आगाज़ 2023: मंदी के मुहाने पर खड़ी दुनिया में आंदोलनों को कुचलने का रिहर्सल शुरू हो चुका है!


नवम्बर 2022 में दुनिया के अमीरों की सूची में चौथे स्थान पर काबिज एमेजान के मालिक जेफ बेजोस ने अमेरिकी टीवी चैनल सीएनएन को दिए एक इंटरव्यू में कहा था: ‘’लोगों को मेरी सलाह है कि यदि आप आने वाले महीनों में बड़ी खरीददारी करने जा रहे हैं तो उस खरीददारी को रोक दें। खरीद की नकदी को अपने पास रखें। यदि आप कार, बड़ी स्क्रीन वाला टीवी, रेफ्रिजरेटर और जो कुछ भी खरीदने का विचार कर रहे हैं तो प्रतीक्षा कर सकते हैं क्योंकि विश्व अर्थव्यस्था अभी अच्छी नहीं दिख रही है। आप अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों में छंटनी देख रहे हैं। आर्थिक मंदी के संकेत मिलने लगे हैं।‘’

जेफ बेजोस जब लोगों को मंदी से बचने का यह ज्ञान बाँट रहे थे, उसी समय अपनी कम्पनी एमेजान से 10 हजार लोगों को उन्‍होंने बाहर का रास्ता दिखाया था और इसके समर्थन में तर्क दिया कि ‘’हम अपना काम रोबोट से करा रहे हैं जिससे हमारी इंसानों पर निर्भरता कम होने वाली है। रोबोट अब पैकेजिंग और डिलीवरी का काम करेगा इसलिए हमें मानव श्रम की जरूरत नहीं है।‘’

अकेले एमेजॉन ही नहीं है जहां मानव श्रम की जरूरत खत्‍म हो रही है। समाचारपत्रों और सोशल मीडिया के अनुसार एमेजान, ट्विटर, नेटफ्लिक्‍स, जोमैटो, बायजू, एम फाइन, अनएकेडमी, काज 24, वेदान्तु, मेटा, ओला, माइक्रोसॉफ्ट, स्नैपचैट, फोर्ड मोटर, मार्गन स्टेनली क्वाइन बेस, सिटी ग्रुप, इन्टेल, वालमार्ट, सेल्सफोर्स, सिटी ग्रुप, लिफ्ट, स्ट्राइक्स और अल्फाबेट ने लाखों-लाख लोगों को नौकरियों से निकाला है। ऐसा लगता है दुनिया भर की सभी कम्पनियों में कर्मचारियों को निकालने की एक होड़ सी लगी है। विडंबना यह है कि कर्मचारियों की छंटनी का कारण कम्पनियों को घाटा होना कतई नहीं है। इसके उलट कंपनियां रोजगार खत्‍म कर के मुनाफा कमा रही हैं। अप्रैल से जून 2022 की तिमाही में एमेजान को 54.8 अरब डॉलर का मुनाफा हुआ था, वहीं अल्फाबेट को 39.6 अरब डॉलर, गूगल को 29.9 अरब डॉलर, ट्विटर को 39.6 अरब डॉलर, एप्पल को 81.4 अरब डॉलर का मुनाफा अप्रैल से जून की तिमाही में हुआ था।

कम्पनियों का मुनाफा तो बढ़ रहा है लेकिन रोजगार खत्म हो रहे हैं। यह स्थिति भारत में विशेष रूप से देखने के लायक है जहां भारतीय अरबपतियों की कुल सम्पति 23 लाख करोड़ से बढ़ कर 56 लाख करोड़ रुपये बतायी गयी जो दूने से भी ज्यादा है। जनवरी 2022 में ऑक्सफैम इंडिया की तरफ से जारी वार्षिक असमानता सर्वे के अनुसार इसी अवधि में देश में 4 करोड़ 80 लाख लोग गरीबी के दायरे में आ गए और करीब 84 फीसदी भारतीय परिवारों की आय कम हो गयी।

