जाँच से ‘समझौता’: 2007 के समझौता एक्सप्रेस धमाके में NIA की भूमिका पर PUDR की रिपोर्ट


आज से तेरह साल पहले समझौता एक्‍सप्रेस में हुए धमाकों में 67 मुसाफिरों की मौत हो गयी थी। इस हादसे की जांच बारह साल तक चली। बीते साल 20 मार्च 2019 को एनआइए की अदालत ने सभी चार दोषियों को मामले से यह कहते हुए बरी कर दिया कि विस्‍फोट में षडयंत्र का आरोप साबित करने में एजेंसी कामयाब नहीं हो पायी है और दोषियों को ‘संदेह का लाभ’ दिया जाता है। बरी हुए इन चार दोषियों में नब कुमार सरकार उर्फ स्‍वामी असीमानंद, लोकेश शर्मा, कमल चौहान और राजेंद्र चौधरी शामिल थे। स्‍वामी असीमानंद को अजमेर और मक्‍का मस्जिद ब्‍लास्‍ट में भी बरी कर दिया गया था। उसके बाद से उनकी कोई ख़बर नहीं है, हालांकि कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में असीमानंद के मुकदमे से बरी हो जाने को भारतीय जनता पार्टी ने मुद्दा ज़रूर बनाया था। बाकी तीनों बरी होने के बाद अपने-अपने तरीके से सामाजिक राजनीतिक कार्यक्रमों में संलग्‍न हैं। समझौता ब्‍लास्‍ट केस पर पीपुल्‍स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (PUDR) नेे एक लंबी तथ्‍यात्‍मक रिपोर्ट निकाली थी। हिंदू आतंकवाद या भगवा आतंकवाद की नींव रखने वाले इस धमाके और फिर उसे धता बता देने वाली जांच को समझने के लिए इस रिपोर्ट को पढ़ा जाना चाहिए। जनपथ इस रिपोर्ट को अविकल प्रकाशित कर रहा है।   

संपादक

समझौता एक्सप्रेस धमाके (2007) और राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) की भूमिका

18-19 फ़रवरी 2007 की रात 1:59 बजे दिल्ली से अटारी जाने वाली अटारी एक्सप्रेस की दो अनारक्षित बोगियों में पानीपात के क़रीब पहुँचने पर धमाके होते हैं और उनमें आग लग जाती है. इन धमाकों में 67 यात्री मौक़ा-ए-वारदात पर ही हलाक हो जाते हैं और 13 अन्य को गंभीर चोटों के साथ अस्पताल में भर्ती करवाया जाता है, जहाँ एक और आदमी की मौत हो जाती है. विस्फोटक दो और जगहों पर रखे गए थे, जो किन्हीं कारणों से नहीं फट पाए. उनमें से एक विस्फोटक किसी अन्य बोगी में; और, एक प्लेटफ़ॉर्म के नज़दीक पटरियों पर रखा गया था. मरने वालों में मुख्यत: पाकिस्तानी नागरिक थे. इनमें कुछ भारतीय और रेलकर्मी भी शामिल थे.

इस वारदात की मूल एफआईआर 28/2007, दिनांक 19 फ़रवरी 2007 थाना जीआरपी करनाल में दर्ज की गई थी. 2007 से 2010 तक, इन धमाकों की जाँच एक विशेष जाँच दल (एसआईटी) द्वारा की गई, जिसने शुरुआत में इन धमाकों के लिए लश्कर-ए-तैयबा और स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया (सिमी) जैसे संगठनों और अन्य मुसलमानों तथा पाकिस्तानियों को दोषी मानकर अपनी जाँच शुरू की. 1 मार्च 2007 को पंजाब पुलिस ने किसी अज़मत अली नाम के आदमी को गिरफ़्तार किया. वह भारत में जाली काग़ज़ात की मदद से अवैध रूप से घुसने की कोशिश कर रहा था. हालाँकि, एसआईटी द्वारा उसकी भूमिका स्थापित करने के मुत्तलिक पूछताछ के बाद उसे छोड़ दिया गया क्योंकि एक हद के बाद जाँच एजेंसी की यह कहानी किसी तार्किक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रही थी. धमाकों के बाद, उस्मान नाम के एक और पाकिस्तानी को इसी वजह से छोड़ना पड़ा. एसआईटी ने अगले कुछ साल भी, उस दौरान देश की अलग-अलग जेलों में बैठे सिमी के उन तथाकथित सदस्यों से पूछताछ में बिताए, जिनमें सफ़दर नागौरी नामक शख़्स भी शामिल था. लेकिन इस क़वायद से भी उन्हें धमाकों से सबंधित कोई सुराग़ नहीं मिल पाया.

2009 में अमरीका ने आरिफ़ कासमानी नाम के शख़्स की शिनाख्त की, जो लश्कर-ए-तैयबा का सदस्य था. उसे समझौता एक्सप्रेस धमाकों (और 2006 के मुंबई रेल धमाकों) के लिए पैसा उगाही में संलिप्त पाया गया था. इस ख़ुफ़िया ख़बर को आधार बनाकर तब संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने उन चार लश्कर सदस्यों की पहचान की थी जिनका संबंध समझौता धमाकों से हो सकता था. उनके नाम आरिफ़ कासमानी, फ़ज़ील-अ-तुल्ल शेख़ अबू मोहम्मद अमीन अल-पेशावरी, मोहम्मद याहिया मुजाहिद और नासीर जावेद थे. इसी को आधार बनाकर सुरक्षा परिषद ने अल-क़ायदा और तालिबान पर प्रतिबंध लगा दिया.

2010 के बाद, जब हेमंत करकरे (मुंबई एंटी-टेरर स्कवाड के चीफ़) ने मालेगाँव धमाकों का हिंदुत्ववादी लिंक उजागर किया तो एसआईटी को इसकी कार्यप्रणाली में कुछ समानताएं नज़र आईं और उसने लश्कर और सिमी का पीछा छोड़कर दूसरे तरीक़े के संदिग्धों पर ग़ौर करना शुरू किया. इस समय तक एसआईटी ने समझौता एक्सप्रेस धमाकों की साज़िश का केंद्र, इंदौर में होने को खोज निकाला था. उसने मुख्य संदिग्धों की पहचान की और बाद में उन पर मुक़दमा भी ठोका. इन संदिग्धों की सूची में स्वामी असीमानंद, कर्नल पुरोहित (समझौता मुक़दमे से बरी), सुनील जोशी, इत्यादि जैसे नाम शामिल थे. हालाँकि इस वक़्त तक बम धमाके के हादसे को गुज़रे तीन साल का वक्फ़ा बीत चुका था.

केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा 26 जुलाई 2010 को इस मामले की जाँच को राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) को सौंप दिया गया. एनआईए ने एफआईआर नम्बर 9, दिनांक 29 जुलाई 2010 में निम्नलिखित अपराधों के तहत मामले दर्ज किए:

आईपीसी 1860 के अंतर्गत धाराएँ 302, 307, 324, 326, 124-A, 438, 440हत्या, हत्या का प्रयास, जान बूझकर चोट पहुँचाना, जानलेवा चोट, देशद्रोह, आग्नेय या विस्फोटक पदार्थों द्वारा हानि, जानलेवा या गंभीर चोट पहुँचाने वाली कार्यवाही
रेलवे ऐक्ट के अंतर्गत धाराएँ: 150, 151, 152दुर्भावनापूर्ण मंशा के साथ ट्रेन को नुक़सान पहुँचाना या कोशिश करना, रेलवे संपत्ति का नुक़सान और तोड़फोड़ की कार्यवाही
एक्सप्लोसिव सब्सटेंस ऐक्ट, 1908 के अंतर्गत धाराएँ 3, 4, 6विस्फोट जिससे जानमाल का नुक़सान और जिसमें सार्वजनिक संपत्ति को हानि पहुँच सकती हो, उकसाना
प्रीवेन्शन ऑफ़ डैमेज टू पब्लिक प्रॉपर्टी ऐक्ट, 1984 के अंतर्गत धाराएँ 3, 4सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाने वाले कृत्य, विस्फोट द्वारा जानमाल और संपत्ति को नुकसान पहुँचाने का प्रयास
यूएपीए के अंतर्गत धाराएँ 13, 15, 16, 17, 18, 19, 23ग़ैरक़ानूनी गतिविधि, आतंकवादी गतिविधि, फ़ंड उगाही, शरण देना, इत्यादि. षड्यंत्र, अधिक जुर्माना.

जाँच का घटनाक्रम और एनआईए का आरोपपत्र

एनआईए ने अपनी जाँच, एक साल के भीतर निपटा दी. उसने 20 जून 2011 को पाँच आरोपियों के ख़िलाफ़ अपना आरोप-पत्र दाख़िल किया. ये आरोपी थे: स्वामी असीमानंद, सुनील जोशी (अब मृत), रामचंद्र कालासांग्रा उर्फ़ रामजी, संदीप डाँगे (तब से उद्घोषित अपराधी) और लोकेश शर्मा.

एनआईए को केस स्थांतरित होने के तुरंत बाद, देवेन्द्र गुप्ता और लोकेश शर्मा को सीबीआई द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया. नवंबर 2010 में, सीबीआई ने स्वामी असीमानंद को भी मक्का मस्जिद विस्फोट के संदर्भ में अतमलपुर से गिरफ़्तार कर लिया जहां वह छुपकर छद्म नाम से रह रहा था. स्वामी असीमानंद के इक़बालिया बयान के आधार पर दो और आरोपियों, कमल चौहान और अमित हाकला को 15 जनवरी 2011 को उनकी मिलीभगत के संबंध में गिरफ़्तार कर लिया गया. बाद में 12 नवंबर 2011 को असीमानंद अपने इस बयान से मुकर गए. एनआईए ने 9 अगस्त 2012 को कमल चौहान और अमित हाकला (तब से उद्घोषित अपराधी) के ख़िलाफ़ पूरक आरोप-पत्र दाख़िल किया. इसके बाद 12 जून 2013 को राजेंद्र चौधरी के ख़िलाफ़ एक और पूरक आरोप-पत्र दाख़िल किया गया. चूँकि आरोप-पत्र दाख़िल होने से पहले सुनील जोशी की मृत्यु हो चुकी थी, इसलिए उसका नाम इस केस से निकाल दिया गया.

एनआईए द्वारा 2011 में एसआईटी और हेमंत करकरे के ख़ुलासे के बाद, इन लोगों के ख़िलाफ़ आरोप-पत्र दाख़िल कर दिया गया, लेकिन जाँच एजेंसी ने धमाके के लश्कर संबंधों की पड़ताल जारी रखी. 2011 में, एनआईए ने अमरीका से अनुरोध किया कि वह उसे घरेलू और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की उन ख़ुफ़िया जानकारियों से वाक़िफ़ करवाए, जिनके आधार पर आरिफ़ कासमानी और अन्यों के ख़िलाफ़ कार्यवाही की गई लेकिन इसका जवाब नहीं मिला. जाँच एजेंसी ने 2016 तक इस कड़ी को स्थापित करना जारी रखा, जबकि असीमानंद और अन्य के ख़िलाफ़ मुक़दमा 2014 में ही शुरू हो चुका था. 2016 में, एनआईए के निदेशक ने स्वयं अमरीका के अपने समकक्ष अफ़सर से कासमानी को लेकर ख़ुफ़िया जानकारी बटोरने के मक़सद से मुलाक़ात की.

इस बीच स्वामी असीमानंद, रामचंद्र कालसांग्रा, संदीप डाँगे, लोकेश शर्मा, कमल चौहान, राजेंद्र चौधरी और अमित हाकला के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलना जारी रहा. 24 जनवरी 2014 को, पंचकूला में एनआईए के विशेष न्यायाधीश ने आरोपियों के ख़िलाफ़ निम्नलिखित आरोप लगाए:

आईपीसी की धाराएँ 302, 307, 124-A, 438, 440; सभी धाराओं को 124-B के साथ पढ़ा जाएहत्या, हत्या का प्रयास, देशद्रोह, आग्नेय या विस्फोटक पदार्थों द्वारा हानि, जानलेवा या गंभीर चोट पहुँचाने वाले काम, आपराधिक साज़िश
रेलवे ऐक्ट के अंतर्गत धाराएँ: 150(e) , 151, 153दुर्भावनापूर्ण मंशा से ट्रेन या रेलवे सम्पत्ति को नुक़सान पहुँचाना या कोशिश करना,रेलवे संपत्ति का नुक़सान और तोड़फोड़ की कार्यवाही, जानबूझकर रेलयात्रियों को चोट पहुँचाना
एक्सप्लोसिव सब्सटेंस ऐक्ट, 1908 के अंतर्गत धाराएँ 3, 4विस्फोट जिससे जानमाल का नुक़सान और जिनमें सार्वजनिक संपत्ति को हानि पहुँच सकती हो, विस्फोट द्वारा जानमाल और संपत्ति को नुकसान पहुँचाने का प्रयास
प्रीवेन्शन ऑफ़ डैमेज टू पब्लिक प्रॉपर्टी ऐक्ट, 1984 के अंतर्गत धाराएँ 3, 4सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाने वाले कृत्य, आग और अग्नेयास्त्र द्वारा जान और संपत्ति को नुकसान पहुँचने का प्रयास।
यूएपीए के अंतर्गत धाराएँ 13, 15, 16, 17, 18, 19, 23ग़ैरक़ानूनी गतिविधि, आतंकवादी गतिविधि, फ़ंड उगाही, शरण देना, इत्यादि. षड्यंत्र, अधिक जुर्माना.

अभियोजन पक्ष का केस

2014 में, पंचकूला के विशेष एनआईए कोर्ट में मुक़दमा शुरू हुआ. अभियोजन पक्ष ने साज़िश का अपना केस प्रस्तुत किया, जिसमें उसने कॉल रिकार्ड एवं एनआईए द्वारा अपनी जाँच से उजागर सबूतों को रखा और साथ ही 224 गवाह भी पेश किए. दूसरी तरफ़ बचाव पक्ष ने कोई मौखिक सबूत पेश नहीं किए, बल्कि उसने दस्तावेज़ी साक्ष्य के संबंध में, 2013 के स्पेशल केस नम्बर 03 की प्रामाणिक नक़ल पेश की, जिसका फ़ैसला 16 अप्रैल 2018 को दिया गया था. नीचे स्पेशल कोर्ट के फ़ैसले में, अभियोजन पक्ष के मामले को विस्तार से समझाया गया है.

