भारत सरकार के सांख्यिकी मंत्रालय ने हाल ही में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की अप्रैल-जून 2020 की तिमाही के आंकड़े जारी किये हैं। इन आंकड़ों से पता चलता है कि जहां एक तरफ उत्पादन के अन्य क्षेत्र महामारी के चलते धराशायी हो गए वहीं कृषि व्यवस्था पर महामारी का आंशिक प्रभाव भी नहीं पड़ा। यहाँ तक कि कृषि क्षेत्र में बढ़ोतरी पहले से अधिक देखी गई। सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार कृषि क्षेत्र में 3.4% की धनात्मक वृद्धि दर्ज की गई है। इस बढ़ोतरी के कई मायने निकल कर आते हैं।
भारत के साढ़े सात लाख गांवों में देश की लगभग दो-तिहाई जनसंख्या रहती है जिनका पारंपरिक व्यवसाय खेती है। खेती करके किसान अपनी जीविका चलाते हैं, कुछ नगदी फसलों को उगाकर साल भर के खर्चों का इंतजाम करते हैं। जीवन को बनाए रखने एवं संस्कृति के विकास में ऊर्ध्वाधर बढ़ोतरी के लिए मानव हजारों साल से धरती को जोतता आया है। उसमें बीज डालता है। धरती माता अपने पुत्रों के लिए कुछ ना कुछ अपनी आत्मा से निकाल कर दे देती हैं।
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किसान अपने खेतों में धान, गेहूं, गन्ना, कपास बोता है, उसकी सिंचाई करता है और फसल के पकने पर उसकी पूजा करता है। यह पारस्परिक रिश्ता है जो धरती माता और उसके किसान पुत्रों के बीच सदियों से चला आ रहा है। यहां किसान का अपने खेतों से खास तरह का लगाव है क्योंकि ये खेत ही उनके बच्चों का पेट भरते हैं, रोटी नून तेल जुहाने में मदद करते हैं। धरती माता और उनके किसान पुत्रों के बीच का पारंपरिक रिश्ता बरसों से चली आ रही कृषक संस्कृति की देन है। किसी जमाने में खेती करना स्वाभिमान की बात हुआ करती थी। किसान अपने हल और बैल को लेकर सुबह तड़के ही खेतों को जोतने पहुंच जाता था, ‘सूरज के उगने तक 4 बीघा धरती जोतनी है’ जैसा लक्ष्य अपने लिए बनाकर वह काम में लगता था। तकनीकी विकास के शिखर पर पहुंचने के बावजूद आधुनिक सभ्यता भारतीय कृषि व्यवस्था की उपयोगिता और महत्ता को चुनौती देने में नाकाम रही है।
अंग्रेजी राज्य और उसकी संस्कृति से लड़ते हुए गांधी जी भारतीय कृषक संस्कृति के महत्ता को भलीभांति समझ रहे थे इसलिए वे भारतीय राष्ट्र की संकल्पना और विकास में गांव की आत्मनिर्भरता और ग्राम स्वराज के रचनात्मक कार्यक्रम को केंद्र में रख रहे थे। 26 नवंबर, 1947 की प्रार्थना-सभा में गांधी जी का किसानों के सन्दर्भ में कहना था, “हमारे देश में 80 फीसदी से ज्यादा जनता किसान है, सच्चे प्रजातंत्र में हमारे यहां राज किसानों का होना चाहिए, अच्छे किसान बनना, उपज बढ़ाना, ज़मीन को कैसे ताज़ी रखना, यह सब जानना उनका काम है। ऐसे योग्य किसान होंगे तो मैं जवाहरलालजी से कहूंगा कि आप उनके सेक्रेटरी बन जाइए। हमारा किसान-मंत्री महलों में नहीं रहेगा। वह तो मिट्टी के घर में रहेगा, दिनभर खेतों में काम करेगा, तभी योग्य किसानों का राज हो सकता है।”
गांधी जी की यह सदिच्छा भले ही आगे पूरी न हो पायी हो पर आजादी के बाद के कुछ वर्षों तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र लगभग 50% हिस्सेदारी रखता था, इससे यह पता चलता है कि कृषि व्यवस्था और किसान एक जमाने में देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हुआ करते थे। विकास की बदलती परिभाषा ने अन्य क्षेत्रों को महत्वपूर्ण बनाया और आज हाल यह है कि कृषि क्षेत्र का जीडीपी में महज 14% की हिस्सेदारी रह गई है। देखा जाय तो देश की लगभग 65% जनसंख्या कृषि क्षेत्र में अपनी ऊर्जा को खर्च करती है। यह क्षेत्र देश के असंगठित कामगारों को बड़ी संख्या में रोजगार देता है। मजदूरों के अलावा कृषि क्षेत्र से जुड़े व्यापारियों का व्यवसाय भी इसी भरोसे चलता है। इसके बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि देश के विकास में कृषि क्षेत्र का योगदान आंशिक ही माना जाता है। इसके कारणों को समझने के लिए हमें पृष्ठभूमि में जाना पड़ेगा।
