थोड़ी पुरानी बात है। ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में श्वार्ज़नबर्ग कैफे से मैं बाहर निकल ही रहा था कि किसी ने मुझे आवाज़ दी। शहर के लगभग बीचोंबीच 1861 से कार्टनर रिंग पर खड़ा वही विख्यात कैफ़े जहां दुनिया भर के नामचीन कलाकारों, दार्शनिकों और राजनेताओं की इतिहास के उथलपुथल में बितायी शामों के किस्से बिखरे पड़े हैं। मुझे पुकारने वाले शख्स ने बताया कि मैंने अपना थैला अन्दर ही छोड़ दिया है। मैंने उसे धन्यवाद कहा और अपना बस्ता उठाकर चल दिया। अपनी कॉफ़ी खत्मकर यूं ही टहलते हुए मैं शिलरप्लात्ज़ चौराहे की तरफ बढ़ा, जिसके एक तरफ एकेडेमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स नाम का वो आलीशान स्कूल है जिसके बारे में कहा जाता है कि अगर वहां के पेंटिंग कोर्स के एंट्रेंस एग्ज़ाम में हिटलर अगर अपनी जवानी में फेल न हुआ होता तो यूरोप और शायद दुनिया का इतिहास कुछ और होता।
वैसे तो संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्य दफ्तर न्यूयार्क शहर में है, लेकिन पर्यावरण मामलों, शरणार्थियों, सूचना सेवाओं और इसी तरह के कई अन्य विभागों के कार्यालय उस वियना शहर में हैं। दुनिया भर में एटमी तकनीक से जुड़े मामलों की निगरानी करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (IAEA) का दफ्तर भी वहीं है। जैसे अस्पतालों में हर चीज हरे-उजले रंग की होने का अपना मकसद होता है, वैसे ही राजदूतों और शिष्टमंडलों की दुनिया में नफीस सादगी ओढ़े हुई चीजों की ठसक तैरती रहती है। चाहे किन्हीं देशों के बीच युद्ध हों, मानवाधिकार के सवाल हों, सीमाओं का टंटा हो, व्यापारिक हितों का कोई बखेड़ा या फिर आजकल चल रही जलवायु परिवर्तन की कशमकश, इस दायरे में हर मुद्दे पर बातचीत और फैसले वैसे ही किसी क्लिनिक या लैब जैसी नियंत्रित खामोशी के बीच लिए जाते हैं। उस दिन सुबह मैं उसी दफ्तर में गया था और उसी सन्दर्भ में कई दस्तावेजों की प्रतियां इकट्ठा की थी जिनसे एक पूरा थैला भर आया था। इनमें से ज़्यादातर दस्तावेजों का ताल्लुक हमारे मुल्क के ‘न्यू इण्डिया’ में तब्दील होने से ठीक पहले के उस संक्रमणकाल से है जिसे ‘भारत-अमेरिका परमाणु डील’ का दौर कहा जाता है जिसकी गतिविधियों का एक बड़ा केंद्र तब वियना शहर था।
शाम का धुंधलका थोड़ा और बढ़ा तो मैं एक पार्क में थोड़ा सुस्ताने बैठ गया। पता नहीं कैफे में उस शख्स ने मेरा थैला बदल दिया था या थकान का असर हुआ था। डिप्लोमैटिक दस्तावेजों के थैले में वैसे तो सब कुछ जैसे सैनिटाइज्ड होता है, लेकिन अचानक लगा मेरे थैले में कुछ चीजें थीं जिनमें गंध भी थी, स्वाद भी, संगीत भी, रौशनी भी, अँधेरा भी और तस्वीरें भी।
मैं पिछले कुछ समय से इन्हीं चीजों को ठीक से जमाने में लगा हूं ताकि इनमें दर्ज कहानियां और सूत्र एक साथ जुड़ पाएं। चूंकि आज (18 जुलाई 2005 को भारत-अमेरिका परमाणु संधि हुई थी) संयोगवश परमाणु डील की बरसी है, इसलिए उस थैले की कुछ दिलचस्प चीजों के ब्यौरे बिना किसी ख़ास क्रम में सजाये आपसे साझा कर रहा हूं। इस फेहरिस्त की चीजों में आपको आज के भारत की तस्वीरों के टुकड़े दिखें, उनकी तुक मिले, तो मुझे भी बताएं:
- नेपाली गीतों की एक सीडी: परमाणु डील की मार्फ़त महाराष्ट्र के जैतापुर में फ्रांस से मिली तकनीक से बना दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु कारखाना लगना तय हुआ, जिसका मतलब था वहां के मछुआरों और उनकी नावों सहित वहां दिन-रात काम करने वाले नेपाल के हज़ारों प्रवासी मजदूरों की जीविका का छिन जाना। अपने मुल्क से इतनी दूर अरब सागर में नावों पर काम करने वाले लोगों के साथ बितायी शाम मुझे याद आयी, जो अब पता नहीं कहां होंगे।
- पांच सौ के पुराने नोटों की एक गड्डी: जो भारतीय इतिहास में पहली बार परमाणु डील के दौरान संसद के अन्दर लहरायी गयी थी। 2008 के अविश्वास प्रस्ताव में इस बात का पर्दाफ़ाश हुआ था कि सरकार बचाने के लिए नोट लुटाये गये थे।
- अमर सिंह का फोन: जिसका इस्तेमाल उन्होंने संसद के उसी वोट के दौरान रातोंरात समाजवादी पार्टी को वामपंथ का साथ छोड़कर मनमोहन सिंह की सरकार के साथ खड़ा होने के लिए किया।
- हिरोशिमा-नागासाकी के बुजुर्गों की चिट्ठियां: जिनका मानना रहा है कि जैसे पुराने समय में नदियों के किनारे शहर और तीर्थ बसते थे, वैसे ही परमाणु और मिलिटरी उद्यमों की धमनियों से अलोकतांत्रिक व अमानवीय देश बनते हैं। ऐसे ही नेटवर्कों का अंतर्राष्ट्रीय केंद्र वियना में है, जहां जापान से परमाणु बम का दंश झेल चुके लोगों ने भारत से इस कारोबार से दूर रहने की गुहार लगायी थी।
नरेंद्र मोदी के नाम फुकुशिमा से एक पत्र
- कलावती का बल्ब: महाराष्ट्र की विधवा कलावती जिसके घर में बल्ब जलने की बात तब राहुल गांधी ने संसद में की थी और उसके लिए परमाणु बिजली की हिमायत की थी।
- ताम्बे का एक बड़ा गिलास: जिसमें हरियाणा के फतेहाबाद में छाछ पीते हुए तब जेनरल वीके सिंह ने किसानों को वादा किया था कि वे उनकी ज़मीन परमाणु कारखाने के लिए छिनने नहीं देंगे। इस घटना का साक्षी मैं भी था और जनरल साब के साथ प्रेस को संबोधित किया था। फिर भाजपा की सरकार आयी और साहब वज़ीर हो गए।
- योगेन्द्र यादव को भेजी अपीलें: हरियाणा केउन्हींकिसानों की तरफ से, कि वे परमाणु-विरोधी आंदोलन का समर्थन करें। उन वर्षों में हरियाणा में ‘आम आदमी पार्टी’ का चुनावी विस्तार करने में लगे योगेन्द्र जी ने तब कोई जवाब नहीं दिया था।
- भाजपा की बुकलेट: जिसमें उसने परमाणु डील को देश के साथ गद्दारी बताया था, और जो अब उसकी वेबसाइट से गायब है। उन्हीं डीलों को पहले से भी ज्यादा कमज़ोर शर्तों पर आगे बढ़ाने का जोर-शोर से बखान अब उसी वेबसाइट पर है।
- कंगारू की पूंछ: जिसने दक्षिण आस्ट्रेलिया के सुदूर आदिवासी इलाके में गुजरी मेरी एक शाम की याद दिलायी, जहां आग के चारों तरफ बैठकर हुई मीटिंग में स्थानीय लोगों ने अपील की कि उनके इलाके की युरेनियम से भारत का पर्यावरण न तबाह किया जाए। कंगारू की पूंछ को उसी आग पर पका कर साथ खाने का रिवाज है वहां। आदिम कहे जाने वाले उस समाज की यह सभ्यता थी कि उन्होंने ऐसी ही युरेनियम सप्लाई से जापान में हुई फुकुशिमा दुर्घटना के लिए सामुदायिक माफ़ी मांगी थी, जबकि सरकारों ने कभी ऐसी जिम्मेवारी नहीं ली।
- पीले रंग की कई बैलूनें: जिन पर अपने इलाके को बचाने के संदेशे लिख कर जैतापुर के छोटे बच्चों ने आसमान के सुपुर्द किया था।
- सीवी रमन की किताब: भारत के नोबेल विजेता भौतिकीविद, जिन्होंने वैज्ञानिकों को परमाणु बम बनाने के बजाय भूखे मर जाने की हिदायत दी थी। कहते हैं कलाम साहेब ने यह किताब कभी लालटेन की रौशनी में पढ़ी थी, लेकिन फिर भी…।
