कोविड-19 महामारी के कारण हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई के लिये जी20 देशों द्वारा इकोनोमिक रिकवरी या आर्थिक पुनरुत्थान के नाम पर जम कर कोयले, तेल और गैस से सम्बन्धित परियोजनाओं में भारी निवेश किये जा रहे हैं और इससे पर्यावरण से, कोविड-पूर्व, मिलने वाले सकारात्मक रुझानों पर अब खतरा मंडराता नज़र आ रहा है। ये चुनिन्दा अर्थव्यवस्थाएं कोविड-19 रिकवरी पैकेज का एक बड़ा हिस्सा जीवाश्म ईंधन से जुड़े उद्योगों में खर्च कर रही हैं, जिससे अगले 10 सालों में हरित ऊर्जा को सौ फ़ीसद अपनाने में अच्छी ख़ासी रुकावटें पैदा होगी। ऐसा कहना है जी20 देशों के 14 थिंक टैंक के सालाना समझौते के तहत प्रकाशित 2020 क्लाइमेट ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट का।
इस रिपोर्ट में तमाम महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले गये हैं और अगर बात फ़िलहाल भारत की ही करें तो कोविड-19 महामारी ने भारत की अर्थव्यवस्था को एक प्रकार की आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों से अवगत कराया। मई 2020 में, प्रधानमंत्री मोदी की USD 266bn कोविड19 – राहत पैकेज भारत की वार्षिक GDP का लगभग 10% था, लेकिन इसमें जलवायु को प्रभावित करने वाले कोई पर्याप्त निवेश नहीं थे। अब आगे दिए जाने वाली राहत को पुनर्निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, बिजली क्षेत्र, परिवहन और शहरी नियोजन में एनर्जी ट्रांजीशन को तेज़ी देना चाहिए। इसके बिना, लॉकडाउन से उत्सर्जन में गिरावट की संभावना ग्रीन रिकवरी के बिना फिर से बढ़ेगी।
Climate-Transparency-Report-2020भारत का प्रति कैपिटा ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन, G20 के औसत से काफी नीचे है पर भारत के उत्सर्जन में पिछले एक दशक में तेजी से वृद्धि हुई है और इसके और ज़्यादा तेज़ी से बढ़ने का अनुमान है। भारत विभिन्न राजकोषीय नीतियों के माध्यम से कोयला टैक्स और सब्सिडी दोनों देता है। कोयला को दी जाने वाली सब्सिडी, उसकी जगह रिन्यूएबिल्स को देने से लागत बचत हो सकती है और हवा की गुणवत्ता में सुधार जैसे महत्वपूर्ण सह-लाभ भी होंगे। उसके पास वर्तमान में कोयले को चरणबद्ध रूप से ख़त्म करने की कोई योजना नहीं है। भारत को कोल फेज-आउट के लिए एक रोडमैप विकसित करने की सख्त ज़रूरत है, हालांकि ऐसा करने से कोयला खनन में लगे मजदूरों और समुदायों के साथ साथ थर्मल पॉवर में काम कर रहे लोगों की नौकरियों पर असर पड़ेगा और इस बात को ध्यान में रख कर बदलाव करना होगा ।
भारत का परिवहन क्षेत्र वर्तमान में अपनी ऊर्जा संबंधित C02 उत्सर्जन के 14% के लिए जिम्मेदार, एक तेजी से बढ़ता हुआ क्षेत्र है जिसमें वाहन स्वामित्व तेज़ी से बढ़ रहा है और सरकार को EVs की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए मजबूत कार्रवाई करने और 2030 तक 30% इलेक्ट्रिक वाहनों के अपने लक्ष्य को पूरा करने का अवसर प्रदान करता है।
वैश्विक 1.5° C IPCC परिदृश्यों के साथ संगत होने और अपनी सीमा के अंदर के लिए भारत को 2030 तक उत्सर्जन में वृद्धि को 4.597 MtCO2e (मिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन) से कम करने और उसे 2050 तक 3.389 MtCO2e की सीमा में लाने की ज़रूरत है। भारत ने अपना 2030 NDC (राष्ट्रीय स्तर पर स्व-निर्धारित कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने का लक्ष्य) केवल 6,034 MtCO2e और 6,203 MtCO2e के बीच अपने उत्सर्जन को सीमित करना रखा है ।