याद करें, भारत में कोरोना महामारी के समय जब लोगों के रोजगार छिन गए थे और कम्पनियां बंद हो गयी थीं तब अस्‍सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन बांटा जा रहा था। लोग दवाओं और इलाज के अभाव में मर रहे थे, ठीक उसी समय देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही थी। ऑक्सफैम के अनुसार 2020 से 2022 तक भारत के अरबपतियों की सूची में 40 नए लोग जुड़े। अम्बानी की सम्पति 24 फीसदी, महिंद्रा की 100 फीसदी, अम्बानी के भाई विनोद की 128 फीसदी, सॉफ्टवेयर कम्पनी जेड क्लेअर के जय चौधरी की 274 फीसदी, बायोकॉन की प्रमुख किरण मजूमदार की 41 फीसदी सम्पति बढ़ गयी। सबसे ज्‍यादा सम्पति में इजाफा गौतम अदाणी के हुआ जो 42.7 अरब डॉलर थी।

इसे ही जॉबलेस ग्रोथ कहते हैं। यानी अर्थव्‍यवस्‍था तो वृद्धि कर रही है लेकिन बेरोजगारी भी बढ़ती जा रही है। भारी बेरोजगारी के चलते लोगों की क्रय शक्ति कम हो जाती है या उत्पादन में कमी आ जाती है। अर्थात ऐसी स्थिति जिसमें लोगों के खरीदने की क्षमता समाप्त हो जाती है। सामान बिकता नहीं क्योंकि सामान की मांग नहीं होती है। जब मांग नहीं होती है तब फैक्ट्रियां बंद होने लगती हैं। फैक्ट्रियां बंद होने से लोगों की छंटनी होने लगती है, और ज्‍यादा लोग बेरोजगार होने लगते हैं, लिहाजा महंगाई अपने चरम पर होती है।

आज दुनिया इसी संकट से जूझ रही है। इसका जिक्र अक्टूबर 2022 में अपना पद सम्भालने के बाद अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के प्रमुख क्रिस्टालिना जार्जिवा ने अपने बयान में किया था। उन्‍होंने कहा था कि 90 फीसदी वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ चुकी है। विश्व बैंक के अध्यक्ष डेविड माल्पास का बयान है कि वैश्विक आर्थिक वृद्धि की गति धीमी हो गयी है। अधिकांश देशों में मंदी आने की आहट है तथा आर्थिक वृद्धि में और अधिक गिरावट आने की आशंका है। उन्होंने कहा कि यह गम्भीर चिन्ता का विषय है कि यह ट्रेंड लम्बे समय तक बना रहेगा जो विकासशील देशों के निवासियों के लिए खतरनाक है। जार्जिवा के अनुसार इस मंदी का सबसे ज्यादा असर भारत पर है।

भारत में रोजगारविहीन वृद्धि का संकट

ऐसा नहीं है कि भारत में रोजगार की संभावनाएं नहीं हैं या सरकारी क्षेत्र में रिक्तियां नहीं हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो भारत में सरकार द्वारा निकाली जाने वाली रिक्तियों पर आने वाली आवेदकों की भारी संख्या बेरोजगारी की भयावहता को बयां करती है।

उत्‍तर प्रदेश में 2015 में चपरासी पद की 360 नौकरियां निकाली गयी थीं जो पांचवीं पास लोगों के लिए थी। इस पद के लिए 23 लाख लोगों ने आवेदन किया था। इन 23 लाख लोगों में दो लाख लोग बीटेक और एमटेक डिग्रीधारक थे, 380 पीएचडी के स्कॉलर थे (सर्वोदय जगत, फरवरी 22)। जुलाई 2018 में उप्र पुलिस विभाग ने टेलीफोन मैसेंजर पद के 62 पदों के लिए पांचवीं पास लोगों से आवेदन मांगे। चपरासी के इन 62 पदों के लिए 93 हजार लोगों ने आवेदन किया था। इन आवेदकों में 50 हजार ग्रेजुएट, 28 हजार पोस्ट ग्रेजुएट, तीन हजार पीएचडी धारक थे। ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट में वे भी अभ्यर्थी थे जिन्होंने बीटेक, एमसीए और एमबीए किया था। आवेदकों में मात्र 7500 आवेदक ऐसे थे जो केवल पांचवीं पास थे। (जनसत्ता, अक्टूबर 22)

