बीते रविवार एकतरफा ‘मन की बात’ की कड़ी में प्रधान सेवक ने भी कहा कि तिरंगे के अपमान से देश के लोगों में गुस्सा है. ऐसा कहते हुए उन्होंने वही किया जो बीजेपी-आरएसएस और मीडिया भी करता रहा है- इनमें से किसी ने भी दीप सिद्धू का नाम नहीं लिया.
ठीक वैसे ही, जैसे कि लद्दाख से लेकर अरुणाचल में चीनी घुसपैठ के बाद भी प्रधानमंत्री ने एक बार भी चीन का नाम तक नहीं लिया. वैसे तो जो प्रधान होता है उसकी बात ही अंतिम सत्य होती है, लेकिन गौतम बुद्ध ने सदियों पहले कह दिया था- कोई भी सत्य अंतिम नहीं होता. याद रखने की बात है मोदीजी ने भी संयुक्त राष्ट्र में भाषण देते हुए कहा था- भारत ने युद्ध नहीं, बुद्ध दिया है. मने, ‘मन की बात’ से आगे भी कुछ और सत्य बेशक बच जाते हैं…
रविवार को ‘मन की बात’ करते हुए पीएम मोदी ने कहा– “कृषि मंत्री एक फोन कॉल की दूरी पर हैं”. तीन दिन हो गये इस बात को, अब इस बीच आप गाज़ीपुर बॉर्डर जाकर देखिए. एक कॉल के बीच कितनी कीलें, कंटीली तारें, कंक्रीट की दीवारें और सशस्त्र सुरक्षा बल खड़े हैं. यह व्यवस्था किसानों की घेराबंदी कर के लोगों को उन तक पहुंचने से रोकने की कवायद है. सरकारी सुरक्षा के घेरे और सत्ता के संरक्षण में मीडिया और परदे वाली ‘झांसी की रानी’ अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक निर्वहन कर रही हैं. वे लगातार किसानों को आतंकवादी घोषित करने में व्यस्त हैं जबकि किसानों ने 26 जनवरी की हिंसा के लिए माफ़ी मांगते हुए उसकी निष्पक्ष जांच की मांग की है.
30 जनवरी की शाम सिंघू बॉर्डर पर क्या हुआ था? धर्मेन्द्र ने सुनायी अपनी और मनदीप की पूरी कहानी
बीती 30 जनवरी को स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पुनिया और ऑनलाइन न्यूज़ इंडिया के पत्रकार धर्मेन्द्र सिंह को दिल्ली पुलिस ने सिंघु बॉर्डर से उठा लिया. पुलिस ने अनुसार मनदीप ने सरकारी काम में रूकावट डाली और उनके पास प्रेस कार्ड भी नहीं था. खुली सड़क पर किसी घटना को एक पत्रकार द्वारा फिल्माना सरकारी काम में बाधा माना जाएगा यह अब तय है. इस घटना ने स्वतंत्र और बेरोज़गार पत्रकारों के मन में एक डर ज़रूर पैदा किया है.
अब तो सिंघु बॉर्डर पर पत्रकारों को किसान आंदोलन कवर करने के लिए ‘’राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त’’ प्रेस कार्ड दिखाना पड़ेगा. मने वो पत्रकार ही वहां जा सकता है जिसको सरकार पत्रकार मानती है. बाकी सब रहेंगे बैरिकेड के बाहर. न कोई अंदर जाएगा, न सच बाहर आएगा.
हुआ यूं कि 2 फरवरी को न्यूज़लॉन्ड्री की रिपोर्टर निधि सुरेश जब सिंघु बॉर्डर पर किसान आंदोलन कवर करने गयीं तो उनको आंदोलनस्थल पर किसानों के मंच तक जाने नहीं दिया गया. एक पुलिस अधिकारी ने निधि से प्रेस कार्ड माँगा, उन्होंने अपना प्रेस कार्ड दिखाया तो पुलिस अधिकारी ने कहा- यह कार्ड नहीं चलेगा, कोई नेशनल ऑथराइज़्ड यानी राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त प्रेस कार्ड हो तो उसे जाने दिया जाएगा. वहीं मौजूद दूसरे पुलिसवाले ने तो साफ़ कह दिया कि मीडिया को किसानों के धरनास्थल तक जाने पर प्रतिबंध लग चुका है कल से.
एक फोन कॉल की दूरी का अंदाज़ा आप लगा सकते हैं इसके बाद.
इस बीच खबर यह है कि 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के मौके से 29 युवा किसान लापता हैं. मने देश की राजधानी से गणतंत्र दिवस के दिन 29 लोग लापता हो गये!
लापता होना अब कोई हैरानी नहीं है. डेढ़ साल पहले सेना का एक विमान भी देश की हवाई सीमा के भीतर उड़ते हुए अचानक लापता हो गया था. आठ दिन बाद उसका मलबा मिला, 13 लोग मृत पाए गए थे. विमान ही क्यों, बीते मई में तो एक पूरी की पूरी ट्रेन ही 17 दिनों के लिए लापता हो गई थी.
जेएनयू से लापता हुआ नजीब आज तक नहीं मिला. उसकी तलाश में देश की शीर्ष जांच एजेंसियां लगायी गयी थीं. जो लापता हो जाता है उसका पता लगाना आसान नहीं होता.
काफ़ी पहले उदय प्रकाश ने एक कहानी लिखी थी ‘दिल्ली की दीवार’. उसमें भी एक शख्स दिल्ली से लापता हो गया था। कई साल बाद उनकी एक कहानी में एक जज साहब लापता हो गये.
यहां कुछ लोगों का विवेक ही लापता है लम्बे समय से. उसका पता भी आज तक नहीं मिला. हकीकत गल्प से ज्यादा रहस्यमय दिखता है.
SKM ने 29 लापता युवकों की सूची दिल्ली के CM को सौंपी, हिंसा की न्यायिक जांच की मांग
इन लापता लोगों और ची़जों के बदले बीते कुछ साल जनता को बिना मांगे बहुत शानदार तोहफ़े मिले. सबसे पहले बैंक खातों में 15 लाख का जुमला. फिर बैंकों का मर्जर, नोटबंदी, जीएसटी, सस्ते डीजल-पेट्रोल और रसोई के लिए एलपीजी सिलेंडर, लॉकडाउन, बेकारी. इसी क्रम में अब किसानों को मिला है एक नये कृषि कानून का बिन मांगा तोहफ़ा.
किसानों ने तोहफ़ा कुबूल नहीं किया. उनके लड़के लापता हो गये. प्रधानमंत्री क्या वाकई एक कॉल की दूरी पर हैं?
कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ एक कविता की पंक्तियां याद आ रही हैं-
ये पुल हिल रहा है तो क्यों हिल रहा है तुमको पता है हमको पता है सबको पता है कि क्यों हिल रहा है मगर दोस्तों वो भी इंसान थे जिनकी छाती पर ये पुल जमाया गया अब वही लापता हैं न तुमको पता है न हमको पता है न किसी को पता है कि क्यों लापता हैं!
नित्यानंद गायेन कवि और पत्रकार हैं