- पूरे दो पन्ने का अखबारी लेख: जिसे तब ‘द हिन्दू’ अखबार के सम्पादक रहे और आजकल के एक क्रांतिकारी सम्पादक ने छापा था, जिसमें कलाम साहब ने सरकार की तरफ से कुडनकुलम में बन रहे अणु बिजलीघर की हिमायत की थी। जब कई वरिष्ठ स्वतंत्र वैज्ञानिकों ने इसका प्रत्युत्तर लिखना चाहा तो सम्पादक जी ने छापने से मना कर दिया था।
- एक अदद अलफांसो आम: जो कोंकण की बेशकीमती नस्ल है, जिसके जैतापुर प्लांट लगने पर दुर्लभ हो जाने की चेतावनी वनस्पतिशास्त्रियों ने दी है।
- गुजरात दंगे की फाइलें: डील पर भाजपा के समर्थन के बदले नरेंद्र मोदी के खिलाफ चले केसों को कांग्रेस की सरकार द्वारा ढीला करने का आरोप तब केंद्र में मंत्री रहे लालू यादव ने लगाया था।
- भारत-ईरान गैस पाइपलाइन का नक्शा: जिसकी पूरी योजना तैयार थी और इससे एशियाई मेलजोल में तेजी आती लेकिन अमेरिका ने इसके बजाय भारत को परमाणु तकनीक खरीदने पर राजी कर लिया और वह क्षेत्रीय सहयोग ठंडे बस्ते में पहुँच गया।
- एक एयर-टिकट: जिसका ज़िक्र परमाणु ऊर्जा आयोग के सुप्रीमो डॉ. अनिल काकोदकर ने रिटायरमेंट के बाद अपनी जीवनी में किया है। उन्होंने स्वीकार किया है कि परमाणु डील की जानकारी खुद उन्हें और परमाणु विभाग को नहीं थी। अमेरिका को खुश करने के लिए सरकार ने डील की और वैज्ञानिकों से बाद में हामी भरवायी। काकोदकर उस वक्त चीन में थे, उन्हें अचानक अमेरिका बुला लिया गया था।
- भोपाल के पीड़ितों की चिट्ठी: जो उन्होंने भारतीय सांसदों के साथ-साथ विदेशी सरकारों को लिखी थी। अपने भयावह अनुभव का हवाला देकर चेताया था कि परमाणु दुर्घटना में हालत ज्यादा बुरी होगी और विदेशी कंपनी बिना मुआवजा दिये चल देगी।
भोपाल गैस कांड के पीडि़तों की मोदी द्वारा घृणित उपेक्षा के खिलाफ़ नागरिकों का बयान
- वीकिलीक्स के केबल: डील से जुड़े गुप्त दस्तावेज, जिनके सनसनीखेज खुलासों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस्तीफे की मांग हुई थी।
- एक क्रिकेट मैडल: जिसके लिए जैतापुर आंदोलन की शांतिपूर्ण रैली में पुलिस की गोली से शहीद अपने गाँव के तबरेज सयेकर की स्मृति में हर साल लोकल क्रिकेट आयोजित करते हैं।
- हाथ की कढ़ाई से बनी चादर: जिसेजापान की औरतों ने मिलकर बनाया और हिन्दुस्तान भेजा, जब मनमोहन सरकार ने उन्हें देश में घुसने नहीं दिया ताकि वे भारत के लोगों को फुकुशिमा परमाणु दुर्घटना का सच न बता पाएं।
- देशद्रोह के मुकदमे: जो अब तो आम हो गए हैं लेकिनफिर भी यह ऐतिहासिक था कि भारत के सुदूर दक्षिणी छोर पर स्थित एक पूरे गाँव की आठ हज़ार लोगों की आबादी पर देशद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध चलाने के केस तत्कालीन लिबरल सरकार ने लगाये थे।
- लेफ्ट पार्टियों के झंडे: जिन्होंने परमाणु डील का जबरदस्त विरोध किया, अपने इतिहास की सबसे अधिक संसदीय सीटों के बावजूद सरकार से बाहर हो गए, लेकिन इस विरोध की भाषा विदेश-नीति तक सीमित थी। असल में, वामपंथी पार्टियों को परमाणु संयंत्रों और नंदीग्राम-सिंगुर किस्म के ‘विकास’ से कोई विरोध नहीं था इसलिए उन्होंने ज़मीनी आन्दोलनों से दूरी बनाये रखी बल्कि कई जगह उनका विरोध भी किया। मैंने तब 2008 में ईपीडब्ल्यू में इस बाबत एक लेख लिखा था।