भारत एक वैश्विक नेता बन सकता है, अगर वह नए कोयले से चलने वाली बिजली बनाने की योजनाओं को छोड़ दे और 2040 तक बिजली के लिए कोयले के उपयोग को चरणबद्ध कर देता है। यह आंकड़े भूमि के उपयोग के उत्सर्जन को छोड़कर पूर्व-कोविड-19 अनुमानों पर आधारित हैं।
अपनी प्रतिक्रिया देते हुए क्लाइमेट एनालीटिक्स के डॉक्टर किम कोत्जी ने कहा, “देशों की प्रोफाइल ही यह बताने के लिये काफी है कि उन्होंने वर्ष 2019 में जलवायु को बचाने के लिये क्या किया और क्या नहीं किया। अब सरकारों को अपनी नीतियों, निवेशों और भरपाई के प्रयासों को उत्सर्जन सम्बन्धी अपने दीर्घकालिक लक्ष्यों के अनुरूप ढालना ही होगा।”
यह रिपोर्ट जी20 देशों के नेताओं को अपने यहां विभिन्न क्षेत्रों को कार्बनमुक्त करने के लिये प्रेरणा तथा प्रोत्साहन देने के सिलसिले में व्यापक नजरिया उपलब्ध कराती है। इस रिपोर्ट में जलवायु अनुकूलन, प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में कमी और वित्तपोषण के करीब 100 पैमानों पर जी20 देशों के प्रदर्शन का विश्लेषण किया गया है। क्लाइमेट ट्रांसपेरेंसी द्वारा की गयी छठी सालाना समीक्षा में कोविड-19 संकट को लेकर जी20 देशों द्वारा दी गयी प्रतिक्रिया और वर्ष 2020 के लिये उत्सर्जन सम्बन्धी ताजा डेटा और अनुमानों को समर्पित एक अतिरिक्त अध्याय भी शामिल है। पूरी दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में जी20 देशों की हिस्सेदारी 75 प्रतिशत है।
वर्ष 2020 के संस्करण में जलवायु संरक्षण के मामले में जी20 देशों के प्रदर्शन का आकलन करने के साथ-साथ कोविड-19 संकट के प्रभावों और उन्हें लेकर सरकारों द्वारा उठाये गये कदमों के विश्लेषण को भी शामिल किया गया है। वर्ष 2019 में ऊर्जा सम्बन्धी उत्सर्जन में वृद्धि के दीर्घकालिक रुख में उल्लेखनीय कमी आने के साथ-साथ जी20 देशों में अक्षय ऊर्जा का एक रफ्तार से विकास भी हुआ है मगर अनुसंधानकर्ताओं ने आगाह किया है कि सरकारों द्वारा जीवाश्म ईंधन सम्बन्धी परियोजनाओं को दिया जा रहा बिना शर्त समर्थन और महामारी के कारण हुए नुकसान की भरपाई के उनके मौजूदा प्रयासों को देखते हुए कोविड-पूर्व के सकारात्मक रुख को नुकसान का खतरा पैदा हो रहा है।
वहीँ ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट की डॉक्टर शार्लीन वॉटसन कहती हैं, ‘‘जी20 देशों के कम से कम 19 देशों ने अपने घरेलू तेल, कोयला तथा/अथवा गैस क्षेत्रों को वित्तीय सहयोग देने का फैसला किया है। इसके अलावा 14 देशों ने जलवायु संरक्षण सम्बन्धी शर्तें लगाये बगैर अपनी राष्ट्रीय विमानन कम्पनियों को वित्तीय मदद देने का निर्णय लिया है।”
“सिर्फ चार जी20 देशों ने ही जीवाश्म ईंधन से जुड़ी परियोजनाओं या प्रदूषण फैलाने वाले अन्य उद्योगों के मुकाबले ग्रीन सेक्टरों को ज्यादा धन दिया है। रिकवरी पैकेज या तो जलवायु संकट का समाधान करते हैं, या फिर हालात को और भी खराब कर सकते हैं। जी20 देशों के कुछ सदस्य, जैसे कि यूरोपीय यूनियन, फ्रांस तथा जर्मनी जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों से खुद को बचाते हुए अधिक सतत अर्थव्यवस्था का निर्माण कर अच्छा उदाहरण पेश कर रहे हैं। वहीं, अन्य देश जीवाश्म ईंधन को अत्यधिक समर्थन करके हाल में बने अच्छे माहौल को खराब करने का खतरा पैदा कर रहे हैं।”
