जनसंख्या के विमर्श में धर्म का प्रवेश और प्रस्तावित कानून पर बहस के निहितार्थ


जैसे-जैसे चुनाव निकट आते हैं साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने वाले कुछ गैर-जरूरी मुद्दे विमर्श में तैरने लगते हैं। पहले  सत्ताधारी दल के नेताओं-मंत्रियों के भड़काने वाले आक्रामक बयान आते हैं। फिर उन पर विरोधी दलों के नेताओं एवं अन्य कट्टरपंथी धर्मगुरुओं द्वारा सतही व उग्र प्रतिक्रियाएं दी जाती हैं। इस प्रकार मीडिया समूहों को मुर्गों और तीतरों की लड़ाईनुमा बहसों के आयोजन का अवसर मिल जाता है। कभी-कभी इस प्रहसन को अधिक विश्वसनीय बनाने के लिए सरकार कुछ विवादित नीति संबंधी घोषणाएं करती है। हम सब इस प्रक्रिया के अभ्यस्त हो चुके हैं।

आगामी उत्तर प्रदेश चुनाव एक ऐसा अवसर है जब जनसंख्या नियंत्रण जैसे आवश्यक मुद्दे का चुनावी उपयोग करने की कोशिश में उसे विवादित और गैर-जरूरी बना दिया गया है। इससे यह बोध होता है कि सरकार जनसंख्या स्थिरीकरण के प्रति जरा भी गंभीर नहीं है और उसका सारा ध्यान वोटों की राजनीति पर है।

प्रधानमंत्री मोदी ने 6 फरवरी 2013 को दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कहा था-

मेरा देश दुनिया का सबसे नौजवान देश है। हमारी 65 प्रतिशत जनसंख्या 35 साल से नीचे है। यूरोप बूढ़ा हो चुका है, चीन बूढ़ा हो चुका है। भारत विश्व में सबसे नौजवान देश है, इतने बड़े अवसर का हम उपयोग नहीं कर पा रहे हैं, यह सबसे बड़ी चुनौती है।

तब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद नवंबर 2014 में अपनी ऑस्ट्रेलिया यात्रा के दौरान उन्होंने कहा:

मुझे विश्वास है 35 साल से कम उम्र के 80 करोड़ भारतीय युवाओं के हुनर और ऊर्जा से हर भारतीय के भविष्य को बेहतर बनाया जा सकता है।

हाल ही में 16 जनवरी 2021 को कोविड टीकाकरण अभियान का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि जिस बड़ी आबादी को लोग भारत की सबसे बड़ी कमजोरी बता रहे थे वही सबसे बड़ी ताकत बन गयी। पुनः 17 फरवरी 2021 को नैसकॉम के टेक्नोलॉजी एवं लीडरशिप फोरम को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा-

भारत की इतनी बड़ी आबादी आपकी बहुत बड़ी ताकत है। बीते महीनों में हमने देखा है कि कैसे भारत के लोगों में टेक सॉल्यूशन्स के लिए बेसब्री बढ़ी है।

प्रधानमंत्री के इन सारे संबोधनों में हमारी जनसंख्या और विशेषकर युवा जनसंख्या को हमारी शक्ति बताया गया है। अपवादस्वरूप स्वतन्त्रता दिवस 2019 का उद्बोधन है जिसमें उन्होंने कहा था-

चुनौतियों को स्वीकार करने का वक्त आ चुका है। उसमें एक विषय है जनसंख्या वृद्धि। हमारे यहां बेतहाशा जनसंख्या विस्फोट हो रहा है। यह हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए नये संकट पैदा कर रहा है। हमारे देश में एक जागरूक वर्ग है जो इसे भली भांति समझता है… ये सभी सम्‍मान के अधिकारी हैं, ये आदर के अधिकारी हैं। छोटा परिवार रखकर भी वह देशभक्ति को ही प्रकट करते हैं… समाज के बाकी वर्ग, जो अभी भी इससे बाहर हैं, उनको जोड़कर जनसंख्‍या विस्‍फोट- इसकी हमें चिंता करनी ही होगी।

