देश में बहुसंख्यक हो गयी तो हिंदुओं का वही हाल होगा जो कश्मीरी पंडितों का हुआ है। कभी उन्हें पाकिस्तानपरस्त, भारत विरोधी कश्मीरी नेताओं के छल के शिकार हिंदुओं के रूप में दर्शाया जाता है और कभी उन्हें नफरत के उस नैरेटिव को मजबूती देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिसके अनुसार सवर्ण उच्चवर्गीय हिन्दू सर्वाधिक पीड़ित है- न उसे आरक्षण मिलता है, न नौकरियां और वजीफे, बस उसे हिंसा का शिकार बनाया जाता है और उसकी कुछ सुनवाई भी नहीं है। जब “जागो हिन्दू जागो वरना कश्मीरी पंडितों जैसा हाल हो जाएगा” जैसे हिंसा भड़काने वाले विषैले नारे हवा में तैरते हैं तो इनका लक्ष्य सवर्ण हिन्दू समुदाय को उत्तेजित करना होता है। जब यह प्रश्न पूछा जाता है कि “कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार पर कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें मौन क्यों”, तब इन कश्मीरी पंडितों का उपयोग यह सिद्ध करने के लिए हो रहा होता है कि हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ मुस्लिमों का अंध समर्थन करना और बहुसंख्यक हिंदुओं की अनदेखी करना है।
कश्मीरी पंडितों को यह समझना होगा कि सरकारी राष्ट्रवाद के समर्थक और साम्प्रदायिक शक्तियां उनकी पीड़ा की नुमाइश करके हिंसा और घृणा फैलाने का अपना मकसद पूरा कर रही हैं। यह ताकतें इन कश्मीरी पंडितों की समस्याओं के समाधान को लेकर गंभीर नहीं हैं। यह कश्मीरी पंडितों की सहायता से अधिक इस सहायता का विज्ञापन कर रही हैं।
देश का हर सभ्य और सजग नागरिक, हर धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल उस हिंसा और बर्बरता के विरुद्ध है जो कश्मीरी पंडितों के साथ पहले या आज हुई है। देश का हर सच्चा नागरिक इन पर हुई हिंसा को जघन्य, निंदनीय और दंडनीय मानता है और इससे उसी प्रकार आहत है जैसे वह लखीमपुर खीरी की घटना से व्यथित है। वह कश्मीरी पंडितों के हत्यारों की मानसिकता से उतना ही घबराया हुआ है जितना कि वह असम के दरांग जिले में पुलिस की गोलियों से मारे गए व्यक्ति के शव के साथ बर्बरता करने वाले शख्स की दिमागी हालत को लेकर डरा हुआ है। किसी सच्चे देशवासी की रूह कश्मीर के पत्थरबाजों के नारों को सुनकर उतना ही कांपती है जितना कि वह मॉब लिंचिंग कर रही दंगाई गोरक्षकों की भीड़ के नारों को सुनकर सिहरती है।
यदि हम अपनी सुविधानुसार हिंसा का महिमामंडन करते हैं, अपनी सहूलियत के अनुसार इस पर चुप्पी साध लेते हैं अथवा अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए इसकी निंदा करते हैं और इस समर्थन-विरोध एवं चुप्पी को चर्चा में बनाए रखते हैं तो हम चालाक नेता या धूर्त मीडियाकर्मी अवश्य बन सकते हैं किंतु बतौर देशवासी हम इस देश की बुनियाद “अहिंसा” को कमजोर करने का काम कर रहे होते हैं।
“बाबरी के बाद प्रगतिशील लोगों ने कश्मीर को मुस्लिम बहुसंख्यक का मुद्दा समझ कर गलती कर दी”!
