विश्व-गुरु बनने के दावों के बीच उच्च शिक्षा संस्थानों का सैन्यकरण


“राष्ट्र” के जटिल “अमानवीय” आदेशों के पालन करने में थोड़ी चूक होती है तो हम सजा पाते हैं। अपने कार्यालयों में कुछ भूलें होती हैं और हम पर कठोर अनुशासनात्मक कार्रवाई होती है। समाज के भीतर भी हमसे गलतियां होती हैं और हम इसकी भी अनुदारता के शिकार होते हैं। धार्मिक और पवित्र माने जाने वाली दैविक जगहों पर भी किसी प्रकार के अपराध के लिए शायद ही माफ़ी की सम्भावना है। आखिर कोई तो ऐसी जगह होगी जहां हम भयमुक्त होकर गलतियां कर सकें और अपनी गलतियों से सीखते हुए समाज निर्माण में अपना योगदान दे सकें! बिना गलतियों के क्या कभी कुछ निर्मित हुआ है?

भारत के विश्वविद्यालय ऐसे ही केंद्र हुआ करते थे जहां आदमी अनंत निर्भयता को महसूस किया करता था और जहां प्रवेश करते समय आदमी को इस बात का भय नहीं होता कि थोड़ी सी भूल हुई नहीं कि आर्थिक या शारीरिक दंड दिया जाएगा। विश्वविद्यालय महज रोजगार पैदा करने के केंद्र नहीं थे, बल्कि ये वो जगहें थी जहां से समाज की सम्पूर्ण चेतना और अस्तित्व का निर्धारण होता था। यह एक ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्य रहा है कि अगर हम गलतियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं तो एक तरह से किसी भी प्रकार की रचनात्मकता और निर्माण का निषेध करते हैं और हम एक ऐसी दुनिया बनाते हैं जिसमें केवल घुटन और निराशाएं ही होंगी। दुर्भाग्य से हाल के वर्षों में यह निषेध और नियंत्रण की प्रवृत्ति तेजी से भारत के विश्वविद्यालयों में बढ़ी है। भारतीय विश्वविद्यालयों में आज की स्थिति ऐसी है कि शिक्षक हो या छात्र या इसका कोई कर्मी, सभी घुटन महसूस कर रहे हैं। सबके अन्दर भयंकर बेचैनी है। लगता है जैसे विचार और समाज निर्माण के अपने मूल उद्देश्य से भटककर विश्वविद्यालय वैश्विक पूंजी और सत्ता के दमनकारी प्रोजेक्ट को पूरा करने में लग गया है। आज के विश्वविद्यालयों में अक्सर ऐसी घटनाएं देखने सुनने को मिल जाती हैं जिससे इसके लगातार दमनकारी होते चरित्र का आभास होता है, साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता इसे पूरी तरह से अपने नियंत्रण में ले लेना चाहती है और दुर्भाग्य से इसमें उसने एक हद तक सफलता भी प्राप्त कर ली है।

वर्तमान समय में विश्वविद्यालय के चरित्र को कुछ सन्दर्भों में समझा जा सकता है। विश्वविद्यालयों में जिन मूल्यों का आरोपण किया गया है वे बाजार की जरूरतों के अनुरूप तैयार किये गए हैं और इस सन्दर्भ में इसमें फीडबैक कल्चर का भी समावेश किया गया है। ये फीडबैक कल्चर उच्च शिक्षा की बौद्धिक व्यापकता को समेटकर एक विशेष प्रकार के फ्रेम में बांधने की एक साजिश मात्र है। फीडबैक संस्कृति के जो मानक तैयार किये गए हैं उसे बारीकी से देखने पर ही इसके भीतर के बाजार के साम्राज्यवादी दर्शन को देखा जा सकता है। फीडबैक को कौन तय कर रहा है और कैसे तैयार किया जा रहा है और इसके लिए अंतिम निर्णय का सर्वोच्च स्रोत क्या है- ऐसे प्रश्नों पर विचार करने के बाद ही इसे समझा जा सकता है और फिर समझा जा सकता है कि यह फीडबैक सत्ता के द्वारा नियंत्रण का एक शालीन और “लोकतान्त्रिक” माध्यम है।

