जिस दिन मेरे बेटे की हत्या हुई, उस सुबह उसने अपने दोस्त से कहा था कि उसे लगता है कि कोई उसकी गर्दन काट देगा. जब-जब मुझे उसकी ये बात याद आती है तो मैं अंदर से टूट जाती हूं. उस दिन सेलिस्टिन दो हमलावरों के साथ मेरे घर में दाख़िल हुआ. उनके हाथों में लंबे-लंबे चाकू और तलवार नुमा हथियार थे. हमनें अपनी जान बचाकर घर से भागने की कोशिश की. लेकिन सेलिस्टिन ने अपने तलवार नुमा हथियार से मेरे दो बच्चों की गर्दनें काट दीं.
ऐन-मेरी उवीमाना
ये शब्द रवांडा जनसंहार में ज़िंदा बच जाने वाली तुत्सी एक माँ ऐन-मेरी उवीमाना के हैं। उवीमाना के बच्चों को मारने वाला शख्स कोई और नहीं बल्कि उनका पड़ोसी था। आप सोच सकते हैं कि मीडिया कितना खतरनाक हो सकता है अगर वो अपने दायित्व को भूल जाये और बहुसंख्यकों की भाषा बोलने लगे।
इस महामारी के समय में भी भारत का मीडिया सम्प्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने में लगा हुआ है। अगर हम पिछले कुछ दिनों की घटनाओं की मीडिया रिपोर्ट पर नज़र डालें तो हमें पता चलेगा कि किस तरह से भारत का मीडिया वो खतरनाक खेल खेल रहा है जो 1992 में रेडियो रवांडा ने खेला था और पूरे रवांडा को एक ख़ास समुदाय के खिलाफ नफ़रत से भर दिया था, जिसका नतीजा यह हुआ के रवांडा के बहुसंख्यकों ने 8 लाख तुत्सियों की हत्या कर डाली। ऐन-मेरी उवीमाना के बेटों की उनके सामने हत्या कर दी गयी थी।
आज जबकि पूरा विश्व कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहा है, अमेरिका जैसी महाशक्ति ने पूर्णतया इसके आगे घुटने टेक दिये हैं। ‘वर्ल्डोमीटर’ वेबसाइट के अनुसार, अमेरिका में इस महामारी से अब तक 12 लाख से ज्यादा लोग ग्रसित हो चुके हैं जिनमें से करीब 70 हज़ार से ज्यादा की मृत्यु हो चुकी है! विश्व के चोटी के देश स्पेन, इटली,जर्मनी,इंग्लैंड, फ्रांस, रूस इत्यादि आज इस महामारी से लड़ रहे हैं, वहीं भारत में हालात बिलकुल इसके इतर हैं।
भारतीय मीडिया में शब्दों के मायाजाल से बहुसंख्यकों का तुष्टिकरण किया जा रहा है और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफ़रत का बीज बोया जा रहा है। हर शाम 5 बजे से टीवी पर कुछ ख़ास लोगों को बैठा कर बहस की जाती है पर विषय हमेशा यही होते हैं- हिन्दू और मुसलमान,पाकिस्तान, नॉर्थ कोरिया का तानाशाह, राष्ट्रपति ट्रम्प इत्यादि। भारतीय मीडिया को यहां के असल मुद्दों में कोई रुचि नहीं है क्यूंकि असल मुद्दों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, गरीबी इत्यादि से मीडिया चैनलों की टीआरपी बिलकुल भी नहीं आएगी।
भारत में कोरोना के नए मामलों में तेज़ी 15 मार्च के बाद आना शुरू हुई और मरकज़ का मामला 25 मार्च के बाद सामने आया जबकि गृह मंत्रालय के मुताबिक 21 मार्च तक पूरे देश में तकरीबन 824 विदेशी तबलीग़ी जमात के वर्कर के तौर पर भारत में काम कर रहे थे। इनमें से 216 लोग दिल्ली के निज़ामुद्दीन के मरक़ज़ में थे। यहां सवाल यह उठता है के जब गृह मंत्रालय को ये जानकारी थी कि कुछ विदेशी मरकज़ में और देश के अलग-अलग हिस्सों में फंसे हुए हैं तो क्यों नहीं उनको सामने लाया गया। गृह मंत्रालय आखिर किस बात का इंतज़ार करता रहा जबकि उसको मालूम था कि हमारे यहां विदेशी नागरिक फंसे हुए हैं।
वहीं निजामुद्दीन मरकज़ का दावा है कि लॉकडाउन की घोषणा होते ही उन्होंने अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर दिए थे, लेकिन आने-जाने की सुविधा न होने की वजह से फंसे हुए लोग वापस नहीं लौट सके और इसकी सूचना एसडीएम और दिल्ली पुलिस को उनकी तरफ से समय रहते दे दी गई थी। ऐसे में सरकार को ये जवाब देना चाहिए कि उन्होंने जानकारी रहते हुए भी इन विदेशी जमातियों को मरकज़ से क्यों बाहर नहीं निकाला।
यही पर मीडिया ने बहुत नकारात्मक रोल अदा किया। अगर आप उस समय की टीवी रिपोर्ट्स को देखे या अख़बारों की हेडलाइंस को देखें तो आप पाएंगे कि भारतीय मीडिया ने सच में अपनी वास्तविकता खो दी है। इनके लिए अब मीडिया नैतिकता के कोई मायने नहीं रह गए। एक समय था जब यही मीडिया ‘धर्म’ या ‘समुदाय विशेष’ का प्रयोग अपनी रिपोर्टिंग में करता था लेकिन आज का मीडिया नंगा हो चुका है और धड़ल्ले से हिन्दू मुसलमान या कोई और धर्म के नाम का इस्तेमाल अपनी रिपोर्टो में करता है।
मीडिया की धूर्तता की एक और मिसाल नासिक में एकत्र हुए मज़दूरों के समय देखने को मिली जब एक राष्ट्रीय चैनल के सीनियर एडिटर ने उस भीड़ को एक धर्म विशेष के पूजास्थल से जोड़ने की कोशिश की। वहीं एक अन्य घटना जो महाराष्ट्र के पालघर में घटित हुई, जिसमें तीन साधुओं की एक भीड़ द्वारा निर्मम हत्या कर दी गयी जो की बहुत ही निन्दनीय है , इन दोनों ही घटनाओं को हमारे राष्ट्रीय मीडिया ने सामुदायिक रंग देने की भरपूर कोशिश की।
हमें ये समझना होगा कि अगर भारत का मीडिया इस तरह से समाज में ज़हर भरता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब भारत का बहुसंख्यक रवांडा के हुतु समुदाय की तरह से अल्पसंख्यकों के खून का प्यासा हो जाएगा।
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