क्या इन उद्धरणों को पढ़ने के बाद हमें यह मान लेना चाहिए कि जनसंख्या के महत्वपूर्ण और जटिल प्रश्न पर प्रधानमंत्री दुविधा में हैं? अभी तक वे यह तय नहीं कर पाये हैं कि हमारी विशाल जनसंख्या वरदान है या अभिशाप। यदि इन परस्पर विरोधी कथनों में प्रधानमंत्री को कोई सामंजस्य दिखायी देता है तो उन्हें इस बारे में विस्तार से बताना चाहिए। क्या यह प्रधानमंत्री के असमंजस का ही परिणाम है कि  वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनजर जनता के साथ संवाद करके राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या स्थिरीकरण की कोई व्यापक, दबावरहित, सर्वस्वीकृत नीति तैयार नहीं की गयी है?

2020 में सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर केंद्र सरकार ने कहा था कि 2000 की जनसंख्या नीति के अनुसार  2018 में टोटल फर्टिलिटी रेट 3.2 फीसदी से घटकर 2.2 फीसदी रह गयी है। इस कमी के कारण देश में दो बच्चों की नीति नहीं आ सकती है। क्या केंद्र सरकार का अभिमत अब बदल गया है? क्या देश में जनसंख्या वृद्धि के पैटर्न में कोई ऐसा असाधारण बदलाव आया है जिससे केंद्र सरकार ही परिचित है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि प्रधानमंत्री जानते हैं कि जनसंख्या स्थिरीकरण का लक्ष्य जल्द ही प्राप्त हो जाएगा किंतु चुनावी राजनीति की मजबूरियां उन्हें इस मुद्दे को जीवित रखने पर मजबूर कर रही हैं?

उत्तर प्रदेश सरकार की जनसंख्या नीति क्या केंद्र की सहमति से बनायी गयी है और क्या यह पूरे देश की नीति बन सकती है? देश के अनेक राज्यों यथा- राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा आदि में अधिक संतानें होने पर विभिन्न स्तर के स्थानीय चुनावों में भाग लेने पर प्रतिबंध, सरकारी नौकरी की पात्रता गंवा देना तथा सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित कर दिया जाना जैसे प्रावधान पिछले अनेक वर्षों से हैं, किंतु केवल उत्तर प्रदेश की जनसंख्या नीति को ही चर्चा में बनाये रखने का मकसद क्या है?

यदि हम पिछले कुछ वर्षों में सत्ताधारी दल और उसकी विचारधारा का समर्थन करने वाले नेताओं-बुद्धिजीवियों-धर्मगुरुओं के बयानों का अध्ययन करें तो हमें जनसंख्या विषयक उनके दृष्टिकोण का ज्ञान होगा।

  • अक्टूबर 2016 में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा था कि हिंदुओं की जनसंख्या में लगातार कमी आ रही है… हमें  जनसंख्या बढ़ाने के लिए कोई भी कानून रोक नहीं सकता। देश के आठ राज्यों में हिन्दुओं की जनसंख्या निरन्तर घटती जा रही है। हिन्दुओं को अपनी जनसंख्या को बढ़ाने की जरूरत है। 
  • जनवरी 2017 में साक्षी महाराज ने मेरठ में एक संत सम्मेलन में कहा था- ”देश में बढ़ती जनसंख्या के कारण समस्याएं खड़ी हो रही हैं लेकिन इसके लिए हिन्दू जिम्मेदार नहीं हैं…।” जनवरी 2015 में भी उन्होंने ऐसे ही विचार व्यक्त किए थे।
  • जनवरी 2018 में अलवर से भाजपा के विधायक एमएल सिंघल ने कहा था कि ”हिन्दू केवल एक या दो बच्चों को जन्म दे रहे हैं और इस बात के लिए चिंतित हैं कि उनका लालन पालन कैसे करें जबकि मुसलमान देश पर कब्जा करने के ध्येय से ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं।”
  • उत्तर प्रदेश के भाजपा विधायक सुरेंद्र सिंह ने जुलाई 2018 में “हम दो हमारे पांच” का नारा दिया। भोपाल से भाजपा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने दिसंबर 2020 में सीहोर में एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि यह कानून उन लोगों पर लागू होना चाहिए जो राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल रहते हैं।
  • फरवरी 2021 में बिहार के बिस्फी के विधायक हरिभूषण ठाकुर ने कहा था कि बिहार में प्रजनन दर में कमी अवश्य आयी है किंतु ऐसा केवल हिन्दू परिवारों में हुआ है। कुछ लोग अपनी जनसंख्या बढ़ा कर देश पर कब्जा कर उसे इस्लामिक राष्ट्र में तब्दील करना चाहते हैं। 
  • जून 2021 में असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व शर्मा ने कहा कि ”हमारे प्रदेश में मुस्लिम आबादी 29 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है जबकि हिंदुओं के लिए यह दर 10 प्रतिशत है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि मुस्लिम समुदाय जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को अपनाए।”
  • जुलाई में मध्यप्रदेश के मंदसौर के भाजपा सांसद सुधीर गुप्ता ने कहा कि देश की आबादी को असंतुलित करने में आमिर खान जैसे लोगों का हाथ है। 
  • जुलाई में ही बीजेपी नेता ज्ञानदेव आहूजा ने जनसंख्या नियंत्रण बिल पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि एक समुदाय विशेष ने जनसंख्या बढ़ाने का निश्चय कर लिया है।

