एक आंदोलन जिसकी गूंज भारत के कोने-कोने से आ रही है! एक आंदोलन जो बताता है कि देश का अन्नदाता दाने-दाने को मोहताज हो रहा है! एक आंदोलन जो यह जाहिर करने के लिए काफी है कि अब हदें पार हो रही हैं! देश में इन दिनों चल रहे किसान आंदोलन की धमक पूरी दुनिया सुन रही है. जिस तकनीक-सम्पन्न भारत की छवि दुनिया को दिखाई जा रही थी वहां किसानों का सड़कों पर उतर कर इस तरह का प्रदर्शन बता रहा है कि अंदरूनी हालात अच्छे नहीं हैं. हालात का अनुमान तो ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट से भी चलता है, जिसमें भारत की रैंकिंग 103वीं है.
बहरहाल एक विद्रोह की आवाज तो हम सुन ही रहे हैं, लेकिन एक छिपा हुआ विद्रोह अब जंगल में आग की तरह फैलने लगा है. यह विद्रोह है गरीब परिवारों का, जिनके नाम पर केन्द्र सरकार ने नि:शुल्क राशन बांटने का दावा किया और फिर ये तक पता नहीं किया कि गरीब की थाली तक अनाज पहुंचा या नहीं! इन दिनों यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश, झारखंड से लगातार ऐसे छोटे-मोटे प्रदर्शनों की खबरें आ रही हैं जहां गरीब परिवार की महिलाएं और पुरुष रास्ता जाम कर बैठे हैं. उनका कहना है कि डीलर उन्हें राशन नहीं दे रहा, कम राशन दे रहा है या खराब गुणवत्ता वाले राशन का वितरण गरीब, निर्धन समाज में किया जा रहा है!
सरकार राशन कार्ड देने में सालों लगाती है! बूढ़े-बुजुर्गों के अंगूठे का निशान मेल न खाना या बायोमेट्रिक मशीन की खराबी की वजह से घंटों इंतज़ार करना, बार-बार चक्कर लगाना, राशन की दुकान सीमित अवधि के लिए खुलने के कारण जब राशन वितरण होता है तब कई परिवारों के पास उचित मात्र में पैसे का नहीं होना- ऐसे में उनका राशन डीलरों द्वारा या तो दिया नहीं जाता या उन्हें राशन से वंचित ही रहना पड़ता है. कुल मिलाकर घर का बच्चा भूख से तिलमिला रहा है और पंचायत प्रतिनिधि, सामाजिक-सरकारी तंत्र केवल उन्हें आश्वासन दे रहा है कि तुम्हारा बच्चा चुप हो जाएगा, तुम्हारे लिए सरकार खाद्यान्न का इंतज़ाम कर रही है.
गरीब निर्धन परिवारों का आन्दोलन चूँकि छोटा होता है इसलिए मोहल्ले, पंचायत या प्रखंड से आगे इन आन्दोलनों की आवाज़ सुनाई नहीं देती.
विश्वगुरु भारत में अनेक आन्दोलन चल रहे हैं। यह समझने की गलती मत करिएगा कि दिल्ली में केवल पंजाब और हरियाणा के किसान ही आन्दोलन कर रहे हैं. अब राशन न मिलने पर लोग आन्दोलन के लिए आतुर हो रहे हैं. हो सकता है हमें किसान आंदोलन के बाद अनेक आन्दोलनों और विद्रोहों का सामना करना पड़े!
कुचली जा रही है आवाज
हाल ही में बिहार के समस्तीपुर के खानपुर रेबड़ा स्थित शांति चौक पर ग्रामीणों ने बांस बल्ला लगाकर यातायात जाम कर दिया था. डिमांड वही… राशन नहीं मिल रहा. अलस में ग्रामीणों के साथ डीलर ने धोखेबाजी की. आक्रोशित ग्रामीण बताते हैं कि रेबड़ा पंचायत के डीलर हरिप्रसाद राय, दिनेश ठाकुर और कमल किशोर राय ने अक्टूबर माह का फ्री वाला राशन अंगूठा लगवाकर दिया था. अंगूठा उन लोगों से भी लगवाया गया जो हस्ताक्षर कर सकते थे. इसके बाद राशन दिया और कहा कि अब अगले माह आना.
