मैं जब इंजिनीयरिंग प्रथम वर्ष का छात्र था तब मेरे मित्र कृष्णानंद के पड़ोसी छोटे उर्फ राम दुलारे ने मुझे राहुल सांकृत्यायन की लिखी एक पुस्तिका दी- ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’। मुझे लगा कि मेरे व्यक्तित्व में जो एक कमी थी उसे राहुल जी के विचारों से दूर किया जा सकता है। फिर मैंने उनकी यूटोपिया ‘इक्कीसवीं सदी’ पढ़ी। उनके विपुल साहित्य को देख कर मुझे लगाने लगा कि राहुल जी ज्ञान के कोष हैं।
उनके साहित्य के साथ साथ उनकी घुमक्कड़ी भी मुझे बहुत आकर्षित करती। राहुल जी स्वयं घुमक्कड़ी के बारे में कहते हैं: – ”मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से। प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है क्योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुरा के उन्हें गला फाड़–फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्तुत: तेली के कोल्हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं। आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव–वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन, क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता। आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहायी है, इसमें संदेह नहीं और घुमक्कड़ों से हम हरगिज नहीं चाहेंगे कि वे खून के रास्ते को पकड़ें। किन्तु घुमक्कड़ों के काफिले न आते जाते, तो सुस्त मानव जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती। अमेरिका अधिकतर निर्जन सा पड़ा था। एशिया के कूपमंडूक को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गयी, इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपनी झंडी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन, भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है, लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं आयी कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते।”
असल में राहुल सांकृत्यायन उन विशिष्ट साहित्य सर्जकों में हैं जिन्होंने जीवन और साहित्य दोनों को एक तरह से जिया। उनके जीवन के जितने मोड़ आये, वे उनकी तर्कबुद्धि के कारण आये। बचपन की परिस्थिति व अन्य सीमाओं को छोडकर उन्होंने अपने जीवन में जितनी राहों का अनुकरण किया वे सब उनके अंतर्मन की छटपटाहट के द्वारा तलाशी गई थी। जिस राह को राहुलजी ने अपनाया उसे निर्भय होकर अपनाया। वहां न द्विविधा थी न ही अनिश्चय का कुहासा। ज्ञान और मन की भीतरी पर्तों के स्पंदन से प्रेरित होकर उन्होंने जीवन को एक विशाल परिधि दी।
उनके व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। उनकी रचनात्मक प्रतिभा का विस्तार भी राहुलजी के गतिशील जीवन का ही प्रमाण है। उनके नाम के साथ जुडे हुए अनेक विशेषण हैं। शायद ही उनका नाम कभी बिना विशेषण के लिया गया हो। उनके नाम के साथ जुडे हुए कुछ शब्द हैं महापंडित, शब्द-शास्त्री, त्रिपिटकाचार्य, अन्वेषक, यायावर, कथाकार, निबंध-लेखक, आलोचक, कोशकार, अथक यात्री….. और भी जाने क्या-क्या। जो यात्रा उन्होंने अपने जीवन में की, वही यात्रा उनकी रचनाधर्मिता की भी थी।