2021 में रेलवे ने नॉन-टेक्निकल पॉपुलर कैटगरी (NTPC) के 35281 पदों तथा ग्रुप डी (क्लास 4) के 103769 पदों के लिए वैकेंसी निकाली। दोनों परीक्षाओं के लिए लगभग 2.5 करोड़ आवेदन आए। उप्र में 2022 में लेखपाल के लिए 8085 पद पर 1390305 अभ्यर्थियों ने आवेदन किया था। 2022 में ही उप्र अधीनस्‍थ सेवा चयन आयोग की ओर से विभिन्न सरकारी विभागों में समूह “ग” के पदों पर भर्ती के लिए प्रारम्भिक अहर्ता परीक्षा (PET) के लिए 3758209 अभ्यर्थियों ने आवेदन किया था।

लोकसभा में लिखित जबाब देते हुए कार्मिक राज्यमंत्री डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने जानकारी दी कि 2014 से 2022 तक विभिन्न विभागों में 22 करोड़ 5 लाख 99 हजार 238 लोगों ने आवेदन किया जिसमें 7 लाख 22 हजार 311 लोगों को नौकरी दी गयी। संसद में 31 मार्च 2022 तक के आंकड़े देते हुए उन्होंने कहा कि केंद्र के 78 मंत्रालय विभागों में स्वीकृत 40 लाख पदों में से 9.8 लाख पद खाली हैं। इसमें सिर्फ चार मंत्रालय रेल, गृह, रक्षा और डाक विभाग में ही आठ लाख पद खाली पड़े हैं। रेल विभाग में 2.99 लाख, रक्षा विभाग में 2.65 लाख, गृह विभाग में 1.44 लाख, डाक विभाग में 90 हजार, साइंस और टेक्नोलॉजी के 12442 पदों में 8543 पद खाली हैं।

भारत में रोजगार की स्थिति पर नजर रखने वाली संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के आंकड़ों के अनुसार 2021 में श्रमबल की भागीदारी 42.6 फीसदी थी, अप्रैल 2022 में 40 फीसदी थी जो जून 2022 तक गिरकर 38.8 फीसदी हो गयी। नतीजतन बेरोजगारी के लिए समायोजन के बाद केवल 35.8 फीसदी कामकाजी उम्र की आबादी कार्यबल में थी। इसका मायने जून 2022 में कामकाजी उम्र की आबादी का एक तिहाई से थोड़ा ही ज्यादा हिस्सा काम कर रहा था। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि 2017 से 2022 की बीच दो करोड़ 10 लाख महिलाएं श्रम बल से लगभग बाहर हो गयीं। CMIE की ही रिपोर्ट के अनुसार भारत में नौकरी योग्य 15 से 64 वर्ष आयु के लोगों की संख्या लगभग एक अरब मानी जाती है, जिसमें सिर्फ 40.3 करोड़ लोग ही नौकरी करते हैं। 60 करोड़ लोगों को नौकरी उपलब्ध करने की आवश्यकता होगी। संस्था के अनुसार ग्लोबल स्टैण्डर्ड हासिल करने के लिए देश में तुरंत 18.75 करोड़ लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने की जरूरत है।

इस बढ़ती बेरोजगारी का भारतीय समाज पर क्या असर हो रहा है इसका पता भारत सरकार के गृह राज्यमंत्री नित्यानन्द द्वारा फरवरी 2022 में राज्यसभा में दिए बयान से चलता है। उन्होंने राज्यसभा में बताया कि बेरोजगारी के कारण 2018 से 2020 तक 9140 लोगों ने आत्महत्या की जबकि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में कुल 139123 लोगों ने आत्महत्या की जिसमें से 14051 लोग ऐसे थे जो बेरोजगार थे। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2018 में आत्महत्या करने वाले बेरोजगारों की संख्या 12936 थी। वहीं 2018-20 के तीन साल में दिवालिया होने और कर्ज के कारण 16091 लोगों ने आत्महत्या की।

21 दिसम्बर 2022 को दैनिक भास्कर में छपी खबर में कहा गया है: “केंद्र सरकार ने संसद में बताया कि 2021 में रोज 115 दिहाड़ी मजदूरों (42004) ने आत्महत्या की, वहीं प्रतिदिन 63 गृहि‍णियों (23179) ने आत्महत्या की। इस दौरान 20231 स्वरोजगार करने वाले, 15870 वेतनभोगी और 13714 बेरोजगारों ने आत्महत्या की।  24 दिसम्बर 2022 के दैनिक भास्कर के ही अनुसार सरकार ने कहा है कि 81 करोड़ लोगों को अभी राशन वितरण जारी रहेगा। 130 करोड़ की आबादी में अगर 81 करोड़ लोग दो जून के भोजन की व्यवस्था नहीं कर सकते हैं तो यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि भारत की कितनी बड़ी आबादी भुखमरी की चपेट में है।