लिंक 1: षड्यंत्र

2006 में, स्वामी असीमानंद और सुनील जोशी ने गुजरात के डाँग जिले के शबरीधाम आश्रम में मुलाक़ात की, जहाँ उन्होंने मुसलमानों को निशाना बनाते हुए उनके धार्मिक स्थलों और मुसलमानों की घनी आबादी वाले इलाक़ों पर आतंकवादी हमले करवाने की योजना बनाई. इसके पीछे उनकी मंशा “जेहादियों” द्वारा हिंदू मंदिरों पर किए गए हमलों का बदला लेने की थी. हालांकि, कुछ आरोपियों के बीच इस साजिश को रूप लेने में एक साल से भी ज़्यादा का समय लगा. 2006 में सम्पन्न हुई बैठक में शामिल असीमानंद को एनआईए ने “बम का बदला बम” के सिद्धांत के ईजाद का श्रेय दिया. असीमानंद ने ही मालेगांव, अजमेर और हैदराबाद पर हमला करने का प्रस्ताव रखा था. सुनील जोशी इन हमलों को अंजाम देने वाला प्रमुख किरदार था. अपनी टीम द्वारा इस काम को अंजाम देने के लिए जोशी ने तीन क़िस्म के समूह बनाए:

समूह 1: इस समूह में “वाइट कॉलर्ड लोगों” को होना था. इनके जिम्मे मिशन के लिए युवाओं को उत्प्रेरित करना, वैचारिक समर्थन देना, ज़मीनी कार्यकर्ताओं को शरण प्रदान करना, इत्यादि शामिल था. इस समूह में स्वामी असीमानंद और भारत भाई रतेश्वर थे. मीडिया प्रबंधन की ज़िम्मेवारी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की थी.

समूह 2: इस समूह का मक़सद बम बनाने की सामग्री एकत्रित करना था. रामजी और लोकेश इस समूह के सदस्य थे.

समूह 3: इस समूह में उन लोगों को रहना था, जो असल में बम बनाने और हमले वाले नियत दिन उसे प्लांट करने का काम करेंगे. इसमें कमल चौहान, राजेंद्र चौधरी, संदीप डाँगे, लोकेश शर्मा और रामजी शामिल थे. इनमें से किसी समूह को भी एक-दूसरे के संपर्क में नहीं रहना था. केवल सुनील जोशी इन सब के बीच समान कड़ी की भूमिका निभाने वाले थे. हालाँकि स्वामी असीमानंद ने समय-समय पर इस साज़िश को अंजाम देने के लिए आर्थिक मदद करने हेतु हामी भरी थी लेकिन सुनील जोशी भारी रक़म जुगाड़ने में सफल रहे थे, जो असीमानंद और अन्य की नज़र में नहीं लाई गई थी.

हमलों की तैयारी के लिए असीमानंद ने ही सुनील जोशी को देश भर में अन्य लोगों से मिलवाया. यही लोग उसे आईईडी सामग्री, धनराशि, सुझाव और लोगों की भर्ती में भी मदद करने वाले थे.

2006 में सुनील जोशी ने षड्यंत्र का हिस्सा बनाने की मंशा से स्वामी असीमानंद को संदीप डाँगे, रामजी, लोकेश शर्मा और अमित हाकला से मिलवाया. इसी तरह, असीमानंद ने सुनील जोशी की मुलाक़ात कर्नल पुरोहित से करवाई. असीमानंद और कर्नल पुरोहित 2005 से ही इस योजना पर काम कर रहे थे. 2003 में, स्वामी असीमानंद प्रज्ञा ठाकुर से मिल चुका था.

स्पेशल कोर्ट के सम्मुख पेश किए गए सबूत

असमीनंद ने 15 जनवरी 2011 को चीफ़ मजिस्ट्रेट के सामने (सीआरपीसी की धारा 164 के तहत) अपने इक़बालिया बयान में स्वीकार किया था कि इस षड्यंत्र में उसकी भागीदारी रही थी. उसने बैठक के विवरण पेश किए और विस्तार से षड्यंत्र की योजना के बारे में भी बताया.

न तो एनआईए और न ही चीफ़ मजिस्ट्रेट ने यह सुनिश्चित किया कि इक़ाबालिया बयान विधि-सम्मत, स्वतंत्र और स्वेच्छापूर्वक किया जाए. असीमानंद ने अपने बयान पर दस्तखत भी नहीं किए थे. फिर उसने मई 2011 में अपना बयान वापिस लेने के लिए अदालत में अर्ज़ी डाली. इससे तुरंत साफ़ हो जाना चाहिए था कि इस इक़बालिया बयान की अदालत में कोई हैसियत नहीं थी.

जिरह के दौरान, सीजेएम भी यह साबित करने मे असमर्थ रहे कि भरोसेमंद और स्वेच्छापूर्वक बयान लेने हेतु न्यूनतम सुरक्षा उपाय सुनिश्चित किए गये थे. सीजेएम ने असीमानंद से यह तक नहीं पूछा कि उसे कितने समय पुलिस हिरासत में रहना पड़ा, या फिर यह तथ्य कि उसे क्यों सीधा पुलिस रिमांड से उठाकर उनके सामने पेश कर दिया गया था. सीजेएम ने यह भी सुनिश्चित नहीं किया कि उसे एनआईए को सौंपते वक़्त जेल अधिकारी मौजूद रहें. क़ायदे से मजिस्ट्रेट को यह सुनिश्चित करना होता है कि बयान दर्ज करवाते वक़्त कोई पुलिसकर्मी मौजूद ना हो; और कि बयान दर्ज होने के बाद, आरोपी को न्यायिक हिरासत, न कि पुलिस हिरासत में भेजा जाए.

एनआईए द्वारा कमल चौहान और असीमानंद के इक़बालिया बयान के आधार पर किसी क़िस्म की कोई ज़ब्ती नहीं की गई, जिसे पुष्ट करने वाले साक्ष्य के रूप में स्वतंत्र रूप से कोर्ट के सामने दाख़िल किया जा सकता.

एनआईए ने चंचलगुड़ा जेल (हैदराबाद) में बंद कैदी, शेख़ अब्दुल खलीम (पीडब्लू-253), जिससे असीमानंद ने अपने जेल प्रवास के दौरान पूरे षड्यंत्र को साझा किया था, के सुने-सुनाए साक्ष्य अदालत में पेश किए. खलीम ने जिरह के दौरान बताया कि असीमानंद को एकांतवास में रखा गया था, इसलिए उनके आपस में मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. अजीब बात थी कि अक्टूबर 2010 से जनवरी 2011 तक खलीम के उसी जेल में रहने को लेकर कोई दस्तावेज़ी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया.

इसी तरह की ख़ामियों के चलते स्पेशल कोर्ट द्वारा इक़बालिया बयान को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता था.

