धर्मानुग्रही न्यायप्रणाली के दुष्प्रभाव

कुछ सीधे आपराधिक मामलों को छोड़ दें तो न्याय और अन्याय की पहचान का मामला बड़ा जटिल है। कई बार तो उलझन खड़ी हो जाती है। जो बात किसी खास संदर्भ में न्याय लगती है, संदर्भ बदलते ही वह अन्याय प्रतीत होने लगती है।

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ओबीसी वोट की होड़ में कैसे दब गया जातिगत जनगणना का मुद्दा

राजनैतिक पार्टियों के लिए जाति जनगणना और आरक्षण महज एक चुनावी मुद्दे से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जनता के जनहित के सभी मसले इन सभी राजनैतिक पार्टियों की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ रहे हैं।

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ऐसी MSP योजना जो खेती का उद्धार करे

हमारे समाज में मौजूद गहरी विभाजक रेखाओं के बावजूद हाल के किसान आंदोलन के क्रम में बनी जबर्दस्त एकता ने घोर अहंकारी सरकार को भी हिला दिया। इस एकता को बनाए रखना जरूरी है। इसके लिए यह जरूरी है कि एमएसपी तय करने में छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों की जरूरतों का खास तौर पर खयाल रखा जाए।

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पंजाब चुनाव में गायब होता कॉरपोरेट वर्चस्व का मुद्दा

आंदोलन का मुख्य जोर कॉर्पोरेट जगत को कृषि क्षेत्र पर नियंत्रण करने से रोकना था। उस समय लगभग सभी राजनीतिक दल इस बात पर सहमत थे कि इन तीन कृषि कानूनों के अंतर्गत कॉरपोरेट्स का कृषि पर पूर्ण अधिकार हो जायेगा। अपने पंजाब दौरे के दौरान राहुल गांधी को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि मोदी सरकार कठपुतली सरकार थी और कॉरपोरेट्स के हितों की सेवा कर रही थी। दुख की बात है कि कृषि और अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में कॉर्पोरेट वर्चस्व को रोकने के मुद्दे का उल्लेख किसी भी राजनीतिक दल ने अपने चुनाव प्रचार या चुनावी घोषणापत्र में भी नहीं किया है।

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क्या यह हमारे देश का ही शिक्षा बजट है?

वित्त वर्ष 2020-21 के मूल बजटीय आवंटन में शिक्षा मंत्रालय को 99,311.52 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। वित्त वर्ष 2021-22 में शिक्षा मंत्रालय का मूल बजटीय आवंटन घटाकर 93,224.31 करोड़ रुपये कर दिया गया था। इस वर्ष शिक्षा के लिए मूल बजटीय आवंटन 1 लाख 4 हजार 277 करोड़ रुपये है। यदि 2020-21 से तुलना करें तो यह वृद्धि अधिक नहीं है।

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जनता के गुस्से के खिलाफ राजसत्ता का सेफ्टी वॉल्व है हिजाब प्रकरण!

देश में बढ़ती बेतहाशा महंगाई, पिछले दो वर्षों में कोविड के नाम पर खत्म किये गये रोजगार, बंद हो गए व्यवसाय, सरकारी संस्थानों को उद्योगपतियों को कौड़ी के मोल बेच दिया जाना, लोगों की गिरती आर्थिक दशा और गरीबी ने देश की जनता को संकट में डाल दिया है। उनका गुस्‍सा कभी भी फट सकता है जो सत्ताधारी के लिए संकट खड़ा कर सकता है। इसे शासक वर्ग जानता है।

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कैसे किया जाए EVM पर भरोसा?

मतदान समाप्त होने के बाद भारतीय निर्वाचन आयोग की एक व्यवस्था यह भी है कि प्रत्येक उम्मीदवार के प्रतिनिधि को फॉर्म 17सी पर यह जानकारी दी जाए कि कितने मत डाले गए ताकि गिनती वाले दिन यह देखा जा सके कि मतगणना में भी उतने ही मत निकलें।

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स्वास्थ्य बजट: कोरोना के भयानक दौर को क्या भूल गई सरकार?

अनेक विशेषज्ञों का आकलन है कि स्वास्थ्य सेवाओं के लिए वर्ष 2021-22 का वास्तविक स्वास्थ्य बजट जीडीपी का 0.34 प्रतिशत था जो 2022-23 में 0.06 प्रतिशत की मामूली वृद्धि के बाद 0.40 प्रतिशत हो गया है। विगत वर्ष बजट में स्वास्थ्य की हिस्सेदारी 2.35 प्रतिशत थी जो अब घटकर 2.26 प्रतिशत रह गई है।

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इतिहास में किस रूप में याद की जाएंगी लता मंगेशकर?

दुनिया में आज तक किसी विचारहीन कलाकार ने इतिहास में स्थान नहीं बनाया है, चाहे वह अपने जीवन-काल में कितना भी महान क्यों न लगता रहा हो। लता के गीत भले ही कुछ अरसे तक जीवित रहें, लेकिन एक कलाकार के रूप में लता इतिहास के कूड़ेदान में वैसे ही जाएंगी, जैसे कोई टूटा हुआ सितार जाता है, चाहे उसने अपने अच्छे दिनों में कितने भी सुंदर राग क्यों न निकाले हों।

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आम बजट: गांव और किसान की अनदेखी कर के सरकार ने क्या आंदोलन का बदला लिया है?

इस नीरस और निराशाजनक बजट की प्रशंसा के लिए एक अनूठा और हास्यास्पद तर्क गढ़ा गया- पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के बाद भी सरकार ने आम लोगों को राहत पहुंचाकर उनका दिल जीतने की कोशिश नहीं की, कोई लोकलुभावन घोषणा इस बजट में नहीं की गई।

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