इस रिपोर्ट पर इनीशिटिवा क्लाइमैटिका द मेक्सिको के जॉर्ज विलारियाल ने कहा, ‘‘महामारी से पहले ऊर्जा से संबंधित कुछ क्षेत्रों में जलवायु संरक्षण सम्बन्धी कदमों के परिणाम सामने आ रहे थे और संकट ने जी20 के ज्यादातर देशों में उन रुझानों को एक-दूसरे से जोड़ा है, लेकिन अगर जलवायु संरक्षण की दिशा में और आगे कदम नहीं बढ़ाये गये तो वे सकारात्मक प्रभाव महज क्षणिक साबित होंगे और वातावरण में सीओ2 की मात्रा में बढ़ोत्तरी का सिलसिला जारी रहेगा। आने वाले महीनों में राजनीतिक पसंद से यह तय होगा कि जी20 देश उत्सर्जन के ग्राफ को सतत रूप से झुकाने में कामयाब हो पाएंगे या नहीं।”
चीन, दक्षिण अफ्रीका, जापान और दक्षिण कोरिया इस सदी के मध्य तक कार्बन से मुक्ति पाने की दौड़ में हाल ही में शामिल हुए हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाले सबसे बड़े देशों में शामिल मुल्कों में जलवायु सम्बन्धी मुश्किल लक्ष्यों को हासिल करने के लिये जरूरी रफ्तार बन रही है। हालांकि अल्पकालीन नीतियां और निवेश अब भी दीर्घकालिक योजनाओं के अनुरूप नहीं हैं।
यह तब है जब वैश्विक तापमान में वृद्धि का आंकड़ा 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच रहा है और परिणामस्वरूप तपिश, जंगलों की आग और बाढ़ जैसी जलवायु सम्बन्धी चरम स्थितियों के कारण जी20 देशों में हालात अपेक्षाकृत बदतर हो जाएंगे। वैश्विक तापमान में डेढ़ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी की स्थिति में जी20 देशों में से ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, फ्रांस, इटली, मेक्सिको, तुर्की, भारत, सऊदी अरब और दक्षिण अफ्रीका पर वैश्विक अनुमानों के मुकाबले कहीं ज्यादा बुरा असर पड़ने का खतरा है। विश्लेषण में इस महत्वपूर्ण अंतर की भी पहचान की गयी है कि कैसे सरकारें कार्बन से मुक्ति पाने की चुनौती पर प्रतिक्रिया दे रही हैं।
उदाहरण के तौर पर जापान, फ्रांस, ब्रिटेन और कनाडा जीवाश्म ईंधन से चलने वाली कारों को चरणबद्ध ढंग से इस्तेमाल से बाहर करने की तिथियां तय कर चुके हैं। वहीं, ट्रम्प प्रशासन ने वाहनों से निकलने वाले प्रदूषण को कम करने सम्बन्धी नियम वापस ले लिये। जी20 में शामिल 18 देशों ने अपनी कार्बन प्राइसिंग योजनाओं को या तो लागू कर दिया है, या फिर ऐसा करने की प्रक्रिया में हैं, जबकि भारत और ऑस्ट्रेलिया ने ऐसी कोई योजना ही नहीं बनायी है। इसके अलावा कनाडा, फ्रांस और ब्रिटेन ने जहां कोयले के लिये सार्वजनिक वित्तपोषण पर जहां पूरी तरह पाबंदी लगा दी है, वहीं चीन, भारत, इंडोनेशिया, रूस तथा दक्षिण अफ्रीका ने ऐसे कोई प्रतिबंध नहीं लगाये हैं।
हम्बोल्ट–वियाड्रिना गवर्नेंस प्लेटफॉर्म की कैटरीना गोडिन्यो ने कहा “हमें आगामी जी20 समिट और अगले साल होने वाली यूएन क्लाइमेट कांफ्रेंस में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों और सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले मुल्कों की जलवायु संरक्षण के प्रति बढ़ी हुई प्रतिबद्धताओं और नेतृत्व की फौरन जरूरत है। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों से जलवायु को लेकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कुछ उम्मीद जागी है, मगर जी20 में शामिल सभी देशों को भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभानी होगी।”
Climateकहानी के सौजन्य से