लिंक 2: षड्यंत्र को सफल बनाने की योजना और तैयारी

अभियोजन पक्ष ने 2005-07 के दौरान षड्यंत्रकारियों एवं आरोपियों के बीच कई बैठकों का ज़िक्र किया. यह वही समय था जब षड्यंत्र रचा गया; उसे क्रियान्वित किया गया; धनराशि जमा की गई और टीम में नए सदस्य जोड़े गए:

  • नवंबर 2005: गुज़राती धर्मशाला जयपुर, जहाँ षड्यंत्र को अंजाम देने के लिए सुनील जोशी, रामजी, लोकेश शर्मा, इत्यादि ने बैठक की और उन्हें अलग-अलग कार्य सौंपे गए.
  • जनवरी और अप्रैल 2006: सुनील जोशी ने दो प्रशिक्षण शिविर लगाए.
  • पहला प्रशिक्षण देवास, मध्यप्रदेश के बाग़ली जंगलों में किया गया. इसमें पाइप बम बनाने और पिस्तौल चलाने का अभ्यास किया गया. इस प्रशिक्षण में कमल चौहान, रामचंद्र कलसांग्रा, शिवम् धाकड़, लोकेश शर्मा, अमित हाकला और राजेंद्र चौधरी ने हिस्सा लिया.
  • दूसरा प्रशिक्षण दिल्ली के नज़दीक फ़रीदाबाद के डॉक्टर करणी सिंह फ़ायरिंग रेंज में  आयोजित किया गया, जिसमें कमल चौहान, शिवम् धाकड़, लोकेश शर्मा, अमित हाकला और राजेंद्र चौधरी शामिल हुए.
  • जनवरी-मई 2006: सुनील जोशी (कभी-कभी भारत भाई के साथ) षड्यंत्र को अंजाम देने के मक़सद से देश भर में की गई कई यात्राएँ और बैठकें.
  • झारखंड, जहां देवेंद्र गुप्ता (जामताड़ा) ने झारखंड में सिम कार्ड, पिस्तौलों और विस्फोटकों का इंतज़ाम किया.
  • आगरा और उसके बाद गोरखपुर, लेकिन इन जगहों पर उसे किसी भी हल्के से कोई मदद नहीं मिली.
  • नागपुर, जहाँ वह इंद्रेश कुमार से मिला, जिसने नक़द 50,000 रुपए देकर विस्फोटक और अन्य सामग्री जुगाड़ने में उसकी मदद की.
  • जून 2006: इस षड्यंत्र को अंजाम देने की मुख्य बैठक भारत भाई के ठाकुरघर पर हुई थी. इस बैठक में असीमानंद, प्रज्ञा ठाकुर, सुनील जोशी, संदीप डाँगे, रामजी, लोकेश शर्मा, अमित हाकला और भारत भाई शामिल हुए थे.
  • 16 फ़रवरी 2017: बम ब्लास्ट से दो दिन पहले शबरीधाम आश्रम गुजरात में सुनील जोशी, असीमानंद और प्रज्ञा ठाकुर से मिला.
  • नासिक 2007: सुनील जोशी की मौत के तुरंत बाद असीमानंद और कर्नल पुरोहित मिले, जहाँ उन्होंने “अभिनव भारत” के गठन की घोषणा की.

स्पेशल कोर्ट के समक्ष रखे गए साक्ष्य

कमल चौहान ने 27 फ़रवरी 2012 को अपनी डिस्क्लोजर स्टेटमेंट दी।

  • इसके साथ कमल चौहान एनआईए को करणी सिंह शूटिंग रेंज भी ले गया, जहाँ अप्रैल 2006 में शूटिंग अभ्यास किया गया था. इसके साथ उसने यह ख़ुलासा भी किया कि वह इंदौर और बाग़ली जंगलों को भी पहचानता है, जहाँ बम बनाने और चलाने की ट्रेनिंग दी गई थी.
  • स्पेशल कोर्ट ने इस बयान को स्वीकार नहीं किया क्योंकि इसे विधि-सम्मत नहीं माना गया, जो साफ़ तौर पर इंडियन एविडेंस एक्ट में वर्जित है. एनआइए ने कमल चौहान के बयान के सिलसिले में किसी क़िस्म की बरामदगी भी नहीं की थी. इसलिए स्पेशल कोर्ट ने पेश किए गए मेमो और अन्य साक्ष्य स्वीकार नहीं किए. इसका मतलब था अपने केस को मज़बूत करने के लिए कमल चौहान द्वारा दिए गए बयान को लेकर एनआइए कोई भी पुख़्ता सबूत पेश नहीं कर पाई थी.
  • राजेंद्र चौधरी ने 26 दिसंबर 2012 के अपने ख़ुलासे में बाग़ली जंगलों के ट्रेनिंग स्थल की तरफ़ इशारा किया. स्पेशल कोर्ट को यह अजीब लगा कि कमल चौहान के बयान के समय कोई ‘सॉयल सैम्पल’ नहीं लिए गए थे. ये सैम्पल राजेंद्र चौधरी के बयान के दस महीने बाद एकत्रित किए गए थे.
  • बाग़ली जंगल के ‘सॉयल सैम्पल’ दिसंबर 2012 में धमाके से बने गड्ढे की मिट्टी के सैम्पल लेकर, उसे जाँच के लिए फ़ोरेंसिक साईंस लेबोरेटरी (एफएसएल) भेज दिया गया- बम ब्लास्ट परीक्षण से 5-6 साल बाद; और, एनआईए को इसकी पहली जानकारी मिलने के 10 महीने बाद.
  • स्पेशल कोर्ट ने कई कारणों से किसी भी सैम्पल को स्वीकार नहीं किया.
  • सैम्पल खुली और बेरोकटोक वाली जगह से उठाए गए थे, वह भी 5-6 साल बाद. ऐसे इलाक़े के सैम्पल को एफएसएल के पास भेजने से पहले सील भी नहीं किया गया था. इसलिए 2013 में, जब विशेषज्ञों को रेत के सैम्पल मिले तो उसमें बम के कण नहीं बचे थे.
  • एनआईए कोर्ट के सामने सैम्पल की ‘चेन ऑफ़ कस्टडी’ स्थापित नहीं कर पाई. मसलन यह स्पष्ट नहीं था कि 27 फ़रवरी 2013 एफएसएल में आने तक, दो महीने तक सैम्पल किसके पास रहे.
  • डिस्कवरी मेमो कोर्ट को स्वीकार्य नहीं था क्योंकि इसे पुलिस हिरासत में लिया गया था. अभियोजन पक्ष ने दलीलों के दौरान दो स्वतंत्र गवाहों से पूछताछ नहीं की. इनके नाम थे: प्रताप कुमार और राजेश सरवाते, जिन्होंने आधिकारिक तौर पर जाँच और मेमो बनाने में मदद की थी. तीसरे स्वतंत्र गवाह, मोहम्मद इरशाद (पीडब्लू-151), ने कोर्ट में शहादत दी थी कि उसने हवाई अड्डे पर बाग़ली से आने वाली टीम से प्राप्त रिकवरी मेमो पर दस्तखत किए थे; और कि उसने रिकवरी होते हुए ख़ुद नहीं देखी थी.
  • एफएसएल रिपोर्ट बाग़ली में पाए गए सैम्पल से आरडीएक्स और वास्तविक धमाके की जगह से मिलने वाली रेत के बीच की कड़ी की बात नहीं करती.
  • करणी सिंह शूटिंग रेंज की रूपरेखा: एनआईए ने करनी सिंह शूटिंग रेंज की रूपरेखा बनाई, लेकिन रूपरेखा के साथ वह फायरिंग अभ्यास का संबंध समझा नहीं पाई. जिस जगह की रूपरेखा प्रस्तुत की गई थी, वह करणी सिंह शूटिंग रेंज की वर्तमान रूपरेखा थी, जिसे 2008-09 में राष्ट्रमंडल खेलों के लिए दुबारा बनाया गया था.
  • बैठकें 2005 और 2007 के धमाकों के षड्यंत्र के संबंध में आयोजित की गईं थी, इसका कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया.
  • 2005 में, इंदौर में षड्यंत्रकारियों के बीच ज़िम्मेवरियों का बँटवारा होने था जिसके लिए एक कमरा बुक किया गया था. यह स्थापित कर दिया गया कि कमरा सुनील जोशी के नाम से बुक था. 2005 और 2007 के बीच धमाके की साज़िश रचने के लिए कितनी बैठकें की गई, इसको लेकर कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया था.
  • प्रज्ञा ठाकुर, सुनील जोशी, संदीप डाँगे और असीमानंद के कॉल रिकार्ड में इन सभी के बीच फ़रवरी और मार्च 2007 में कॉलों का आदान-प्रदान दिखता है. समझौता एक्सप्रेस धमाकों की योजना के ये आख़िरी क्षण थे.
  • एनआईए किसी भी फ़ोन के कॉल रिकार्ड मुहैया करवाने में नाकाम रही. ना ही वह यह साबित कर पाई कि कौन से फ़ोन या सिम कार्ड किस अभियुक्त के थे.
  • अभियोजन पक्ष द्वारा दो गवाहों से पूछताछ की गई. राजेश मित्तल (एसडीई बीएसएनएल) (पीडब्लू-203) और रवि प्रकाश (असिसटेंट नोडल अफ़सर) (पीडब्लू-223) ने भी अभियोजन पक्ष के केस में मदद नहीं की. अगर कॉल रिकार्ड इस वक़्त तक नष्ट हो भी गए थे, तब भी सिम कार्ड ख़रीदारों की पहचान को स्थापित करने वाले दस्तावेज़ों को कोर्ट में जमा नहीं किया गया.