क्या सरकार इन बयानों से सहमत है? यदि नहीं तो क्या वह इनकी निंदा करेगी और बयान देने वालों को पार्टी से बाहर किया जाएगा? कट्टरपंथी शक्तियां पिछले कुछ वर्षों से सुनियोजित रूप से जनसंख्या विषयक भ्रम फैलाती रही हैं। इन भ्रमों का निवारण करने के लिए हमें कुछ तथ्यों का ज्ञान होना चाहिए। भारत अब जनसंख्या विस्फोट की स्थिति से बाहर आ चुका है। वैश्विक स्तर पर जनसंख्या को स्थिर करने हेतु 2.1 प्रतिशत की प्रजनन दर को रिप्लेसमेंट रेट माना गया है अर्थात यदि एक महिला औसतन 2.1 बच्चे पैदा करेगी तो विश्व की जनसंख्या स्थिर बनी रहेगी। 

हमारे पास एनएफएचएस 5 के नवीनतम आंकड़े आ चुके हैं। एनएफएचएस 5 के तहत प्रथम चरण में जिन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का सर्वेक्षण किया गया उनमें से लगभग सभी में एनएफएचएस 4 के बाद से कुल प्रजनन दर में कमी आयी है। एनएफएचएस-5 के अनुसार देश की कुल प्रजनन दर 2.2 है। कुल 22 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में से 19 में प्रजनन दर घटकर (2.1) पर आ गयी है। केवल तीन राज्यों- मणिपुर (2.2), मेघालय (2.9) और बिहार (3.0) में यह दर अभी भी निर्धारित प्रतिस्थापन स्तर से ऊपर है।

गर्भनिरोधक प्रसार दर में अधिकांश राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में काफी वृद्धि हुई है। यह हिमाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल (74%) सर्वाधिक है। प्रायः समस्त राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में गर्भनिरोध के आधुनिक तरीकों के उपयोग में वृद्धि देखी गयी है। 

एनएफएचएस 5 के आंकड़े कट्टरपंथी ताकतों द्वारा फैलाये जा रहे भ्रम को पूरी तरह खंडित कर देते हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के अनुसार नौ राज्यों (आंध्र प्रदेश, गोआ, गुजरात, बिहार, हिमाचल प्रदेश,जम्मू कश्मीर, कर्नाटक एवं केरल) में से सिर्फ दो राज्यों में ही मुस्लिम समुदाय में प्रजनन दर रिप्लेसमेंट रेट से अधिक है। ये राज्य केरल (2.3) और बिहार (3.6) हैं। 

हेमंत बिस्व शर्मा के दावे के विपरीत एनएफएचएस 2005-06 की तुलना में 2019-20 में असम में मुस्लिमों की प्रजनन दर में असाधारण कमी देखने को मिली है। असम में मुस्लिम समुदाय में कुल प्रजनन दर 2.4 है, जबकि 2005-06 में यह 3.6 थी। वर्तमान प्रजनन दर रिप्लेसमेंट स्तर से जरा सी ही अधिक है।