राहुलजी को कृतियों की सूची बहुत लंबी है। उनके साहित्य को कई वर्गों में बाँटा जा सकता है। कथा साहित्य, जीवनी, पर्यटन, इतिहास दर्शन, भाषा-ज्ञान, भाषाविज्ञान, व्याकरण, कोश-निर्माण, लोकसाहित्य, पुरातत्व आदि। बहिर्जगत् की यात्राएं और अंतर्मन के आंदोलनों का समन्वित रूप है राहुलजी का रचना-संसार। घुमक्कडी उनके बाल-जीवन से ही प्रारंभ हो गई और जिन काव्य-पंक्तियों से उन्होंने प्रेरणा ली, वे है ’’सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहां, जिंदगानी गर रही तो, नौजवानी फिर कहां?‘‘
राहुलजी जीवनपर्यन्त दुनिया की सैर करते रहे। इस सैर में सुविधा-असुविधा का कोई प्रश्न ही नहीं था। जहां जो साधन उपलब्ध हुए उन्हें स्वीकार किया। वे अपने अनुभव और अध्ययन का दायरा बढ़ाते रहे। ज्ञान के अगाध भण्डार थे राहुलजी। राहुलजी का कहना था कि ’उन्होंने ज्ञान को सफर में नाव की तरह लिया है। बोझ की तरह नहीं।‘ उन्हें विश्व पर्यटक का विशेषण भी दिया गया। उनकी घुमक्कड़ी प्रवृत्ति ने कहा ’’घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।‘‘ अनेक ग्रंथों की रचना में उनके यात्रा-अनुभव प्रेरणा के बिंदु रहे हैं। न केवल देश में वरन् विदेशों में भी उन्होंने यात्राएं की, दुर्गम पथ पार किए। इस वर्ग की कृतियों में कुछेक के नाम हैं- लद्दाख यात्रा, लंका यात्रा, तिब्बत में सवा वर्ष, एशिया के दुर्गम भूखण्डों में, मेरी यूरोप-यात्रा, दार्जिलिंग परिचय, नेपाल, कुमाऊँ जौनसार, देहरादून आदि। जहां भी वे गये वहां की भाषा, संस्कृति और साहित्य का गहराई से अध्ययन किया।
अध्ययन का विस्तार, अनेक भाषाओं का ज्ञान, घूमने की अद्भुत ललक, पुराने साहित्य की खोज, शोधपरक पैनी दृष्टि, समाजशास्त्र की अपनी अवधारणाएं, प्राकृत-इतिहास की परख आदि वे बिंदु हैं जो राहुलजी की सोच में यायावरी में, विचारणा में और लेखन में गतिशीलता देते रहे। उनकी यात्राएं केवल भूगोल की यात्रा नहीं है। यात्रा मन की है, अवचेतन की भी है, चेतना के स्थानांतरण की है। व्यक्तिगत जीवन में भी कितने नाम रूप बदले इस रचनाधर्मी ने। बचपन में नाम मिला केदारनाथ पाण्डे, फिर वही बने दामोदर स्वामी, कहीं राहुल सांकृत्यायन, कहीं त्रिपिटकाचार्य आदि नामों के बीच से गुजरना उनके चिंतक का प्रमाण था। राहुल बाह्य यात्रा और अंतर्यात्रा के विरले प्रतीक हैं।
ज्ञान की खोज में घूमते रहना राहुलजी की जीवनचर्या थी। उनकी दृष्टि सदैव विकास को खोजती थी। भाषा और साहित्य के संबंध में राहुलजी कहते हैं- ’’भाषा और साहित्य, धारा के रूप में चलता है फर्क इतना ही है कि नदी को हम देश की पृष्ठभूमि में देखते हैं जबकि भाषा देश और भूमि दोनों की पृष्ठभूमि को लिए आगे बढती है… कालक्रम के अनुसार देखने पर ही हमें उसका विकास अधिक सुस्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। ऋग्वेद से लेकर 19वीं सदी के अंत तक की गद्य धारा और काव्य धारा के संग्रहों की आवश्यकता है।‘‘