लिंक 3: फ़रवरी 2007 में समझौता धमाकों का क्रियान्‍वयन

नवंबर-दिसंबर 2006 में कमल चौहान और राजेंद्र चौधरी ने लोकेश शर्मा के निर्देश पर ज़ामा मस्जिद एवं पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के इलाक़ों का मुआयना किया. उन्होंने लोकेश शर्मा को कहा कि ज़ामा मस्जिद इलाक़े में सुरक्षा का पर्याप्त बंदोबस्त हैं, लेकिन पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर नहीं. उनके अनुसार वहाँ समझौता एक्सप्रेस में बम विस्फोट आसान और सुरक्षित हो सकता है.

लोकेश शर्मा के निर्देश पर, कमल चौहान और राजेंद्र चौधरी 17 फ़रवरी 2007 को इंदौर पहुँचे. सर्वसंपन्न नगर पहुँचकर वे उस कमरे में गए जहाँ पहले से ही अभियुक्त अमित, राजेंद्र चौधरी, और रामचंद्र कालसांग्रा मौजूद थे. रामचंद्र कालसांग्रा ने लोकेश शर्मा, अमित हाकला, राजेंद्र चौधरी और कमल चौहान को एक-एक सूटकेस दिए. इन सूटकेसों में आईईडी विस्फोटक थे, जिन्हें बाद में समझौता एक्सप्रेस धमाकों के लिए इस्तेमाल किया गया. यह वही कमरा है जहाँ 2006-07 में अमित हाकला रुका था और जिसे आधिकारिक तौर पर रामचंद्र कालसांग्रा द्वारा किराए पर लिया गया था. इसका किराया वही चुकाता था. यह वही कमरा है जहाँ कमल चौहान ने जवलनशील ईँधन के तेल की बोतलों को सील करने में अमित हाकला की मदद की थी, जिन्हें बाद में समझौता एक्सप्रेस धमाकों के आईईडी में प्रयोग किया गया था.

रामचंद्र कालसांग्रा ने लोकेश शर्मा, अमित हाकला, राजेंद्र चौधरी और कमल चौहान को 17 फ़रवरी 2007 के दिन मारुति ओमनी वैन में इंदौर रेलवे स्टेशन पर छोड़ा था, जिसे बाद में शिनाख्त कर ज़ब्त कर लिया गया था. उन्होंने इंदौर रेलवे स्टेशन से इंदौर इंटरसिटी एक्सप्रेस पकड़ी, जो अगले दिन सुबह निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुँची जहाँ से वे लोकल ट्रेन पकड़कर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचे. इसके बाद वे यहाँ डीलक्स डोर्मिटरी के कमरा नम्बर 14 में रुके और वहाँ से प्लेटफ़ार्म पर पहुँचे, जहाँ समझौता एक्सप्रेस छूटने के लिए तैयार खड़ी थी. कमल चौहान और लोकेश शर्मा ने दो बिस्तर बुक करवा रखे थे.

अमित हाकला और राजेंद्र चौधरी नज़दीकी मुख्य प्लेटफ़ार्म के पहले माले पर बनी डोर्मिटरी में रुके. बाद में उन्होंने अलग जनरल कोच को चुना और अपने साथ लाए सूटकेस बमों को ऊपरी सीट पर रख दिया. वे समझौता एक्सप्रेस में बम प्लांट करने के बाद ट्रेन से जयपुर पहुँचे और फिर बस लेकर इंदौर आ गए. रास्ते में संदीप डाँगे ने लोकेश शर्मा से पूछा कि बाक़ी के दो बम क्यों नहीं फूटे?

स्पेशल कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत साक्ष्य

  • धमाका और बम रिपोर्ट

एफएसएल की रिपोर्ट के अनुसार समझौता एक्सप्रेस में आग लगने का कारण बम धमाका था. बम में धमाकों के लिए सल्फ़र और पोटाशियम क्लोराइड, पीईटीएन, टीएनटी, आरडीएक्स, इत्यादि का इस्तेमाल किया गया था.

  • बमों का सूटकेस कवर

धमाके की जगह से बरामद हुए सूटकेसों पर सिलाई किया हुआ कवर मौजूद था. जाँच से पता चला कि एम.के. बाग़ सेंटर, कोठारी मार्केट, इंदौर के इक़बाल हुसैन ने इनके कवर सिले थे और उन पर ‘अपोलो 600’ लिखकर अपनी मोहर छोड़ दी थी. एफएसएल के अनुसार इस पर लिखाई इक़बाल हुसैन की ही थी.

स्पेशल कोर्ट इस साक्ष्य पर भी यक़ीन नहीं कर सकता था. अभिनंदन बाग़ सेंटर से ज़ब्त किये गए नीले कपड़े और एम.के. बाग़ सेंटर से ज़ब्त किए गए डेनिम के कपड़े को भी एफएसएल भेजा गया. एफएसएल के अनुसार, मौक़ा-ए-वारदात से मिले सूटकेसों के कवर के कपड़े एक रंग, एक डिज़ाइन और नंगी आँखों या सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखने/ छूने में एक जैसे थे. क्या अभियुक्तों में से किसी ने कवर एक ही दुकान से सिलवाए थे? तथ्य को सत्यापित करवाने के लिए एनआईए ने शिनाख्त परेड करने की ज़हमत भी नहीं उठाई थी. इस मुत्तालिक कॉल रिकार्ड पर भरोसा करना भी बेमानी था क्योंकि कोठरी मार्केट इलाक़े के टावर का ‘डम्प डाटा’ स्पेशल कोर्ट के सामने पेश ही नहीं किया गया था. डम्प डाटा उसे कहते हैं, जिसकी मदद से उपभोक्ता की लोकेशन का पता लगाया जाता है.