कश्मीर एक साल बाद: फिल्मकार संजय काक से एक संवाद
कश्मीर के हालात का उपयोग जब तक चुनावी सफलता अर्जित करने हेतु किया जाता रहेगा तब तक इसे हल करने की सरकार की नीयत पर संशय बना रहेगा। उत्तर प्रदेश के चुनाव निकट हैं। कश्मीर में हिंसा बढ़ रही है। सीमापार के आतंकवादियों को दुश्मन देश में घुस कर मार गिराने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक की चर्चा जोरों पर है। ऐसा संयोग पिछले लोकसभा चुनावों के पहले पुलवामा हमले और उसके बाद हुई सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में भी बना था। तब भाजपा को इससे बहुत चुनावी फायदा मिला था। जब संयोग निरंतर बनने लगें तब उनके संयोग होने पर संशय होने लगता है। यह जानते हुए भी कि कश्मीर की समस्या का सैन्य समाधान संभव नहीं है, सरकार सर्जिकल स्ट्राइक का सहारा लेती है। फिर हमारी पराक्रमी और अनुशासित सेना के शौर्य को चुनावी राजनीति के बाजार में उतारा जाता है। शायद इससे चुनावों में सरकार को कुछ मदद मिलती होगी लेकिन अंततः होता यही है कि हमारे आंतरिक मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण हम खुद कर रहे होते हैं।
हमारा देश बहुभाषिक और बहुजातीय है। हमने भाषा के सवाल पर उत्तर और दक्षिण में मनोमालिन्य होते देखा है। आर्य और द्रविड़ विवाद जब तब सुगबुगाता रहता है। महाराष्ट्र में शिव सेना और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस प्रादेशिक अस्मिता की राजनीति करते रहे हैं। इनका यह प्रान्त प्रेम अक्सर उग्र रूप लेता रहा है और इतर प्रान्तवासियों पर हिंसा हुई है। ‘स्थानीय मूल निवासी बनाम बाहरी’ का मुद्दा उत्तर-पूर्व की राजनीति को प्रभावित करता रहा है। सिख अस्मिता के नाम पर कुछ दशक पहले हमने पंजाब को जलते देखा है। जल-जंगल-जमीन की अनियंत्रित कॉरपोरेट लूट ने आदिवासी असंतोष को हवा दी है जिसका लाभ नक्सलियों ने उठाया है। छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड,उड़ीसा और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य नक्सल हिंसा से पीड़ित रहे हैं।
यह सारे विवाद मीडिया में उतना ही स्थान पाते हैं जितना इन्हें मिलना चाहिए बल्कि यह कहना उचित होगा कि मीडिया अनेक बार इनकी उपेक्षा करता है। फिर क्या कारण है कि कश्मीर के लोगों के असंतोष को पड़ोसी मुल्क की साजिशों और राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न से जोड़ा जाता है और वर्ष भर इन पर टीवी डिबेट चलती रहती हैं? क्या इसका कारण वह अनुच्छेद 370 है जो अपने भ्रष्ट प्रशासन और बहुसंख्यक विरोधी नीतियों के कारण अलोकप्रिय राजा हरि सिंह के साथ हस्ताक्षरित इंस्ट्रूमेंट ऑफ ऐक्सेशन की कंडिका 5 और 7 की भावना को संवैधानिक दर्जा देने के लिए अस्तित्व में आया? इस समय तक शेख अब्दुल्ला एवं उनके सहयोगी संविधान सभा का हिस्सा बन चुके थे। कालांतर में अनुच्छेद 370 कश्मीरी अस्मिता एवं कश्मीरियों की स्वायत्तता का प्रतीक बन गया। सरकारें समय समय पर अनुच्छेद 370 में प्रदत्त अधिकारों में कटौती करती रहीं। 1954 के राष्ट्रपति के आदेश के द्वारा संघीय सूची में अंकित लगभग सभी 97 विषयों पर विधि निर्माण का भारतीय संसद का अधिकार जम्मू कश्मीर में लागू हो गया। भारतीय संविधान की 395 धाराओं में 260 जम्मू कश्मीर में पहले से लागू थीं। श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री और सदर-ए-रियासत के पदों को मुख्यमंत्री एवं गवर्नर में परिवर्तित कर दिया। सदर-ए-रियासत निर्वाचित होता था किंतु अब गवर्नर नामांकित होने लगा। केंद्र की सरकारें कानूनी और संवैधानिक रूप से कश्मीर को भारत से जोड़ने के लिए अवश्य प्रयत्नशील हुईं किंतु भावनात्मक रूप से कश्मीरियों का जुड़ाव शायद उस गति से न हो पाया।
जम्मू-कश्मीर का नया डोमिसाइल कानून: संघर्षों के जन-इतिहास पर सत्ता का नया मुलम्मा