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वर्ष 1991 में देश में लागू हुई नई आर्थिक नीतियों से हिंदुस्तान ‘विकास’ के नए रास्ते पर चल पड़ा। यह रास्ता ‘कृषि’ से इतर था। अब देश की कृषि व्यवस्था को मजबूत करना सरकारी नीतियों और योजनाओं के केंद्र में नहीं रह गया। अब ‘उद्योग’ और विशेषकर ‘सेवा क्षेत्र’ के जिम्मे देश का आर्थिक विकास हो गया। भारत ने विश्व बैंक के संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम के तहत जिन नीतियों को अपने यहाँ लागू किया वे नीतियाँ चाहती थीं कि भारत अपने प्राथमिक क्षेत्र यानी कृषि पर जो सब्सिडी खर्च करता है वह कम करे, निर्माण और सेवा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा दे। यही हुआ भी, तब से कृषि हाशिये पर जाती गई, खेती करना घाटे का सौदा बनता गया।
पिछले तीन दशकों में इस देश के किसानों ने लाखों की संख्या में आत्महत्या की है और दूसरी ओर देश के विकास में उद्योग और सेवा क्षेत्र का प्रतिशत बढ़ता गया है। चूँकि नब्बे के बाद मूलतः पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली देश में लागू करने की कोशिश की गई, इसलिए जब जब पूँजीवाद आर्थिक मंदी का शिकार हुआ है, तब उसके उत्पादन की श्रृंखला टूट गई है।
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इक्यानवे के बाद दो से तीन बार वैश्विक आर्थिक मंदी आ चुकी है, जिसका सबसे अधिक शिकार निर्माण और सेवा क्षेत्र ही रहा है। दूसरी ओर कृषि क्षेत्र मंदी की मार से बचा रहा। अब जब कोरोना महामारी के चलते दुनिया भर की अर्थव्यवस्था कमजोर हो चुकी है, किसी भी देश की जीडीपी में सबसे अधिक योगदान करने वाले क्षेत्र औंधें मुंह गिर चुके हैं तो ऐसे में कृषि ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जिसमें कम से कम भारत में तो सकारात्मक वृद्धि देखी गई। भले ही जीडीपी में कृषि का हिस्सा पंद्रह फीसदी से कम हो। यह इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि इस देश का किसान आज भी खेती में अपना खून पसीना लगाकर, तमाम नुकसान सहते हुए भी इसे बचाए हुए है। ऐसे में क्या हमें अपनी कृषि को बनिस्बत अन्य क्षेत्रों के मजबूत नहीं करना चाहिए?
बेशक कृषि भारत के लिए अधिक समावेशी क्षेत्र है। इसलिए देश के कृषि उत्पादों की उचित कीमत, किसानों को प्रोत्साहन के लिए सस्ते बीज, उर्वरक और कृषि उपकरणों से किसानों की मदद करनी होगी। यह सरकार की तरफ से थोड़े से ही प्रयास से किया जा सकता है। नजीर के तौर पर वर्ष 2013 के खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत देश के नागरिकों को भोजन का अधिकार दिया गया है। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार अप्रैल, 2020 में लगभग अस्सी करोड़ नागरिकों को खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत राशन दिया गया है। अब जाहिर है कि इस व्यवस्था का कृषि क्षेत्र यानी किसानों को इसका सीधा लाभ तभी संभव है जब सरकारी अनाज खरीद केंद्रों की पहुंच गांवों तक सुलभता से हो और सरकार ज्यादा से ज्यादा किसानों से उचित मूल्य पर अनाज की खरीददारी करे जिससे किसानों के पास एकमुश्त पैसा आ पाए और उन्हें फसल की लागत अपेक्षित लाभ के साथ प्राप्त हो।
इससे एक तरह का चक्र स्थापित होगा, किसान खेत में अनाज उगाएंगे और खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत सरकार किसानों से ही अनाज खरीदकर जनता तक पहुंचाएगी। यह चक्र यदि सफल रहा तो कृषि का देश के विकास में योगदान भी बढ़ेगा और किसानों को खेती करने का हौसला भी मिलेगा।
पलाश किशन महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान के शोध छात्र हैं