• अभियुक्तों को ब्लास्ट से जोड़ने वाले कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए गए

एनआइए ने समूह 3 में नामित आरोपियों, जिन्होंने समझौता एक्सप्रेस में बम लगाए, को लेकर कोई भी पुष्ट करने वाले साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए. पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर समझौता एक्सप्रेस पकड़ने से पहले 17 फ़रवरी 2007 को इंदौर-दिल्ली इंटर्सिटी एक्सप्रेस, जिसमें इंदौर से दिल्ली की यात्रा करने वालों में आरोपी भी शामिल थे, का रिकार्ड प्रस्तुत नहीं किया गया.

एनआईए द्वारा ने 18 फ़रवरी 2007 को रेलवे डोर्मिटरी में ठहरे दो अभियुक्तों को लेकर कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए. एनआईए ने पुरानी दिल्ली और ज़ामा मस्जिद इलाक़े की रेकी या धमाके से एक दिन पहले दिल्ली रेलवे स्टेशनों पर आरोपियों की मौजूदगी को स्थापित करने वाली सीसीटीवी फ़ुटेज प्रस्तुत नहीं की. एनआईए द्वारा धमाके की जगह से प्राप्त आरोपियों की ऊँगलियों के निशानों के साथ मिलान नहीं किया गया. इसने धमाकों में इस्तेमाल सूटकेस के कवर की खरीदारी करने वालों की शिनाख्त परेड भी नहीं करवाई. अभियोजन पक्ष कमल चौहान के ‘डिसक्लोज़र मेमो’ पर ही आश्वस्त रहा, जहाँ उसने डोर्मिटरी और स्टेशन की अन्य जगहों का ज़िक्र किया, जिसे कोर्ट ने स्वीकार करने से इंकार कर दिया, क्योंकि यह एक ‘अतिरिक्त न्यायिक स्वीकारोक्ति’ थी.

अभियोजन पक्ष ने इस्तिकार अली नामक गवाह (पी डब्लू-90), जो उस ट्रेन में एक यात्री था, से पूछताछ की. उसके अनुसार उसने कुछ यात्रियों को कहते सुना था कि कुछ लोग जनरल बोगियों से उतर गए हैं, जो इस बात की तरफ़ इशारा था कि कुछ आरोपी यात्रा की शुरुआत में ही उतर गए थे. हालाँकि, इस बिंदु पर आगे कोई और जाँच नहीं की गई. वास्तव में, गवाह के इस बयान से अभियोजन पक्ष की कहानी में अंतर्विरोध उत्पन्न होता था कि बमों को पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ही प्लांट लिया गया था.

कुछ अनसुलझे सवाल

स्पेशल कोर्ट ने एनआईए पर घटिया जाँच करने का आरोप लगाया, जिसकी वजह से सभी अभियुक्त मुक़दमे से साफ़ बरी हो गए. वास्तव में, शुरूआत से ही एनआईए की भूमिका और बर्ताव ने कई प्रश्नों को अंत तक अनसुलझा ही छोड़े रखा.

“हिंदू’ आतंकवाद से आँखें मूँदना

वर्तमान आरोपियों के ख़िलाफ़ जाँच शुरू करने से पहले करनाल थाने ने बम धमाकों के लिए लश्करे तैयबा का हाथ होने पर अपने शक की सुई घुमाकर तीन साल बर्बाद कर दिए जबकि लश्करे तैयबा ने धमाकों की ज़िम्मेवारी भी अपने सर नहीं ली थी. यह स्पष्ट नहीं है कि फिर क्यों और कैसे जाँच एजेंसियाँ इस नतीजे पर पहुँची. फलस्वरूप शुरू के साल, जो ठोस सबूतों को एकत्रित करने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण थे, एक ग़लत दिशा में जाने से ज़ाया हो गए. जैसे-जैसे समय बीतता गया पुख़्ता सबूत जुटाना नामुमकिन होता चला गया, जैसाकि मुक़दमे के दौरान रेत के सैम्पल, कॉल रिकार्ड और यहाँ तक कि गवाहों के साथ देखने में आया. यह रवैया या तो अयोग्यता और अव्यावसायिकता को दर्शाता है या हिंदू आतंकवाद के अस्तित्व के ख़िलाफ़ गहरे तक पैठे पूर्वाग्रह को. वजह चाहे जो भी हो, जाँच एजेंसियों की इस भूल ने शुरू से ही केस को कमज़ोर कर दिया था. बाद में जाकर उन्हें हिंदू आतंकवादी संगठनों की संलिप्तता के बारे में तब पता चला, जब देशभर में अन्य जगहों पर होने वाले हमलों में इसी तरह के बमों का इस्तेमाल सामने आया.

2016 में, जब असीमानंद और अन्यों के ख़िलाफ़ मुक़दमा अभी लंबित ही था तो एनआईए के महानिदेशक शरद कुमार ने अमरीका को एक अर्ज़ी भेजी कि वह धमाके के मुत्तालिक लश्करे तैयबा की कड़ी तलाशने को लेकर अपनी जाँच को दुबारा शुरू करे. पारस्परिक क़ानूनी सहायता संधि के अंतर्गत, एनआई ने ब्लास्ट से संबंधित आरिफ़ कासमानी का ब्यौरा माँगा, हालाँकि एनआईए और एसआईटी दोनों ने उसे पहली ही सारे आरोपों से बरी कर दिया था. इस मामले में सभी आरोपियों के बरी हो जाने के बाद अमित शाह ने 1 अप्रैल 2019 को उड़ीसा की एक चुनाव रैली में पिछली यूपीए सरकार पर निशाना साधते हुए हमला किया कि उसने हिंदुओं को आतंकवादी बताकर उनकी उनकी छवि धूमिल की है. उन्होंने दलील दी कि असली संदिग्ध, यानि इस्लामिक आतंकवादी, पिछली बार अनुचित तरीक़े से बरी कर दिए गए.

आरोप चस्पाँ करने और आरोपपत्र दाख़िल करने में जल्दबाज़ी

  • एनआईए ने जाँच में एक साल से भी कम का समय लगाया. उसने केस अपने हाथ में आने के बाद आरोप पत्र 11 महीने के अंदर (29 जुलाई 2010 – 20 जून 2011) दाख़िल कर दिए. आरोप-पत्र ने पर्याप्त सबूतों के साथ मुक़दमे के लिए अपनी ओर से पूरी तैयारी का दावा पेश किया. हालाँकि, दावों के विपरीत एनआईए की जाँच आरोप-पत्र दाख़िल होने के समय तक पूरी नहीं हुई थी, जो दिसंबर 2013 तक चलती रही, जब एफएसएल को सोयल सैम्पल भेजे गए. आरोप-पत्र दाख़िल होने के बाद हासिल की गई रामचंद्र और कमल चौहान की डिसक्लोज़र स्टेटमेंट को अदालत में मान्य नहीं माना गया.