- प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान: उन वर्षों में परमाणु-विरोधी आंदोलन तमिलनाडु के कुडनकुलम में भी चल रहे थे जहां रूस-आयातित कारखाना लग रहा था, गुजरात के मीठीविर्दी और आंध्र के कोवाडा में भी जहां अमेरिका की कंपनी का प्रोजेक्ट प्रस्तावित था और महाराष्ट्र में भी जहां के लोगों पर फ्रांस अपना न्यूक्लियर प्रयोग कर रहा है, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार ने परमाणु-विरोधी आन्दोलनों को ‘बाहरी ताकतें’ बताने के चक्कर में हास्यास्पद आरोप लगाये। उनके हिसाब से वही आम नागरिक उसी देश में एक जगह रूस का पैसा लेकर अमेरिका का और दूसरी जगह अमेरिका का पैसा लेकर रूस का विरोध कर रहे थे।
- आइबी की रिपोर्ट: 2014 में सरकार बदल गयी थी लेकिन परमाणु करारों और कारखानों का सिलसिला पूरा नहीं हुआ था। ऐसे में मोदी सरकार ने भय और भ्रम फैलाने के लिए इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक रिपोर्ट मीडिया में जानबूझकर लीक की, जिसमें सुरक्षा अधिकारियों की रिपोर्ट में आकलन किया गया था कि सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आंदोलन में शामिल होकर जीडीपी दर 2 प्रतिशत गिरायी है। नवउदारवादी अर्थशास्त्र के पुलिस मैन्युअल में बदल जाने का वह टर्निंग पॉइंट था।
- नर्मदा के नारे: जो घाटी में एक बार फिर गूंजे क्योंकि जिन आदिवासी गाँवों को 1980 के दशक में पनबिजली परियोजना के नाम पर उजाड़ा गया उनके लिए दोबारा विस्थापन का फरमान आया। पुराने विस्थापन से वे उबरे भी नहीं थे और बंजर ज़मीनों पर नये खेत बनाये थे, जिन्हें इस बार परमाणु बिजली के नाम पर छीना गया। वादे फिर वही खोखले: बिजली मिलेगी, विकास होगा, मुआवजा मिलेगा।
मुझे अपनी यात्रा में मिली ये चीजें बताती हैं कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के दौरान के उन घटनाक्रमों के तार कहीं अधिक दूर तक फैले हुए थे। भारत देश, जो अपने शुरुआती नैतिक आग्रह की वजह से और अपने इतिहास की पेचीदगियों की वजह से दुनिया में परमाणु हथियारों और परमाणु तकनीक पर केन्द्रित विकास की होड़ से अलग था, अब ग्लोबल सर्किट का हिस्सा बन गया।
आप इसको ऐसे समझें कि 18 जुलाई 2005 को हिन्दुस्तान नाम की ‘तूफ़ान से निकालकर लायी कश्ती’ ने खुद को ऐसे ग्लोबल जहाज से जोड़ लिया जिसे हांकने का तरीका, रफ़्तार, ईंधन और तासीर सब कुछ काफी अलग था। और इसलिए इस ‘डील’ के बाद देश की राजनीति, समाज और हमारी सामूहिक नैतिकता में कई खामोश लेकिन दूरगामी परिवर्तन संपन्न हुए, जिनमें से कुछ की शुरुआत नब्बे के दशक के व्यापार समझौतों से हुई थी।
परमाणु सौदे की मार्फ़त भारत के सुपर पावर बनने की तमन्ना और देश के अन्दर-बाहर उसके निहितार्थ, इन काले-सफ़ेद दस्तावेजों का जीते-जागते आम लोगों, नदियों-जंगलों-खेतों-खलिहानों और जानवरों पर असर, परमाणु कारखानों को बलपूर्वक थोपे जाने के लिए देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं के साथ की गयी बांह-मरोड़ी और इन्हीं कवायदों के साथ राजनीति में तेजी से आए दक्षिणपंथी मोड़- ऐसे कई किस्सों का सामान है मेरी उस थैली में। इन्हीं बिखरी कहानियों को संजोने में लगा हूं आजकल।
लेखक DiaNuke.org के सम्पादक हैं