जंग के बीच सेनापति से इस्तीफे की मांग अनैतिक और अव्यावहारिक क्यों है


कोरोना महामारी से हो रही मौतों के बीच सोशल मीडिया पर कुछ नागरिक समूहों द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस्तीफ़े की मांग यह मानकर की जा रही है कि इससे मौजूदा संकट का तुरंत समाधान हो जाएगा। इसके लिए जन-याचिकाओं पर हस्ताक्षर करवाए जा रहे हैं। याचिकाओं में कोरोना से निपटने में विभिन्न स्तरों पर उजागर हुई सरकार की भीषण विफलताएं गिनाई जा रही हैं। ऐसी याचिकाओं का इस तरह के कठिन समय में प्रकाश में आना आश्चर्य की बात नहीं है। ऐसे हरेक संकट में सामाजिक रूप से सक्रिय लोगों की पहल इसी तरह से नागरिकों के मनों और उनके सत्ताओं का प्रतिरोध करने के साहस को टटोलती है।

सच्चाई यह है कि इस समय प्रधानमंत्री से इस्तीफ़े की मांग बिलकुल ही नहीं की जानी चाहिए। मोदी को सात साल में पहली बार देश को इतने नज़दीक से जानने, समझने और उसके लिए काम करने का मौक़ा मिल रहा है। ऐसा ही नागरिकों के साथ भी है। उन्हें भी पहली बार अपने नेता के नेतृत्व की असलियत को ठीक से परखने का अवसर मिल रहा है। प्रधानमंत्री के पद पर पूरे हो रहे उनके सात साल के कार्यकाल में पहली बार जनता के ग्रहों का योग कुछ ऐसा हुआ है कि मोदी को देश में इतना लम्बा रहना पड़ रहा है। इसी मार्च महीने में अन्यान्य कारणों से आवश्यक हो गई बांग्लादेश की संक्षिप्त यात्रा को छोड़ दें तो नवम्बर 2019 में ब्राज़ील के लिए हुई उनकी 59वीं विदेश यात्रा के बाद से मोदी पूरी तरह से देश में ही हैं।

युद्ध जब दूसरे चरण में हो और तीसरे चरण की तीव्रता का अनुभव करना बाक़ी हो तब बीच लड़ाई में सेनापति को हटाने या बदलने की मांग न सिर्फ़ अनैतिक है, व्यापक राष्ट्रहित में व्यावहारिक भी नहीं मानी जा सकती। प्रधानमंत्री को उनकी वर्तमान जिम्मेदारियों में लगाए रखना इस तथ्य के बावजूद ज़रूरी है कि उनकी सरकार कथित तौर पर एक ‘जीते जा चुके’ युद्ध को हार के दांव पर लगा देने की अपराधी है। या तो कोरोना की पहली लहर पर जीत का दावा चुनावी हार के अंतिम क्षणों में मतों की गिनती में की जाने वाली धांधली की तरह से था या फिर उस जीत को भी विकास के किसी फ़र्ज़ी रोल मॉडल की तरह ही गोदी मीडिया के ‘पेड’ प्रबंधकों की मदद से दुनिया भर में प्रचारित-प्रसारित करवाया गया था।

कभी भी आश्चर्य नहीं व्यक्त किया गया कि महामारी की पहली लहर के दौरान जब अमेरिका और यूरोप में लोगों की जान अंगुलियों के चटकने की रफ़्तार के साथ जा रही थीं, तब हमारे यहां अयोध्या में मंदिर का भूमिपूजन, बंगाल के चुनावों और कुम्भ मेले की तैयारियां किस जादू की छड़ी की मदद से इतनी निश्चिंतता से की जा रहीं थीं?