जाँच और सबूतों में लापरवाही

  • एनआईए द्वारा एकत्रित अन्य सबूत जैसे सोयल सैम्पल, सूटकेस कवर और आरोपियों के इक़बालिया बयान भी महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं. चूँकि इन सबूतों को अनुचित प्रक्रिया के तहत एकत्रित किया गया था, इसलिए कोर्ट को उन्हें मुक़दमे के दौरान नज़रंदाज़ और अविश्वसनीय घोषित करने का मौक़ा मिल गया. क्या यह संभव है कि देश की सबसे प्रमुख और पेशेवर जाँच एजेंसी को सीआरपीसी और इंडियन एविडेंस ऐक्ट के बुनियादी क़ायदे से परिचय नहीं था? इसके अतिरिक्त, एनआईए एक सक्रिय फ़ायरिंग रेंज से 5-6 साल बाद एकत्रित सैम्पल पर किस बिनाह पर भरोसा कर सकती थी?
  • एनआईए ने लगभग कोई भी इलेक्ट्रोनिक सबूत कोर्ट में पेश नहीं किया. सिर्फ़ टेलीफोन सर्विस प्रोवाइडर्स को फ़रवरी 2007 के दौरान सुनील जोशी, संदीप डाँगे, प्रज्ञा ठाकुर और अन्यों के बीच आपसी संयोजकता को स्थापित करने हेतु गवाहों के रूप में कोर्ट में पेश किया गया. अभियोजन पक्ष की इस बात पर भी अदालत में भरोसा नहीं कर सकता था, क्योंकि इसके साथ किसी भी क़िस्म की कॉल जानकारियाँ नहीं दी गईँ थीं.

मुकरने वाले और असंरक्षित गवाह

• ऐसा कैसे हुआ कि अभियोजन पक्ष 224 गवाहों में से ज़्यादातर ऐन मौक़े पर या तो अदालत में साफ़ मुकर गए; या, उन्होंने अदालत में अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन करने से इनकार कर दिया? अगर गवाहों को धमकियाँ दी जा रहीं थी; या, उन पर कोई दबाव था तो एनआईए ने उन्हें संरक्षण क्यों प्रदान नहीं करवाया? उन्हें दुबारा अदालत में बुलाने, उनकी याददाश्त ताज़ा करने, या, उनका विश्वास जीतने का प्रयास क्यों नहीं किया गया?

आरोपी से अपराध को जोड़ने वाले मुख्य सबूत नदारद.

  • असीमानंद के इक़बालिया बयान का दर्ज किया जाना ज़रूरी प्रश्न उठाता है. ना केवल इतने महत्वपूर्ण बयान को बिना क़ानूनी प्रक्रिया के दर्ज किया गया बल्कि एनआईए ने तब भी वही ग़लती दोहराई, जब असीमानंद महज़ तीन महीने बाद यह कहते हुए मुकर गया कि उसने कथित बयान दबाव में आकर दिया था. चूँकि इक़बालिया बयान ग़ैर विधिवत तरीक़े से लिया गया गया था, कोर्ट ने इसे बिना झिझक ख़ारिज कर दिया. मुक़दमे के शुरुआती दौर में भी एनआईए ने इक़बालिया बयान के आधार पर सबूत जुटाने के प्रयास नहीं किए. अगर वह ऐसा कर लेती तो मुकरने के बावजूद कम से कम इक़बालिया बयान के कुछ हिस्सों का मुक़दमे में इस्तेमाल किया जा सकता जा सकता था. एनआईए ने सहायक सबूतों को जुटाने में भी कोई तत्परता नहीं दिखाई. इक़बालिया बयान से मुकर जाना अभियोजन पक्ष के लिए कैसे अंत तक प्राथमिक आधार बना रहा?
  • इसके अतिरिक्त, हालाँकि धमाके का तथ्य धमाके की जगह से एकत्रित साक्ष्यों से स्थापित हो चुका था, लेकिन आरोपियों को अपराध से जोड़ने वाले सबूत प्रस्तुत नहीं किए गए थे. सीसीटीवी फ़ुटेज, रेलवे डोर्मिटरी मे रहने के रेकार्ड, बैठकें करने एवं आईईडी बनाने के लिए होटल के दस्तावेज़, धमाकों से आरोपियों को जोड़ने वाले कॉल रिकार्ड कोर्ट में कभी भी पेश नहीं किए गए. यहाँ तक कि आरोपियों की पहचान स्थापित करने वाले गवाहों (जिनमे सूटकेस बेचने वाला दुकानदार भी शामिल है) को गवाही के लिए भी बुलाया नहीं गया. सवाल उठता है कि जब एनआईए ने अभी पर्याप्त सबूत ही नहीं जुटाए थे, तो वह मामले को कोर्ट ले ही क्यों गई? क्या अभियोजन पक्ष क्रिमीनल लॉ के बुनियादी सिद्धांतों से अंजान था? क्या उसे यह नहीं मालूम था कि आरोपी को अपराध से बिना शुबाह स्थापित करने के लिए कड़ियों को जोड़ना आवश्यक होता है?
  • क्या एनआईए को नहीं मालूम था कि एक निश्चित सीमा बीत जाने के बाद एवं विधिसम्मत तरीक़े से एकत्रित वास्तविक और फ़ोरेंसिक प्रमाणों तथा इक़बालिया बयान कोर्ट में नहीं टिक सकेंगे? केस के समर्थन में एनआईए द्वारा कारगर साक्ष्य क्यों नहीं जुटाए गए?
  • समझौता मामले में एनआई की भूमिका चक्कर में डालने वाली है. अगर एनआईए के पास आरोप-पत्र में लगाए गए आरोपों को लेकर पुख़्ता सबूत नहीं थे तो फिर उसे कोर्ट में केस दाख़िल ही क्यों किया? अगर उसके पास पर्याप्त सबूत थे, जो संभव है कि उसके पास थे, तो उसने उन्हें कोर्ट में दाख़िल क्यों नहीं किया? अंत तक महत्वपूर्ण सुराग़ नदारद रहे, जिनमे कॉल रिकार्ड, सीसीटीवी फ़ुटेज, डोर्मिटरी रिकार्ड, शिनाख्त परेड, सोयल सैम्पल, और अन्य बरामदगियाँ शामिल हैं. इन सभी असफलताओं को अगर समग्रता में देखा जाए तो एक जाँच एजेंसी के रूप में एनआईए की क़ाबलियत पर गंभीर प्रश्न चिन्ह लग जाते हैं. स्पेशल कोर्ट ने अपने फ़ैसले (पैरा 53) में कहा कि एनआईए ने अपने केस के समर्थन में रत्ती भर भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किए. स्पेशल प्रोसीक्यूटर की भूमिका इससे भी ज़्यादा संदेहास्पद है, जिसने चार्जशीट दाख़िल करने और मुक़दमा शुरू होने से पहले सबूतों का ठीक प्रकार से अध्ययन नहीं किया.

राष्ट्रीय जाँच एजेंसी जैसी प्रमुख जाँच एजेंसी की स्वायत्तता, विश्वसनीयता, मुक़दमा करने और देश की सुरक्षा करने की उसकी क़ाबि‍लियत पर सवालिया निशान लगाती है.