शिक्षा और खासकर उच्च शिक्षा को तेजी से निजी हाथों में सौंपा गया है या फिर उसे भिन्न-भिन्न तरीकों से विशेष संरक्षण दिया जा रहा है। अगर सीधा सा सवाल है कि निजीकृत संस्थाओं का अंतिम उद्देश्य क्या है तो इसका सीधा सा जवाब होगा- अधिकतम मुनाफा कमाना। ऐसे में मुनाफा से प्रेरित संस्थाएं एक सीमा के बाद वैचारिक और अकादमिक स्वतंत्रताओं को नियंत्रित कर देती है, जैसा कि अशोका यूनिवर्सिटी के भानु प्रताप मेहता वाले मामले में भी देखा गया था। मुनाफे के कारोबार के लिए सत्ता का सहयोग और संरक्षण जरूरी है, ऐसे में मौजूदा सत्ता की ख़राब से ख़राब नीतियों का तटस्थ मूल्यांकन भी “राष्ट्र-विरोधी” गतिविधियों में शामिल कर लिया जाता है और उसी अनुरूप कार्रवाई की जाती है। जो सरकारी संस्थान हैं वहां धीरे-धीरे बाजारू मूल्यों को पैदा किया जा रहा है और इस सिलसिले में स्व-वित्तपोषित पाठ्यक्रमों का निर्माण या फिर स्वायत्तता के नाम पर सरकारी सहायता से हाथ खींच लेने वाली अनगिनत नीतियां शामिल हैं।

अब यह तय करना कठिन हो गया है कि सरकारी संस्थाओं से प्रेरणा लेकर निजी विश्‍वविद्यालय कार्य कर रहे हैं या फिर सरकारी संस्थाएं ही निजीकरण की तरफ कदम बढ़ा चुकी हैं। कई मामलों में निजी संस्थाओं से अधिक सरकारी संस्थाएं ही अपनी संविधानिक नैतिकता को त्याग चुकी हैं। इसे हैदराबाद विश्विद्यालय के एक मामले से समझा जा सकता है। दो-तीन साल पहले जब मैं हैदराबाद में था तो वहां पीजी के एक छात्र को हॉस्टल से केवल इसलिए निकाला गया क्योंकि उसके रूम में उसकी एक महिला-मित्र उससे मिलने आयी हुई थी। विश्‍वविद्यालय प्रशासन ने उस छात्र को जो नोटिस दिया उसकी भाषा संविधान के मूल्यों की धज्जियां उड़ाने वाली थी। उसकी एक पंक्ति इस प्रकार थी- ‘…ए गर्ल वाज़ फाउंड इन योर रूम…’। यह भाषा ऐसी थी मानो उसके रूम से आरडीएक्स या बम बरामद हुआ हो। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या हमारा संविधान लैंगिक आधार पर हमें किसी प्रकार की मित्रता या भेंट मुलाकात से रोकता है? नैतिकता के ऐसे प्रहरियों का भारत के तमाम विश्वविद्यालयों में तेजी से प्रसार हुआ है और इसे ‘एंटी-रोमियो स्क्वाड’ जैसी नीतियों से वैधता भी मिली। राजनीतिक संस्थाओं ने संसद में मूल्यों के क्षरण पर तो कोई नियम या कानून नहीं बनाया, लेकिन उसने मान लिया कि शिक्षण संस्थानों में ही मूल्यों और संस्कारों की कमी हो गयी है।   