कश्मीर की जनता को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में निर्णय लेने हेतु राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित करने के लिए कांग्रेस सर्वाधिक उपयुक्त पार्टी थी, किंतु कांग्रेस धीरे-धीरे कमजोर पड़ती चली गयी। नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के लिए कट्टर क्षेत्रीयतावाद का आश्रय लेना एक अनिवार्यता थी। स्थिति तब तक भी ठीक थी, किंतु जैसे-जैसे बीजेपी ने पॉलिटिकल डिस्कोर्स को बदलना शुरू किया और बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, हिन्दू-मुसलमान तथा पाकिस्तानपरस्त विरुद्ध देशभक्त जैसे विभाजनकारी मुद्दे उछाले वैसे-वैसे इन क्षेत्रीय पार्टियों के लिए कट्टरपंथ की राजनीति में गहरे पैठना जरूरी हो गया। यही कारण है कि हम महबूबा मुफ्ती को पाकिस्तान के विषय में नरम रुख अपनाते और महबूबा-फारुख दोनों नेताओं को तालिबान की प्रशंसा करते देखते हैं।
वर्तमान सरकार के नेता जिस वैचारिक पृष्ठभूमि से आते हैं और जिन संगठनों से प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं वहां कश्मीर समस्या को बलपूर्वक हल करने की ही बात की जाती है। यही हम देख रहे हैं। सरकार को यह समझना होगा कि पुलिस और अर्धसैनिक बलों की तैनाती, इंटरनेट बंदी, प्रदर्शनों पर रोक, सर्जिकल स्ट्राइक आदि अस्थायी रूप से हिंसा रोकने वाले उपाय हैं किंतु हिंसा का स्थायी इलाज तो जनविश्वास जीतने तथा चर्चा एवं विमर्श से ही संभव है। प्रतिबंधों और दमन से तो कदापि नहीं।
इस पूरे घटनाक्रम में सर्वाधिक चिंता का विषय यह है कि हमें संदेह, घृणा और हिंसा की भाषा में सोचने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है। कश्मीर में भारत विरोधी नारे लग रहे हैं और भारत में कश्मीर के खिलाफ नारेबाजी हो रही है। देश में कश्मीरियों को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है, इधर कश्मीरी अपने हमवतन लोगों की नीयत को लेकर आश्वस्त नहीं हैं।
पता नहीं भाषाई आधार पर प्रान्तों के पुनर्गठन का विचार कितना अनुचित था या उचित लेकिन आबादी की धार्मिक संरचना के आधार पर नये प्रदेश गढ़ने का प्रयोग आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। यह देश बहुसंख्यक वर्चस्व की भाषा में सोचने से नहीं चल सकता। बहुसंख्यक वर्चस्व की सोच जब हम में घर कर जाएगी तो भाषा, जाति और प्रांतीयता के आधार पर किसी स्थान पर अधिक संख्या में निवास करने वाले लोग भाषिक, जातीय और प्रांतीय दृष्टि से अल्पसंख्यकों पर हमलावर होने लगेंगे। जब अल्पसंख्यकों का जीवन खतरे में पड़ेगा तो वह भी हिंसक प्रतिकार करेंगे।
आज से वर्षों पहले महात्मा गांधी ने न केवल इन परिस्थितियों का अनुमान लगा लिया था बल्कि इनके समाधान की युक्ति भी बतायी थी। गांधी के अनुसार-
अगर स्थिति यह हो कि बड़े संप्रदाय को छोटे संप्रदाय से डर लगता हो तो वह इस बात का सूचक है कि या तो (1) बड़े संप्रदाय के जीवन में किसी गहरी बुराई ने घर कर लिया है और छोटे संप्रदाय में पशुबल का मद उत्पन्न हुआ है (यह पशुबल राजसत्ता की बदौलत हो या स्वतंत्र हो) अथवा (2) बड़े संप्रदाय के हाथों कोई ऐसा अन्याय होता आ रहा है जिसके कारण छोटे संप्रदाय में निराशा से उत्पन्न होने वाला मर-मिटने का भाव पैदा हो गया है। दोनों का उपाय एक ही है- बड़ा संप्रदाय सत्याग्रह के सिद्धांतों का अपने जीवन में आचरण करे। वह अपने अन्याय, सत्याग्रही बनकर चाहे जो कीमत चुका कर भी दूर करे और छोटे संप्रदाय के पशुबल को अपनी कायरता को निकाल बाहर करके सत्याग्रह के द्वारा जीते। छोटे संप्रदाय के पास यदि अधिक अधिकार, धन, विद्या, अनुभव आदि का बल हो और इस बड़े संप्रदाय को उससे डर लगता रहता हो तो छोटे संप्रदाय का धर्म है कि शुद्ध भाव से बड़े संप्रदाय का हित करने में अपनी शक्ति का उपयोग करे। सब प्रकार की शक्तियां तभी पोषण योग्य समझी जा सकती हैं जब उनका उपयोग दूसरे के कल्याण के लिए हो। दुरुपयोग होने से वे विनाश के योग्य बनती हैं और चार दिन आगे या पीछे उनका विनाश होकर ही रहेगा। यह सिद्धांत जिस प्रकार हिंदू, मुसलमान, सिख आदि छोटे-बड़े संप्रदायों पर घटित होते हैं उसी प्रकार अमीर-गरीब, जमींदार-किसान, मालिक-नौकर, ब्राह्मण-ब्राह्मणेतर इत्यादि छोटे-बड़े वर्गों के आपस में संबंधों पर भी घटित होते हैं।
किशोर लाल मशरूवाला, गांधी विचार दोहन, पृष्ठ 73-74
यह देखना दुर्भाग्यजनक है कि गांधी के देश में हिंसा हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन का मूल भाव बनती जा रही है।
लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। कवर तस्वीर विकार सय्यद के ट्विटर से साभार है।