उपसंहार

संसद के मानसून सत्र के दौरान, अगस्त 2019 में, राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (संशोधन) अधिनियम 2019 गृहमंत्री अमित शाह की अगुवाई में पारित किया गया. इस संशोधन के ज़रिए एनआईए की जाँच और उसके अभियोक्ता होने के अधिकार क्षेत्र को और अधिक बढ़ा दिया गया:

  • इस संशोधन ने एनआईए के अधिकार क्षेत्र में आने वाले अपराधों की सूची में इज़ाफ़ा किया, अर्थात, अब एनआईए मानव तस्करी, प्रतिबंधित हथियारों के बिक्री-उत्पादन और उनके हस्तांतरण, साइबर आतंकवाद के साथ-साथ विस्फोटक पदार्थ अधिनियम, 1908 के मामलों में भी छानबीन कर सकेगी.
  • संशोधन ने एनआईए को यह भी अधिकार दे दिया है कि वह अब भारत की सीमा के बाहर भारतीय नागरिकों के ख़िलाफ़ किए जाने वाले अपराधों, या, ऐसी गतिविधियों, जो भारत के हित में ना हों, को लेकर भी छानबीन कर सकती है.

इस तरह, एनआईए ना केवल अब भारतीय नागरिकों द्वारा भारत की सीमा में अंजाम दिए जाने वाले उन अनुसूचित अपराधों, बल्कि विदेशियों द्वारा भारत के हितों के ख़िलाफ़ किए जाने वाले अपराधों की भी जाँच कर सकेगी.

इस संशोधन से अधिनि‍यम के अंतर्गत रहते हुए केंद्रीय और राज्य सरकारें राज्यों में किसी भी निचली अदालत को ‘स्पेशल एनआईए कोर्ट घोषित कर सकती हैं.

क्रम संख्याश्रेणीएनआईए अधिनियम 2008एनआईए संशोधन 2019
1अनुसूचित अपराधअधिनियम की सूची में अनुसूचित अपराध सीमित रहेंगे —   सात अधिनियमों और भारतीय दंड संहिता के निम्नलिखित अपराधों की श्रेणियों तक: (अ) भारतीय दंड  संहिता के अध्याय VI (45 ऑफ़ 1860); धारा 121 से 130; धारा 489-A  से 489-E (दोनों सम्मलित); (ब) धारा 489-A से 489-E तक (दोनों सम्मलित)   एनआईए का अधिकार क्षेत्र निम्नलिखित अपराधों तक विस्तारित कर दिया गया है —   एक्सप्लोसिव सब्सटेंस ऐक्ट, 1908 के अंतर्गत किए जाने वाले अपराध.निम्नलिखित अपराध जोड़ दिए गए हैं — (i) मानव तस्करी (आईपीसी की धारा 370-370A; (ii) नक़ली करेंसी या बैंक नोटों से सबंधित अपराध; (iii) निषेध हथियार बनाना या उसकी बिक्री (धारा 25(1AA), आर्मस एक्ट; (IV) साइबर आतंकवाद (धारा 66E, आईटी एक्ट )              
2अधिकार क्षेत्रअधिकार क्षेत्र सीमित था — (अ) विदेशों में रहने वाले भारतीय नागरिकों तक; (ब) किसी भी स्थान पर सरकारी नौकरी में कार्यरत व्यक्ति तक; और (स) भारत में पंजीकृत पानी के जहाज़ों और हवाई जहाज़ों में मौजूद व्यक्तियों तक, वे चाहे किसी भी स्थान पर मौजूद हों.        अधिनियम एनआईए को अधिकार देता है कि वह भारत की सीमा के बाहर भी उन अनुसूचित अपराधों की जाँच कर सके जो भारतीय नागरिकों के ख़िलाफ़ या भारत के हितों के ख़िलाफ़ अंजाम दिए गए हों. इनमे जाँच बेशक अन्तर्राष्ट्रीय संधियों के अनुरूप होगी ठीक वैसे ही जैसे अपराध भारत में ही अंजाम दिए गए हों (अनुच्छेद 1 (2) (d)).  
3एनआईए को निर्देश देने में केंद्र सरकार की शक्तियाँअगर केंद्र सरकार की दृष्टि में अनुसूचित अपराध घटित हुआ हो तो वह अपनी तरफ़ से एनआईए को जाँच के निर्देश दे सकती है.केंद्र सरकार को अब यह अधिकार प्राप्त है कि वह एजेंसी को देश की सीमा के बाहर अनुसूचित सूची में आने वाले अपराध के मुत्तलिक केस दायर कर जाँच के निर्देश दे सकती है.   
4जाँच की शक्तियाँअपराध को लेकर जाँच की शक्तियाँ केवल देश की सीमा तक सीमित थीं.  जैसी जाँच की शक्तियाँ, कर्तव्य, विशेषाधिकार और उत्तरदायित्व किसी पुलिस अफ़सर को प्राप्त होते हैं वैसे ही अधिकार एनआईए को भारत की सीमा के बाहर घटित होने वाले अपराधों में भी प्राप्त होंगे.
5सेशन कोर्ट को स्पेशल कोर्ट में तब्दील करनाकेंद्र सरकार सरकारी गजट में  नोटिफ़िकेशन के ज़रिए स्पेशल कोर्ट का गठन करेगी.अधिनियम के अंतर्गत केंद्र सरकार/ राज्य सरकार किसी भी सेशन कोर्ट को हाई कोर्ट, जिसके अंतर्गत वह सेशन कोर्ट आता है, के मुख्य न्यायधीश से परामर्श के बाद स्पेशल कोर्ट घोषित कर सकती है.

संसद में विपक्ष के भारी विरोध के बावजूद ऊपर वर्णित संशोधन पारित कर दिए गए. विपक्ष को डर था कि इनका अल्पसंख्यकों/आदिवासियों और समाज के कमज़ोर तबक़ों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा क्योंकि इससे उनके ख़िलाफ़ दुर्भावनापूर्ण ढंग से की गई फ़ौजदारी के मुकदमों में इज़ाफ़ा हो सकता है.

एनआईए द्वारा बढ़ते राजनीतिक दबाव और राजनीतिक कारणों की रौशनी में उसकी फ़ैसले लेने और विवेकशीलता से काम करने की क्षमता पर असर पड़ना लाज़िमी है. ऐसे में एक ऐसी एजेंसी, जो आसानी से दबाव में आ जाती हो, जो ग़ैर-पेशावर तरीक़े से काम करती हो, के अधिकार क्षेत्र को विस्तारित करने का मतलब है, देश के नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों को और अधिक ख़तरे में डालना. इसके अतिरिक्त, यह चुनिंदा और लक्षित गतिविधियों के आपराधीकरण को भी बढ़ावा देगा, जिसके फलस्वरूप व्यक्तियों और समूहों के ख़िलाफ़ फ़ौजदारी मामलों में इज़ाफ़ा होगा. ऐसे में हम भारत के लोगों की सुरक्षा को प्रभावित करने वाली प्रामाणिक और प्रभावकारी जाँच से वंचित रह जाएँगे.


प्रकाशक: पीपुल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर)

जाँच से समझौता

वेबसाइट: www.pudr.org


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जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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