भारत के विश्वविद्यालयों में पिछले कुछ वर्षों में ऐसा क्या कुछ कीमती आ गया है जिसे सुरक्षित रखने के लिए सुरक्षा बलों का गठन किया गया है, यह समझ से परे है! शिक्षा के द्वार तो खुले होने थे, वहां किसी का प्रवेश वर्जित नहीं होना था, लेकिन अचानक से इसने लोगों के आने-जाने को नियंत्रित कर दिया जबकि सौभाग्य से कई शताब्दियों से भारत के किसी विश्वविद्यालय में किसी प्रकार की आतंकी घटना भी नहीं घटी है। बिना पास, परिचय पत्र और ठोस कारण के आप परि‍सर के भीतर नहीं जा सकते। यह मात्र निजी नहीं, बल्कि अधिकांश सरकारी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की भी सच्चाई बन चुका है। जितनी बार विश्वविद्यालय के भीतर आप प्रवेश करते हैं उतनी बार आपके स्वाभिमान और सम्मान को ये सुरक्षा बल तार-तार कर देते हैं। इनके सवाल और इनके तल्ख तेवर आपके भीतर की गरिमा को हर बार चोटिल कर जाते हैं। ऐसा मेरा भी कई बार का अनुभव रहा है जब मेरी शिक्षा मुझे निरर्थक लगने लगी थी। ये आपकी ऐसे तलाशी लेते हैं मानो आप आधुनिक बख्तियार खिलजी हैं और आपसे विश्वविद्यालय के अस्तित्व को गंभीर खतरा है। अधिकांश विश्वविद्यालयों में तो यह शिक्षकों और छात्रों के साथ दैनिक रूप से होता है और सबसे बड़ी बात, ये सुरक्षा के नाम पर जो कुछ भी करते हैं उसमें से अधिकांश संवैधानिक नियमों के प्रतिकूल होता है। जैसे कई बार ये कैम्पस के भीतर ट्रिपल लोडिंग या बिना हेलमेट पर चालान भी काटना शुरू कर देते हैं या फिर अलग प्रकार से दंड का अपना गैरकानूनी नियम बनाये हुए हैं।

इस सन्दर्भ में एक मामला तो एक दशक पहले बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भी प्रकाश में आया था, लेकिन कहा जाता है कि बाद में लॉ-स्कूल के छात्रों की पहल के कारण विश्वविद्यालय को इस अवैध वसूली को रोकना पड़ा था क्योंकि यह विश्वविद्यालय प्रशासन के अधिकार क्षेत्र के बाहर का मामला था। लेकिन इस प्रकार की प्रवृत्ति घटने के बजाय तेजी से बढ़ी है। अनेक विश्वविद्यालय परिसर में सैन्य प्रतीकों का रखा जाना किन मूल्यों का संकेत है इसकी व्याख्या करने की जरूरत नहीं है। ये प्रतीक एक साथ छात्रों के साथ-साथ समाज को भी सत्ता का एक सख्त सन्देश है- सीमा में रहें।

अपराधशास्त्र में पेनेप्तिकोन की एक अवधारणा है जिसमें कैदी को निगरानी में रखने का एक ऐसा तंत्र विकसित किया गया होता है जिसमें कैदी को ये पता नहीं होता कि उसे कौन, कब और कहां से देख रहा है। अधिकांश विश्वविद्यालयों में एक नए प्रकार का पेनेप्तिकोन विकसित किया गया है जिसमें आदमी से अधिक मशीनों का सहारा लिया गया है। ऑडियो-विडियो कैमरे, फिंगर प्रिंट जैसे तमाम इसके महत्वपूर्ण उपकरण हैं। पहली नजर में यह अच्छा भी दिखता है कि इसने लोगों को अपनी जिम्मेवारियों से भागने का मौका नहीं दिया है, लेकिन अपने अंतिम उद्देश्य में यह एक नियंत्रण है आपके विचारों और स्वतंत्रता पर। आप लगातार इस भय में जीते हैं कि कहीं आपसे कुछ गलत न हो जाए, और गलत से यहां तात्पर्य है पूर्व-निर्धारित चीजों के विरुद्ध जाना। और इस प्रकार यह तंत्र एक सत्ता निर्धारित सोच और व्यवस्था के स्थायित्व के लिए सहायक होता है। नयी सोच और संभावनाएं विकसित होने से पहले ही मार दी जाती है। हाल ही में प्रकाशित जेम्स बार्टलेट की एक किताब ‘पीपल वर्सेस टेक’ (2018) में भी तकनीक ने कैसे सत्ता को और मजबूत बनाया है और लोकतन्त्र को कमजोर किया है इस पर अहम चर्चा है।

सवाल है कि क्या विश्वविद्यालयों का यह बदलता हुआ चरित्र विश्वविद्यालय को ज्ञान-विज्ञान, स्वतन्त्र सोच-विचार का केंद्र रहने देगा? क्या ऐसे माहौल में हमें गलतियां करने की स्वतंत्रता मिल सकती है, जबकि पूरा तंत्र हमारी गलतियों पर सजा देने को तैयार बैठा हो? हम विश्वगुरु बनने की बात कर रहें हैं, लेकिन इसकी रूपरेखा पुरोहिततंत्र के इर्द-गिर्द घूमती दिखायी दे रही है!


डॉ. केयूर पाठक लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, पंजाब में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं


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