महंगाई और बेरोजगारी से निकलने का एकमात्र तरीका कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, उड्डयन, टेक्नोलॉजी, परिवहन, पर्यटन, रेल, दूरसंचार, बैंक तथा विभिन्न उद्योगों में सरकार द्वारा निवेश करना है। निवेश करने से नये रोजगार का सृजन होगा। नई भर्तियां होंगी, लोगों को वेतन मिलेगा, उनकी खरीद क्षमता बढ़ेगी, उसके साथ मांग बढ़ने से उत्पादन बढ़ेगा और समाज को महंगाई व बेरोजगारी से मुक्ति मिलेगी। इसके उलट भारत सरकार द्वारा सार्वजनिक संस्थानों में निवेश के बजाय उन्‍हें निजी उद्योगपतियों को बेचा जा रहा है। जेएनयू के जाने-माने अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार कहते हैं कि असंगठित क्षेत्र में जहां 94 फीसदी लोग काम करते हैं, वहां केवल 20 फीसदी निवेश है। कृषि क्षेत्र जहां 45 फीसदी लोग काम करते हैं वहां केवल 5 फीसदी निवेश किया जा रहा है। निवेश नहीं होने और मशीनों से काम करने के कारण रोजगार के अवसर पैदा ही नहीं हो रहे हैं। बैंकों में सारा काम मशीनों से हो रहा है। बैंकों का काम भले 100 गुना बढ़ गया हो लेकिन वहां काम करने के लिए आदमी की जरूरत कम हो गयी है। कृषि में हारवेस्टर, बुलडोजर, ट्रैक्टर का इस्तेमाल ज्यादा से ज्यादा हो रहा है। पहले सड़क बनती थी तो सैकड़ों लोग काम करते थे, आज सड़क बन रही तो चार-पांच लोग काम कर रहे हैं। विदेशी पूंजी भी जो भारत में आ रही है वह उद्योग खोलने में नहीं शेयर खरीदने में लग रही है। सभी काम मशीनों से हो रहा है। जब सब काम मशीनें करेंगी तो रोजगार कैसे पैदा होगा?

प्रो. कुमार कहते हैं कि गाँवों में शिक्षा बहुत कमजोर है, स्वास्थ्य की बहुत कमी है, लिहाजा शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में जब निवेश होगा तब रोजगार बढ़ेगा। जितने शिक्षक, डॉक्टर, टेक्नीशियन रखेंगे उतना ही रोजगार बढ़ेगा। 1968 में कोठारी आयोग ने कहा था कि शिक्षा पर जीडीपी का 6 फीसदी खर्च होना चाहिए, लेकिन कभी भी 4 फीसदी तक खर्च नहीं किया गया। उसी तरह स्वास्थ्य पर कम से कम 4 फीसदी तक खर्च होना चाहिए लेकिन कभी भी 1.3 फीसदी से ज्यादा खर्च नहीं किया गया। फिर रोजगार का सृजन कैसे होगा?

विरोध के दमन का वैश्विक रिहर्सल

एक तरफ बेरोजगारी, महंगाई, भुखमरी और दूसरी तरफ अरबपतियों की संपत्ति में इजाफा- दुनिया में बढ़ रही यही असमानता सरकारों के लिए संकट बन रही है। एक आंकड़े के अनुसार भारत के 142 अरबपतियों की कुल सम्पति 720 अरब डॉलर है जो देश की कुल 40 फीसदी आबादी की आय के बराबर है। यह पूंजी का केन्द्रीकरण भारत सरकार की नीतियों से हो रहा है। भारत सरकार ने उद्योगपतियों पर लगने वाले टैक्स में भारी कटौती की है और डायरेक्ट टैक्स में बढ़ोतरी की है जिससे अमीर और अमीर होते जा रहे हैं जबकि गरीब और गरीब हो गए हैं। यही स्थिति कमोबेश पूरी दुनिया में है। बेरोजगारी, ऊर्जा, खाद्य पदार्थों, परिवहन, शिक्षा, चिकित्सा की बढ़ती कीमतों के कारण लोगों का जीवनस्तर गिर रहा है। इसके विरोध में भारत सहित दुनिया के सभी देशों की जनता और मजदूर यूनियनें लगातार रैली, प्रदर्शन और हड़तालें कर रही हैं।