राहुलजी का पूरा जीवन साहित्य को समर्पित था। साहित्य-रचना के मार्ग को उन्होंने बहुत पहले से चुन लिया था। सत्यव्रत सिन्हा के शब्दों में- ’’वास्तविक बात तो यह है कि राहुलजी ने किशोरावस्था पार करने के बाद ही लिखना शुरू कर दिया था। जिस प्रकार उनके पांव नहीं रुके उसी प्रकार उनके हाथ की लेखनी भी नहीं रुकी। उनकी लेखनी की अजस्रधारा से विभिन्न विषयों के प्रायः एक सौ पचास से अधिक ग्रंथ प्रणीत हुए।‘‘
राहुलजी के व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण पक्ष है स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भागीदारी। भारत को आजादी मिले यह उनका सपना था और इस सपने को साकार करने के लिए वे असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। शहीदों का बलिदान उन्हें भीतर तक झकझोरता था। उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था- ’’चौरी-चौरा कांड में शहीद होने वालों का खून देश-माता का चंदन होगा।‘‘
राहुलजी के व्यक्तित्व में संकीर्णता नहीं थी। विगत को जानना ओर उसमें पैठना, वर्तमान की चुनौती को समझना और समस्याओं से संघर्ष करना, भविष्य का स्वप्न सँवारना- यह राहुलजी की जीवन पद्धति थी। अतीत का अर्थ उनके लिए महज इतिहास को जानना नहीं था, वरन् प्रकृत इतिहास को भी समझना और जानना था। इतिहास का उन्होंने नये अर्थ में उपयोग किया। उनके शब्दों में- ’’जल्दी ही मुझे मालूम हो गया कि ऐतिहासिक उपन्यासों का लिखना मुझे हाथ में लेना चाहिए….. कारण यह कि अतीत के प्रगतिशील प्रयत्नों को सामने लाकर पाठकों के हृदय में आदर्शों के प्रति प्रेरणा पैदा की जा सकती है।‘‘
उनकी अनेक कृतियाँ जैसे, सतमी के बच्चे, जोंक, वोल्गा से गंगा, जययौधेय, सिंह सेनापति आदि इस बात के परिचायक हैं कि राहुलजी इतिहास, पुरातत्व, परंपरा, व्यतीत और अतीत को अपनी निजी विवेचना दे रहे थे। राहुलजी की इतिहास-दृष्टि विलक्षण थी। वे उसमें वर्तमान और भविष्य की कडि़यां जोडते थे। इतिहास उनके लिए केवल ’घटित‘ का विवरण नहीं था। उसमें से वे दार्शनिक चिंतन का आधार ढूँढते थे।
पूरे विश्व साहित्य के प्रति राहुलजी के मन में अपार श्रद्धा थी। वह साहित्य चाहे इतिहास से संबंधित हो, या संस्कृति से, अध्यात्म से संबंधित हो या यथार्थ से- सबको वे शोधार्थी की तरह परखते थे। उनकी प्रगतिशीलता में अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को देखने का आग्रह था और ओढी हुई विदेशी सभ्यता उनकी दृष्टि में हेय थी। वे अपनी भाषा, अपने साहित्य के पुजारी थे। वह साहित्य चाहे संस्कृत का हो, चाहे हिन्दी का, चाहे उर्दू का, चाहे भोजपुरी का। राष्ट्रीय चेतना के संदर्भ में वे कहते थे कि ’’यदि कोई ’’गंगा मइया‘‘ की जय बोलने के स्थान पर ’वोल्गा‘ की जय बोलने के लिए कहे, तो मैं इसे पागल का प्रलाप ही कहूँगा।‘‘
बोलियों और जनपदीय भाषा का सम्मान करना राहुलजी की स्वभावगत विशेषता थी। भोजपुरी उन्हें प्रिय थी क्योंकि वह उनकी माटी की भाषा थी। लोक-नाट्य परंपरा को वे संस्कृति का वाहक मानते थे। लोकनाटक और लोकमंच किसी भी जनआंदोलन में अपनी सशक्त भूमिका निभाते हैं, यह दृष्टि राहुलजी की थी। इसीलिए उन्होंने भोजपुरी नाटकों की रचना की। इसमें उन्होंने अपना नाम ’’राहुल बाबा‘‘ दिया। सामाजिक विषमता के विरोध में इन नाटकों में और गीतों में अनेक स्थलों पर मार्मिक उक्तियाँ कही गई हैं। बेटा और बेटी के भेदभाव पर कही गई ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- ’’एके माई बापता से एक ही उदवा में दूनों में जनमवाँ भइल रे पुरखवा, पूत के जनमवाँ में नाच और सोहर होला बैटी जनम धरे सोग रे पुरखवा।‘‘ भोजपुरी के इन नाटकों को वे वैचारिक धरातल पर लाए और जन-भाषा में सामाजिक बदलाव के स्वर को मुखरित किया।