जब लोग नवम्बर का राशन लेने पहुंचे तो पता चला कि उनके नाम का राशन पहले ही लिया जा चुका है. तब जाकर ग्रामीणों को समझ आया कि उनसे दो माह के राशन लिस्ट पर अंगूठे लगवाए गए और राशन दिया एक माह का. जब इस बारे में आला अधिकारियों से बात की तो उन्होंने इस घटना पर खास ध्यान नहीं दिया. उस परिवार के लिए यह बात मामूली नहीं हो सकती जिसका परिवार इसी राशन के भरोसे बैठा था. आखिरकार लोगों ने मुख्य मार्ग जाम कर दिया ताकि उनकी सुनवाई हो सके. डीलर और एमओ के खिलाफ नारेबाजी हुई, इसके बाद पुलिस आई और धरना खत्म करवाकर यातायात चालू करवा दिया. विद्रोहियों की आवाज वहीं दबा दी गई.
इसके बाद किसी ने पूछा तक नहीं अब घरवालों को क्या खिलाओगे? डीलरों का सीधा जवाब था जिससे शिकायत करना है करो. ग्रामीणों का कहना था कि एमओ को लाख रुपये महीना खिलाना पड़ता है तब राशन का आवंटन होता है, कहीं कोई तुम्हारी बात नहीं सुनेगा.
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत बिहार में कुल 1.68 करोड़ राशन कार्ड बनाए गए हैं. इसमें से 24.69 लाख अंत्योदय राशन कार्ड और 1.43 करोड़ पात्र गृहस्थी राशन कार्ड हैं. राज्य में कुल 48,372 फेयर प्राइस शॉप (एफपीएस) और 46,667 पॉइंट ऑफ सेल (पीओएस) हैं. मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य के 1.68 राशन कार्ड के मुकाबले अभी तक 16.26 लाख राशन कार्ड पर ही अनाज का वितरण किया गया है. इसका मतलब है कि बिहार में कुल राशन कार्ड की तुलना में सिर्फ करीब 10 फीसदी राशन कार्ड पर ही अभी तक अनाज मिल पाया है. ये वह राशन है जो कोरोना काल के दौरान नि:शुल्क आवंटित होना था पर वो भी ठीक से नहीं हो सका.
इसके अलावा जो लोग पैसे देकर राशन खरीदते हैं उनके साथ ही कोई बहुत अच्छा बर्ताव नहीं हो रहा है. मुजफ्फरपुर के मोतीपुर प्रखंड मुख्यालय में मामादा से आई शारदा देवी अपने बच्चों के साथ धरने पर बैठी हैं. उनके साथ गांव की बाकी महिलाएं भी हैं. शारदा कहती हैं कि उन्हें महीनों से नि:शुल्क राशन नहीं मिल रहा. अगर पैसे देकर भी राशन लेते हैं तो दुकानदार 120 रुपए में केवल 25 किलो राशन देता है जबकि 35 किलो मिलना चाहिए. अगर ज्यादा राशन मांगो तो डीलर हमें भगा देता है- बोलते हैं इतना ही मिलेगा, लेना है तो लो नहीं तो जाओ यहां से.
आपूर्ति कम, बर्बादी ज्यादा
अगर डीलर ये तर्क देते हैं कि अनाज नहीं है या मांग के हिसाब से आपूर्ति नहीं हो पा रही है तो ऐसी बेतुकी बातों पर लगाम लगाने के लिए ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट काफी है, जो बताती है कि भारत हर साल सस्ता या मुफ्त अनाज मुहैया कराने पर करीब 1.5 लाख करोड़ रुपये खर्च करता है जबकि 2016 में एक स्टडी में अनुमान लगाया गया था कि भारत में अनाज की बर्बादी के चलते सालाना 92,651 करोड़ रुपये का नुकसान होता है. बात साफ है, हमारे यहां आपूर्ति बर्बादी से कम है!
हाल ही में 20 सितंबर को सरकार ने आंकड़ा जारी किया, जिसे अप्रैल में खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री स्वर्गीय रामविलास पासवान ने पेश किया था. पासवान ने संसद को सूचित किया था कि भारतीय खाद्य निगम (FCI) द्वारा खरीदा गया सिर्फ 0.02 लाख टन अनाज बर्बाद हुआ लेकिन अनाज की बर्बादी के सवाल पर सरकार सिर्फ एफसीआई का जिक्र करती है. जितने अनाज की बर्बादी होती है उसमें एफसीआई का योगदान बहुत छोटा है.