एनएफएचएस के नवीनतम आंकड़े उस उक्ति को सिद्ध करते हैं कि विकास सर्वश्रेष्ठ गर्भनिरोधक है। बिहार जैसे राज्यों में खराब विकास सूचकांकों के कारण हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए प्रजनन दर अधिक है। बेहतर विकास सूचकांकों के साथ जम्मू कश्मीर में दोनों समुदायों की प्रजनन दर कम है। साक्षरता एवं सामाजिक आर्थिक पिछड़ेपन का स्तर,  ग्रामीण अथवा शहरी इलाकों में निवास ऐसे कारक हैं जिनका प्रजनन दर से सीधा संबंध है। यह सौभाग्य की बात है कि हमारे देश के निवासी परिवार बढ़ाने के विषय में कट्टर धर्मगुरुओं की बिल्कुल नहीं सुनते। 

यदि किसी राज्य में मुसलमानों की प्रजनन दर अधिक है तो इससे केवल यह सिद्ध होता है कि वे विकास के हर मानक पर पीछे हैं। उनका पिछड़ापन न कि धार्मिक कट्टरता उनकी अधिक प्रजनन दर का कारण है। सरकारी नौकरियों और संसद-विधानसभाओं में उनकी भागीदारी उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं है। मुस्लिम बहुल इलाकों से मुस्लिम जनप्रतिनिधियों के जीतने की वायरल पोस्ट्स फैक्ट चेक में अधिकांशतया झूठी पायी गयी हैं। इनमें कहीं जनसंख्या के प्रतिशत से छेड़छाड़ की गयी है तो कहीं जनप्रतिनिधियों के नाम से। उन बहुत से निर्वाचन क्षेत्रों का जिक्र नहीं है जहां मुस्लिम बहुल आबादी से हिन्दू जनप्रतिनिधि जीतते रहे हैं। कई इलाकों में दोनों समुदायों के जनप्रतिनिधि बारी-बारी से जीतते हैं क्योंकि जनता हर चुनाव में दूसरे दल को चुनती है।

2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में मुस्लिम आबादी 14.2 प्रतिशत थी। 2019 के लोकसभा चुनावों  में राजनीतिक दलों ने केवल 8 प्रतिशत मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिया था। यह 2014 के 10 प्रतिशत से भी कम है। मई 2019 के पूर्व देश के सभी 28 राज्यों में हुए अंतिम दौर के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने  केवल 22 मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिया था जिसमें से केवल 3 को जीत मिली। इन राज्यों में बीजेपी के 1282 विधायक हैं।

एनएफएचएस 5 के आंकड़े अप्रत्याशित नहीं हैं। पूर्व के आंकड़ों से तुलना करने पर दोनों समुदायों की प्रजनन दर में लगातार क्रमिक गिरावट दिखायी देती है। 2011 की जनगणना के आंकड़े भी यही संकेत देते हैं। स्वयं केंद्र सरकार की इकॉनॉमिक सर्वे रिपोर्ट 2018-19 में “वर्ष 2040 में भारत की जनसंख्या” नामक अध्याय में यह बताया गया है कि भारत के दक्षिणी राज्यों एवं पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, असम, पंजाब, हिमाचल प्रदेश में जनसंख्या वृद्धि की दर 1 प्रतिशत से कम है। जिन राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर अधिक थी, वहां भी इसमें कमी देखने में आयी है। बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में तो खासकर जनसंख्या वृद्धि दर में अच्छी गिरावट आयी है। आने वाले दो दशकों में जनसंख्या वृद्धि की दर तेजी से कम होगी और अनेक राज्य तो वृद्धावस्था की ओर अग्रसर समुदाय का स्वरूप ग्रहण कर लेंगे। यह सर्वे रिपोर्ट नीति निर्माताओं को यह सुझाव देती है कि वे वृद्धावस्था की ओर अग्रसर समाज के लिए नीतियां बनाने हेतु तैयार रहें।

जहां तक मुस्लिम समुदाय के इस देश में बहुसंख्यक बनने का प्रश्न है प्यू इंटरनेशनल की 2015 की जिस रिपोर्ट का हवाला कट्टरपंथियों द्वारा  दिया जाता है उसके अनुसार भी वर्ष 2050 तक मुस्लिम जनसंख्या देश की कुल आबादी के 18.4 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।