बीता वर्ष दुनिया के लगभग सभी देशों की सरकारों के खिलाफ़ किये जा रहे विरोध प्रदर्शनों के लिए भी जाना जाएगा। जून 2022 में ब्रिटेन, बेल्जियम, ग्रीस, ट्यूनीशिया, चिली, इक्वेडर, मकदूनिया, सोडोनिया में सरकार की जनविरोधी नीतियों, महंगाई, बेरोजगारी के खिलाफ़ रेल, परिवहन, स्कूलों, अस्पतालों व अन्य सार्वजनिक सेवाओं के मजदूरों ने हड़ताल, रैली व प्रदर्शन किया। ब्रिटेन में तो जून 2022 में एक सप्ताह में ही रेल के मजदूरों ने तीन बार रेल सेवा ठप कर दी। ट्यूनीशिया में सरकार ने बड़े पैमाने पर वेतन बिल में कटौती की और अगले साल से ऊर्जा और खाद्य सब्सिडी के उत्तरोत्तर कम किये जाने की घोषणा की। इसके विरोध में ट्यूनीशिया की सबसे ताकतवर जनरल लेबर यूनियन ने 23 जून को हड़ताल की। वहीं, चिली में तांबे की खनन कम्पनी प्रदूषण के नाम पर बंद करने के विरोध में 2022 जून में बड़ी संख्या में मजदूर हड़ताल पर चले गए।

अक्टूबर 2022 में जर्मनी के छह शहरों बर्लिन, स्टुटगार्ड, डसलडर्फ, हैनोवर, ड्रेसोन और फ्रांकफुर्त में बढ़ती कीमतों के खिलाफ़ बड़े प्रदर्शन हुए। अक्टूबर 2022 में ही रोमानिया की राजधानी बुखारेस्त सहित रोमानिया की सड़कों पर ऊर्जा, भोजन, महंगाई, बेकारी के विरोध में बिगुल और ड्रम बजाते हुए लोगों ने प्रदर्शन किया। 9 दिसम्बर 2022 को ढाका में जीवनयापन की बढ़ती लागत से परेशान लाखों लोगों ने प्रदर्शन किया। 16 दिसम्बर को बेल्जियम की राजधानी ब्रुसेल्स में हजारों लोगों ने प्रदर्शन किया। 20 जून 2022 में ब्रुसेल्स में ही महंगाई, बेरोजगारी के खिलाफ़ स्कूलों, अस्पतालों, परिवहन तथा अन्य सार्वजनिक सेवाओं के 80 हजार मजदूरों ने प्रदर्शन किया। 7 दिसंबर 2022 को ब्रिटेन की टीचर्स यूनियन ने वेतन वृद्धि के लिए हड़ताल की। ब्रिटेन में रेल, बस, एयरपोर्ट, एम्बुलेंस, नर्सिंग, पोस्टल स्टाफ समेत कई विभागों के लाखों कर्मचारियों ने क्रिसमस और नए साल के बीच हड़ताल का आह्वान किया।

ब्रिटेन में इस समय गुजर बसर करना कितना मुश्किल हो गया है इसका ब्रिटेन में एक उपभोक्ता समूह विच (wich) ने तीन हजार लोगों पर एक सर्वे किया। सर्वे में पता चला कि ब्रिटेन के लगभग आधे परिवार एक समय का खाना छोड़ रहे हैं। उपभोक्ता समूह की प्रमुख सूडेविस का कहना है कि जीवनयापन में इस संकट के कारण लाखों लोगों को या तो अपना खाना छोड़ना पड़ रहा है या तो उनकी थाली से पौष्टिक खाना गायब हो रहा है। सर्वे की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ब्रिटेन में 80 फीसदी परिवारों को आर्थिक मुश्किलों का सामना कर पड़ रहा है। इंग्लिश कलेक्टिव ऑफ़ प्रॉस्टिट्यूट नामक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार बढ़ती महंगाई के कारण महिलाएं देह व्यापार करने को मजबूर हैं।