ज्ञान की इतनी तीव्र पिपासा और जन-चेतना के प्रति निष्ठा ने राहुलजी के व्यक्तित्व को इतना प्रभा-मंडल दिया कि उसे मापना किसी आलोचक की सामर्थ्य के परे है। इसके अलावा जो सबसे बड़ी विशेषता थी- वह यह थी कि यश और प्रशंसा के ऊँचे शिखर पर पहुँचकर भी वे सहृदय मानव थे।
राहुलजी भाषात्मक एकता के पोषक थे। वह सांप्रदायिक सद्भाव के समर्थक थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। वे हर भाषा और उसके साहित्य को महत्व ही नहीं देते थे, वरन् उसे अपनाने की बात कहते थे। हिन्दी के अनन्य प्रेमी होने के बावजूद वे उर्दू और फारसी के साहित्यकारों की कद्र करते थे। वे कहते हैं, ’’सौदा और आतिश हमारे हैं। गालिब और दाग हमारे हैं। निश्चय ही यदि हम उन्हें अस्वीकृत कर देते हैं तो संसार में कहीं और उन्हें अपना कहने वाला नहीं मिलेगा।‘‘
राहुलजी अद्भुत वक्ता थे। उनका भाषण प्रवाहपूर्ण और स्थायी प्रभाव डालने वाला होता था। एक बार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने राहुलजी की भाषण शक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा था, ’’मैं गोष्ठियों, समारोहों, सम्मेलनों, में वैसे तो बेधड़क बोलता हूं लेकिन जिस सभा, सम्मेलन या गोष्ठी में महापंडत राहुल सांकृत्यायन होते हैं, वहां बोलने में सहमता हूँ। उनके व्यक्तित्व एवं अगाध विद्वत्ता के समक्ष अपने को बौना महसूस करता हूँ।‘‘ द्विवेदीजी का यह प्रशस्तिभाव इसलिए और भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि द्विवेदीजी स्वयं हिन्दी के असाधारण वक्ता और असाधारण विद्वान् थे। राहुलजी की कृतज्ञ भावना उनकी पुस्तक ’जिनका मैं कृतज्ञ‘ में देखने को मिलती है। इसके प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है, ’’जिनका मैं कृतज्ञ‘‘ लिखकर उस ऋण से उऋण होना चाहता हूँ, जो इन बुजुर्गों और मित्रों का मेरे ऊपर है। उनमें से कितने ही इस संसार में नहीं हैं। वे इन पंक्तियों को नहीं देख सकते। इनमें सिर्फ वही नहीं हैं जिनसे मैंने मार्गदर्शन पाया था बल्कि ऐसे भी पुरुष हैं जिनका साथ मानसिक संबल के रूप में जीवन यात्रा के रूप में हुआ। कितनों से बिना उनकी जानकारी, उनके व्यवहार और बर्ताव से मैंने बहुत कुछ सीखा। मनुष्य को कृतज्ञ होना चाहिए।‘‘
राहुलजी का व्यक्तित्व इतना बहुआयामी था कि उसको शब्दों की परिधि में बाँधना दुःसाध्य है। उनका अध्ययन और लेखन इतना विशाल है कि कई-कई शोधार्थी भी मिलकर कार्य करें तो भी श्रम और समय की कोई एक सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। प्रवाहपूर्ण लेखनी और पैनी दृष्टि से वे ऐसे रचनाधर्मी थे, जिसने अपने जीवनकाल में ही यश के ऊँचे शिखर छू लिए थे। राहुलजी शब्द-सामर्थ्य और सार्थक-अभिव्यक्ति के मूर्तिमान रूप थे।