रामविलास पासवान ने संसद में कहा था, ‘’आम लोगों की धारणा है कि एफसीआई के गोदामों में अनाजों की भारी बर्बादी होती है, लेकिन हम इसे नियंत्रित करने में सक्षम हैं और बर्बादी को नगण्य कर दिया गया है’’. उन्होंने कहा कि 2015-16 में सरकार ने 62.3 मिलियन टन चावल और गेहूं खरीदा, जिसमें से 3,116 टन अनाज बर्बाद हो गया. ये कुल खरीद का सिर्फ 0.005 प्रतिशत है. 2016-17 में 61 मिलियन टन की कुल खरीद में से सिर्फ 0.014 प्रतिशत बर्बाद हुआ. 2017-18 और 2018-19 में अनाज की बर्बादी क्रमशः 0.003 प्रतिशत और 0.006 प्रतिशत रही. 2019-20 में सरकार ने 75.17 मिलियन टन अनाज खरीदा, जिसमें से 1,930 टन बर्बाद हुआ जो कुल खरीद का 0.002 प्रतिशत है.
इंडिया टुडे ने इस पूरे दावे की जांच करने के लिए कई राज्यों का दौरा किया. मध्य प्रदेश के रीवा जिले में उन्हें पता चला कि खरीद सिस्टम में लापरवाही बर्बादी की सबसे अहम वजह है. यहां 124 खरीद केंद्रों पर किसानों द्वारा लाए गए 11.4 लाख क्विंटल धान तौला जा चुका है. स्थानीय अधिकारियों का दावा है कि इसमें से 9.5 लाख क्विंटल पहले ही उठाया जा चुका है, लेकिन खरीदा गया धान पूरी तरह से अव्यवस्थित पड़ा है.
ये हालात तब है जब इन केंद्रों पर खरीद का जो लक्ष्य है, यह बमुश्किल उसका 50 फीसदी है. इन केंद्रों पर 70,000 किसान पंजीकृत हैं. उनमें से लगभग 59,000 को मैसेज भेजा गया है कि 27 दिसंबर तक अपनी फसल ले आएं. रिकॉर्ड के अनुसार 17 दिसंबर तक सिर्फ 29,000 किसान इन केंद्रों पर पहुंचे थे.
ये मात्र एक उदाहरण है, देश के बाकी राज्यों के हाल भी ऐसे ही हैं. जरूरत से कम भंडारण क्षमता होने के कारण देश में अनाज बर्बाद ज्यादा होता है जबकि यही अनाज गरीबों के काम आ सकता है. चंपारण के दक्षिणी छपरा बहास गांव में ग्रामीणों को नवम्बर का नि:शुल्क राशन नहीं दिया गया. डीलर के पास अनाज के गोदाम भरे हैं पर वो ग्रामीणों को राशन नहीं दे रहा. अब ग्रामीणों ने हल्ला बोल करते हुए डीएम को ज्ञापन सौंपा, साथ में कहा कि अगर तीन दिन में राशन नहीं मिला तो वे यातायात जाम कर देंगे. इस पूरे प्रकरण के अंत की विकासखंड पदाधिकारी ने बस आश्वासन दिया है कि चिंता मत करो, डीलर से बात करेंगे. सवाल ये है कि आखिर डीलर से बात करने की जरूरत ही क्यों है? सरकार अगर राशन पहुंचा रही है तो डीलर उसे गरीबों तक पहुंचाने से क्यों रोक रहे हैं?
मोतीपुर से मोबाइलवाणी संवाददाता राजेश कुमार ने बगई मलकाना के संजय कुमार महतो से बात की. संजय बीते कई दिनों से राशन की दुकान के चक्कर काट रहे हैं. वो बताते हैं कि उन्हें और उनके गांव के सभी गरीब परिवारों को नवम्बर-दिसंबर माह का राशन नहीं दिया गया है. जब वो दुकान जाते हैं तो दुकानदार बोलता है राशन खत्म हो गया है. संजय कहते हैं कि अगर सरकार वाकई हमें राशन देना चाहती है तो फिर उसे कौन खा रहा है, क्योंकि हम और हमारे बच्चे तो भूखे हैं.
भारत में अनाज का कुल उत्पादन लगभग 30 करोड़ टन है और एफसीआई सिर्फ 8 करोड़ टन की खरीद करता है, जो भारत के कुल उत्पादन का करीब एक-चौथाई है. बचे हुए खाद्यान्न का ज्यादातर हिस्सा खुले में पड़ा रहता है या निजी मंडी में बिका है. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत- जिसमें वादा किया गया था कि देश की 80 फीसद आबादी को राशन कार्ड दिया जाएगा- उन तक सस्ते दामों पर आनाज पहुँचाया जाए जिनके लिए आज भी पेट की भूख बड़ी समस्या है.