बढ़ती असमानता के खिलाफ हो रहे विरोध से निपटने के लिए दुनिया की सरकारें तमाम तरह के कानून बना कर हड़ताल, प्रदर्शन, रैली, धरने पर रोक लगा रही हैं। भारत में भी महंगाई, बेरोजगारी व सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ़ किसानों, मजदूरों, नौजवानों द्वारा लगातार बड़े-बड़े प्रदर्शन किए जा रहे हैं लेकिन आन्दोलनों का मीडिया द्वारा बहिष्कार करके इस पर परदा डालने की कोशिशें जारी हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस की सरकारें रेल मजदूरों की प्रस्तावित हड़ताल को कुचलने के लिए संसद में कानून बनाने का प्रस्ताव लायी हैं। मंदी से उत्पन्न संकट से दुनिया के लोगों द्वारा सम्भावित आंदोलनों को रोकने के लिए कोरोना एक कारगर हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है।

फिलहाल मंदी से निपटने के लिए दुनिया के तमाम देशों के केंद्रीय बैंक ब्‍याज दरों में ताबड़तोड़ बढ़ोतरी कर रहे हैं। केंद्रीय बैंकों का तर्क है कि ब्याज दरों में इजाफे से खर्च कम होगा। जब लोग कम खर्च करेंगे तो बाजार में नकदी का प्रवाह कम होगा। मतलब सामान की प्रचुरता हो जाएगी, वस्तुओं का मूल्य गिर जाएगा और महंगाई नियंत्रण में आ जाएगी। मायने महंगाई से महंगाई रोकने का अद्भुत प्रयास केंद्रीय बैंकों द्वारा किया जा रहा है। यही एक मात्र तरीका वह अब तक मंदी से निपटने का वे करते आ रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने मंदी से निपटने के लिए मई 2022 से दिसम्बर 2022 तक लगातार पांचवीं बार रेपो रेट की दर बढ़ा कर 4 फीसदी से 6.25 फीसदी कर दी है। रिजर्व बैंक के आक्रामक रुख को देखते हुए अर्थशास्त्रियों ने इसमें 0.25 फीसदी की और बढ़ोतरी का अनुमान लगाया है। (दैनिक भास्कर 8 दिसंबर, 2022)

दूसरी ओर अर्थशास्त्रियों का कहना है कि केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दर बढ़ाने से कार, मकान, सहित सभी तरह की किस्‍तें बढ़ जाती हैं, इससे रोजमर्रा के सामान के साथ घरेलू उत्पाद के दामों में इजाफा हो जाता है। ब्याज दर बढ़ने से कम्पनियों की लागत भी बढ़ जाती है तो वह अपने रोजगार में कटौती करती हैं, विस्तार के फैसले टाल दिए जाते हैं लिहाजा रोजगार के नये अवसर पैदा ही नहीं होते हैं, महंगाई और बढ़ जाती है। अर्थव्यवस्था एक और बड़ी मंदी के असमाधेय दुश्चक्र में फंस जाती है। अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन ने वर्ल्ड एम्प्लॉयमेंट एंड सोशल आउटलुक ट्रेडर्स 2022 शीर्षक से अपनी प्रमुख रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आने वाले कुछ साल में दुनिया के अधिकांश हिस्सों के लिए महामारी एक बार फिर विकराल रूप ले सकती है। संगठन के महानिदेशक गाय राइडर ने कहा है कि मौजूदा स्थिति को देखते हुए इससे राहत मिलने की उम्मीद कम है।

मतलब साफ़ है कि लाकडाउन लगेगा, लोगों को एक बार फिर से अपने घरों में कैद कर दिया जाएगा, विरोध करने से पहले ही विरोध की किसी भी संभावना को बलपूर्वक महामारी के नाम पर कुचल दिया जाएगा। इसका पूर्वाभ्यास भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 दिसम्बर 2022 को संसद में मास्क लगा कर शुरू कर दिया है। समाचारपत्रों ने भी मोर्चा सम्भाल लिया है। 29 दिसंबर 2022 के दैनिक भास्कर के अनुसार “जनवरी में बढ़ सकते है कोरोना केस, अगले चालीस दिन मुश्किल, तैयारियां शुरू”। मंदी से निपटने के लिए अंतिम हथियार कोरोना का प्रयोग सम्भव है, जिसका पूरी दुनिया में रिहर्सल प्रारम्भ हो चुका है।


लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं


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