बीते कुछ दिनों से यह चर्चा हो रही थी कि कम उपस्थिति वाले स्कूलों का विलय कर दिया जाएगा। यह शुरूआत हो चुकी है। गोरखपुर से शुरू हुए स्कूलों के विलय अभियान ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या हम वास्तव में सबके लिए समान और सुलभ शिक्षा चाहते हैं, या हम इसे सिर्फ बजट कटौती और आंकड़ों के खेल तक सीमित कर चुके हैं।
सरकार का कहना है कि यह “प्रयास” उन स्कूलों के लिए है जहाँ बच्चों की संख्या कम है। सच्चाई ये है कि बच्चों की संख्या कम होने का कारण स्कूल नहीं, बल्कि सिस्टम की नाकामी है और इस नाकामी की सज़ा उन्हीं बच्चों को दी जा रही है जिनकी ज़िंदगी में स्कूल ही एक उम्मीद था।
हर चुनाव में नेताओं को एक-एक वोट तक पहुँचने का हुनर आता है। वोटर लिस्ट की गली-गली छानबीन होती है। फिर जब सवाल बच्चों को स्कूल लाने का आता है तो वही प्रशासन अचानक ‘संख्या कम है‘ कहकर पल्ला झाड़ लेता है।
सरकारी शिक्षा संस्थानों में पिछले दरवाजे से धार्मिक शिक्षा को घुसाने की कवायद और सवाल
क्या सरकार ने कभी ये जानने की कोशिश की कि स्कूल में बच्चे क्यों नहीं आते? क्या वहाँ शिक्षक हैं? क्या पढ़ाई होती है? क्या बच्चों को प्रेरित करने के लिए कोई माहौल है? या फिर यह मान लिया गया है कि गरीब बच्चों को शिक्षा की अब जरूरत नहीं रही? मैं इस निर्णय को सिर्फ़ ‘विलय’ नहीं बल्कि गाँवों से शिक्षा का सफाया मानता हूँ।
गाँव-देहात में प्राथमिक स्कूल सिर्फ शिक्षा का केंद्र नहीं होते, बच्चों के लिए सामाजिक सुरक्षा का भी स्रोत होते हैं। वहीं मिड डे मील है, वहीं एक पहचान है। इसका बड़ा असर बच्चों के पोषण पर भी होगा। जब इन स्कूलों को किसी और जगह “मर्ज” किया जाएगा, तो क्या बच्चे रोज लंबी दूरी तय करके जाएंगे? कौन सी माँ अपने छह साल के बच्चे को दूर भेजेगी! मेरा मानना है कि फैसला लेने से पहले ऐसे सवालों पर मंथन होना चाहिए था।
इससे ड्रॉपआउट रेट में तगड़ा इजाफा होगा। लड़कियाँ स्कूल छोड़ेंगी, दलित-पिछड़े बच्चे छूटेंगे, और एक पूरी पीढ़ी चुपचाप अनपढ़ बना दी जाएगी-बिना किसी शोर-शराबे के।
शिक्षकों की जिम्मेदारी तय क्यों नहीं होती? अगर स्कूल में बच्चे कम हैं तो इसका पहला सवाल शिक्षकों और शिक्षा विभाग से पूछा जाना चाहिए। क्या वहाँ नियमित कक्षाएं हुईं? क्या बच्चों के घर जाकर अभिभावकों को समझाया गया? क्या ग्राम पंचायत या समुदाय से संवाद हुआ? पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और आसान रास्ता चुन लिया गया। कितनी विडंबना है कि हम डिजिटल इंडिया की बात करते हैं और बच्चों से स्कूल छीन लेते हैं!
आज जब हम चंद्रयान भेजने और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर गर्व करते हैं, उसी भारत में हम लाखों बच्चों को यह संदेश दे रहे हैं कि तुम्हारे गाँव में स्कूल चलाना अब हमारे लिए फिजूलखर्ची है। यह कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का भी “कल्याण” करना है।
यह सिर्फ स्कूलों का विलय नहीं है। यह सरकारी शिक्षा व्यवस्था को धीरे-धीरे समाप्त करने की प्रक्रिया है। जब स्कूल कम होंगे, तो निजी स्कूल बढ़ेंगे और जो फीस नहीं दे सकते, वो बच्चे शिक्षा से बाहर हो जाएंगे।
शिक्षा का लोकतान्त्रिक मूल्य और डॉ. भीमराव अम्बेडकर
क्या कोई विकल्प नहीं है? बिल्कुल है, पर इच्छाशक्ति की कमी है। ग्रामसभा स्तर पर स्कूलों के लिए स्थानीय अभियान चलाए जाते। समुदाय, अभिभावकों, पंचायतों की मदद से दाखिला बढ़ाया जाता, शिक्षकों के लिए उत्तरदायित्व तय होता, मॉनिटरिंग सिस्टम पर काम किया जाता। पर इन में से कुछ नहीं चुन गया क्योंकि ये सारे विकल्प जनपक्षधर थे, सिस्टम बदलने वाले थे। सरल नहीं थे, लेकिन सही थे।
यह केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं है, यह हमारे बच्चों की नियति से जुड़ा निर्णय है। जिस दिन गाँव के बच्चे शिक्षा से वंचित रह गए, उस दिन शहर की दीवारें भी नहीं बचेंगी। शिक्षा सबका हक है, न कि केवल उस बच्चे का जो कॉन्वेंट स्कूल जाता है।
डॉ. आंबेडकर का कथन था कि शिक्षा शेरनी का दूध है, इसे जो पियेगा वो गुर्राएगा यहाँ तो इस कदम से शिक्षारूपी शेरनी का दूध ही छीना जा रहा है, गुर्राने का सवाल ही नहीं उठता।

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