2019-20 में कुल अनाज उत्पादन 292 मिलियन टन अनुमानित था, जबकि अनुमान के अनुसार एक वर्ष में देश की कुल जनसंख्या को खिलाने के लिए 225-230 मिलियन टन की जरूरत होती है. फिर भी देश में बड़ी जनसंख्या को खाने का संकट रहता है और भारत इसके लिए संघर्ष कर रहा है. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) का अनुमान है कि भारत में जितने खाद्य पदार्थों का उत्पादन होता है, उसका 40 प्रतिशत से ज्यादा बर्बाद हो जाता है और इसकी लागत हर साल 14 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर हो सकती है.
व्यवस्थागत या ढांचागत दिक्कतें अलग हैं!
अब बात करें व्यवस्थागत दिक्कतों की, जिससे गरीब सबसे ज्यादा त्रस्त है. सामाजिक रूप से अलगाव का शिकार वंचित समुदाय अब योजनागत रूप से भी अलगाव का शिकार हो रहा है. सरकार हर साल एक नया नियम जारी कर राशनकार्ड धारकों की दिक्कतों में इजाफा कर देती है. एक गरीब आदमी जो भूख से पहले ही परेशान है, वो डीलर से जूझता है. कभी बायोमेट्रिक फेल का सामना करता है तो कभी आधार, बैंक खाते में नाम में गड़बड़ी, कभी उम्र का न मिलना, कभी अंगूठे के निशान का न मिलना.
क्या नयी तकनीक, डीजिटल व्यवस्था आम नागरिकों के जीवन को सरल बनाने, उन्हें योजनाओं का लाभ पहुंचाने के लिए की जाती है या उन्हें योजना से लाभ उठाने से वंचित रखने के लिए?
मप्र के छिंदवाडा जिले से योगेश गौतम बताते हैं कि प्रदेश सरकार की नई व्यवस्था राशन कार्डधारियों को भारी पड़ रही है. कई महीनों से राशन का इंतजार कर थक चुका एक बुजुर्ग जिला कलेक्टर सौरभ कुमार सुमन के पास पहुंचा और कहा कि उनका आधार कार्ड अब तक नहीं बना है, अब प्रदेश सरकार के नए नियम के हिसाब से बिना आधार कार्ड राशन कार्ड मान्य नहीं होगा. मेरे पास राशन कार्ड है पर फिर भी नए नियम के बाद से दुकानदार ने राशन देना बंद कर दिया. वो कहते हैं कि अगर कार्ड के बाद एक और कार्ड फिर एक और कार्ड इतने जरूरी हैं तो गरीब आदमी इन्हीं में उलझा रहेगा. हम कितने कार्ड बनवाएं कि राशन मिलता रहे?
मप्र के खंडवा के नर्मदानगर में रहने वाली अनीता बताती हैं कि हमारे पास राशन की पर्ची है पर हमें केवल दो लोगों का राशन दिया जाता है जबकि परिवार में 4 सदस्य हैं. हमने मुखिया से बात की, उसने हमें आधार अपडेट करवाने के लिए कहा, हमने वो भी किया. चार लोगों का आधार कार्ड दिया. राशन कार्ड लिस्ट में नाम है पर पर्ची में केवल दो लोगों का नाम आ रहा है. अब आधे राशन में पूरे परिवार को खिलाना पड़ता है. अनीता कहती हैं कि मेरा बेटा 6 साल का हो गया है और बीते 6 साल से हम केवल 2 लोगों के राशन से पेट पाल रहे हैं.
यही दिक्कतें बिहार, झारखंड समेत बाकी राज्यों से भी सामने आ रही हैं. झारखंड सरकार ने मार्च 2017 में भी एक फ़रमान जारी किया था जिससे बड़े पैमाने पर राशन कार्ड रद्द किए गए थे. राशन कार्ड के साथ आधार को जोड़ने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए स्थानीय कर्मचारियों ने वैसे कार्डों को भी रद्द कर दिया था जिनमें परिवार के एक भी सदस्य का आधार जन वितरण प्रणाली से नहीं जुड़ा था. अब ऐसा ही कुछ बिहार में हो रहा है. गिद्धौर से रंजन कुमार बताते हैं कि प्रदेश सरकार ऐसे राशनकार्ड धारियों का डाटा तैयार कर रही है जिन्होंने बीते तीन माह से राशन नहीं लिया है. असल में ऐसे राशन कार्डधारियों का नाम लिस्ट से हटा दिया जाएगा. लेकिन जिन लोगों को डीलरों की मनमानी के कारण महीनों से राशन नहीं मिला है उनकी क्या गलती है? पर फिर भी उन्हें सूची में से नाम हट जाने का डर है.