देश की जनसंख्या नीति अब तक सहमति और जनशिक्षण पर आधारित थी, यदि इसका स्वरूप दंडात्मक बना दिया जाएगा तो यह स्त्रियों के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। कन्या भ्रूण की हत्या के मामलों में वृद्धि तथा असुरक्षित गर्भपात के मामले बढ़ सकते हैं, लिंगानुपात गड़बड़ा सकता है। 

उत्तर प्रदेश सरकार की जनसंख्या नीति विभिन्न समुदायों के मध्य “जनसंख्या संतुलन” स्थापित करने का लक्ष्य रखती है। क्या सरकार तथ्यों के आधार पर नहीं बल्कि उस परसेप्शन के आधार पर चल रही है जो उसकी राजनीति के अनुकूल है? यह आशंका बनी रहेगी  कि  “जनसंख्या संतुलन” लाने के बहाने अल्पसंख्यक समुदाय को प्रताड़ित किया जा सकता है। चरम निर्धनता के शिकार, अशिक्षित, सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों से सब्सिडी छीनना, उन्हें राशन से वंचित करना तथा उन पर जुर्माना लगाना अनुचित एवं अमानवीय है। 

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जनसंख्या नियंत्रण के संबंध में जो भी नीति बनायी जाती है उसका आधार प्रादेशिक विकास परिदृश्य होना चाहिए न कि कुछ धार्मिक समुदायों के विरुद्ध तथ्यहीन दुष्प्रचार। यह दुष्प्रचार बहुसंख्यक समुदाय के कुछ  कट्टरपंथियों  को परपीड़क आनंद अवश्य दे सकता है। वे इस कल्पना से आनंदित हो सकते हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय ऐसी किसी जनसंख्या नीति से अधिक पीड़ित होगा। सरकार को यह समझना होगा कि जनसंख्या के विमर्श में धर्म की एंट्री का एक ही परिणाम हो सकता है, वह है जनसंख्यात्मक वर्चस्व स्थापित करने के लिए अपने धार्मिक समुदाय की आबादी बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा।

सभी धर्मों में गर्भनिरोधकों आदि के प्रयोग और संतानोत्पत्ति पर वैज्ञानिक नियंत्रण का निषेध किया गया है। विभिन्न धर्मों  के कुछ प्रगतिशील व्याख्याकारों ने जनसंख्या नियंत्रण विषयक कुछ धार्मिक दृष्टान्त तलाशे हैं किंतु यह उन धर्मों के मूल भाव से असंगत हैं और इनसे उन प्रगतिशील व्याख्याकारों की सदिच्छा ही झलकती है।

महिलाएं अपने परिवार के आकार और दो संतानों के बीच अंतर को तय करने की निर्णय प्रक्रिया से बाहर रखी जाती हैं। परिवार नियोजित रखने की पूरी जिम्मेदारी महिलाओं पर थोप दी गयी है। चाहे वह गर्भनिरोधकों के प्रयोग के आंकड़े हों या फिर नसबंदी के आंकड़े-  जनसंख्या नियंत्रण में पुरुषों की भागीदारी नगण्य है। यहां तक कि सरकारी बजट में भी पुरुष नसबंदी हेतु नाममात्र का प्रावधान  किया जाता है। सरकार को जनसंख्या के विमर्श को पितृसत्ता की जकड़ से बाहर निकालना चाहिए।

सरकार को यह स्वीकारना होगा  कि भारत के जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम का स्वैच्छिक प्रजातांत्रिक स्वरूप भारत की जनसंख्या में एक संतुलित कमी लाने में सहायक रहा है। यही कारण है कि हमारी 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम आयु की है जबकि चीन में- जहां पर दबाव आधारित वन चाइल्ड पालिसी अपनायी गयी- वहां की जनसंख्या असंतुलित रूप से कम हो गयी और एक बड़ी आबादी समृद्धि के दर्शन करने से पूर्व ही वृद्ध होने वाली है।   


डॉक्टर राजू पाण्डे छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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