इसमें भी जिनके पास पीला कार्ड होता है वे लोग अंत्योदय माने जाते हैं. इन परिवार में सदस्यों की संख्या चाहे जो हो, 35 किलो अनाज उन्हें दिया जाता है. अंत्योदय कार्ड वाले बेहद लाचार, गरीब, बेबस माने जाते हैं या अमूमन परिवार की निर्धन महिला मुखिया होती हैं, पर इन्हें भी कहीं 20 तो कहीं 25 किलो अनाज ही दिया जा रहा है. भ्रष्टाचार कम करने के नाम पर जन वितरण प्रणाली में बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण व्यवस्था लागू की गई थी, लेकिन मज़े की बात है कि इस व्यवस्था से अनाज की कटौती कम नहीं हुई है. बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण राशन डीलर को कार्डधारियों को उन्हें देय अनाज से कम देने से नहीं रोक सकता. राशन कार्ड को आधार से जोड़ने से केवल डुप्लीकेट और फ़र्ज़ी कार्डों को हटाया जा सकता है, लेकिन जन वितरण प्रणाली में यह समस्या न के बराबर है. बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण व्यवस्था के कारण राज्यों के लाखों लाभार्थी राशन से वंचित हो गए हैं.
इस ओर भी गौर करे सरकार
गिद्धौर से रंजन कुमार बताते हैं कि रतनपुर पंचायत में तीन दुकानें हैं जो जनवितरण प्रणाली के तहत चल रही हैं जबकि एक पैक्स की मदद से चलती है. इन चारों दुकानों पर कोरोनाकाल के दौरान लोग नि:शुल्क राशन लेने जाते रहे. कम ज्यादा ही सही पर अनाज मिल रहा था. नवम्बर से यह व्यवस्था बंद हो गई जबकि सरकार के हिसाब से राशन देना जारी है. दुकानदार गरीब परिवारों को यह कहकर टरका देते हैं कि राशन खत्म हो गया है. कुछ जगहों पर कहा गया कि चावल का वितरण रोक दिया है. गांव के कुछ लोग जब जब भी प्रखंड आपूर्ति अधिकारी से मिलने जाते हैं वो बात करने से इंकार कर देते हैं. कुल मिलाकर उन्हें दोनों ओर से बेसहारा छोड़ दिया गया है.
ऐसा नहीं है कि दिक्कत केवल राशन की दुकानों और डीलरों से है बल्कि आंगनबाडियों से भी बच्चों के हिस्से का मिलने वाला राशन जाने कहां अटक गया है. झारखंड के रांची जिले के चन्द्रघासी से सोनी कुमारी बताती हैं कि मेरा बेटा 1 साल 6 माह का हो गया है पर उसका पोषण आहार जो आंगनबाडी से मिलना था वो नहीं मिलता. बच्चे का नाम सूची में है पर उनके नाम का पोषण आहार आता ही नहीं.
झारखंड में जब संतोषी की भूख से मौत हुई थी जब यह राज्य से निकलकर देश का मसला बना था, पर कब तक? आज देश का मीडिया और सरकार के अनेकों मंत्री, संसद और विधायक आन्दोलन कर रहे किसानों, राशन के अभाव में आन्दोलन कर रहे गरीब परिवारों को विपक्ष की चाल तो किसी को खालिस्तानी तो कभी विदेशों की चाल कह कर असल मुद्दे से नज़र चुरा रहे है. अगर देश में योजनाएं गंभीर रूप से बीमार हैं तो इसका उपचार झोलाछाप डॉक्टर नहीं, किसी डिग्रीधारक और तजुर्बेकार डॉक्टर के इलाज से किया जा सकता है. कोरोनाकाल में जिस तरह डॉक्टरों और सरकार की उपेक्षा के शिकार लाखों ने अपनी जान गंवाई, कहीं ऐसा न हो देश की बड़ी आबादी भी इसी मर्ज़ का शिकार हो जाए.