प्रधानमंत्री अगर स्वयं भी इस्तीफ़े की पेशकश करें तो हाथ जोड़कर उन्हें ऐसा करने से रोका जाना चाहिए। उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया तो वे नायक हो जाएंगे, ‘राष्ट्रधर्म’ निभा लेने के त्याग से महिमामंडित हो जाएंगे और किसी अगली और भी ज़्यादा बड़ी त्रासदी के ठीक पहले राष्ट्र का नेतृत्व करने के लिए पुनः उपस्थित हो जाएंगे।

सवाल यह भी है कि संकट के इस कुरुक्षेत्र में युद्ध जब महामारी और ‘आत्मनिर्भर’ नागरिकों के बीच ही चल रहा हो, सारे हतोत्साहित ‘पांडव’ पहले से ही हथियार डाले हुए अपने-अपने वातानुकूलित शिविरों में ‘सेल्फ़ क्वॉरंटीन’ होकर खुद की जान बचाने में लगे हों,  इस बात की बहस करना बेमानी होगा कि मौतें सरकारी हथियारों की आपूर्ति में कमी की वजह से हो रही हैं या लोगों की कमजोर साँसों के लड़खड़ा जाने के कारण।

इस कठिन समय में इस्तीफ़े की मांग करने के बजाय देश का नेतृत्व करते रहने के लिए प्रधानमंत्री को इसलिए भी बाध्य किया जाना चाहिए कि आपातकालीन परिस्थितियों में भी अपने स्थान पर किसी और विकल्प की स्थापना के लिए सारे दरवाज़े और खिड़कियां उन्होंने ही योजनापूर्वक सील करवा रखी हैं। न सिर्फ़ विपक्ष में बल्कि अपनी स्वयं की पार्टी में भी। आश्चर्य नहीं लगता कि उनकी पार्टी भी प्रधानमंत्री के सामने एक कमजोर विपक्ष की तरह ही नज़र आती है।

दूसरे यह भी कि नागरिक इस समय केवल अस्पतालों में बेड, ऑक्सिजन के सिलेंडर, रेमडेसिवीर के इंजेक्शन ढूँढने में ही अपनी जान का ज़ोर लगा सकते हैं, नरेंद्र मोदी का विकल्प तलाशने में नहीं! इस समय तो मोदी ही मोदी का विकल्प हैं। उन्हें सत्ता में बनाए रखना राष्ट्रीय ज़रूरत है। मोदी से अगर चलती लड़ाई के बीच इस्तीफ़ा मांगा जाएगा तो ख़तरा यह है कि वे बीमार नागरिकों से खचाखच भरी हुई ट्रेन को बीच जंगल में खड़ा करके किसी गुफा में ध्यान करने रवाना हो जाएंगे।

प्रधानमंत्री और उनके आभामण्डल में सुशोभित हो रहा समर्पित भक्तों का समूह निश्चित ही मानकर चल रहा होगा कि मौजूदा संकट के एक बार गुज़र जाने के बाद सब कुछ फिर से 2014 की तरह हो जाएगा। देश के फेफड़े पूरी तरह से ख़राब हो जाने के बावजूद प्रधानमंत्री उसके विकास की दौड़ को दो अंकों में और अर्थव्यवस्था को ‘फ़ाइव ट्रिलियन डॉलर’ की बना देंगे। हक़ीक़त यह है कि मौजूदा संकट कब और कैसे ख़त्म होगा उसकी किसी को कोई ख़बर नहीं है।

हमें एक बात और भी समझकर चलना चाहिए! वह यह कि किसी भी देश का शासन प्रमुख मात्र एक व्यक्ति या हाड़-मांस का पुतला भर नहीं होता, वह एक सम्पूर्ण व्यवस्था होता है। नागरिकों से इतर भी उसकी एक समानांतर सत्ता और साम्राज्य होता है। यह सत्ता और साम्राज्य देश के भीतर ही छुपा हुआ एक और देश या कई देश होते हैं। हमें अभी यह पता नहीं है कि भारत वर्तमान में भी विभिन्न राज्यों से बना हुआ एक गणतंत्र ही है या फिर कई देशों और सत्ताओं का समूह है। इसकी जानकारी सिर्फ़ प्रधानमंत्री को ही हो सकती है।

प्रधानमंत्री के मन में अगर किसी क्षण सम्राट अशोक की तरह ही कोरोना के कलिंग युद्ध की पीड़ा से शोक और वैराग्य छा जाए और वे किसी गौतम बुद्ध की तलाश में निकलना चाहें तो भी अपने गृहस्थ और समस्त सांसारिक सुखों को त्यागकर धार्मिक समागमों में भीड़ और चुनावों में वोट जुगाड़ने का सामर्थ्य रखने वाले मठाधीशों के समूह ईश्वरीय आदेश का हवाला देते हुए उन्हें ऐसा नहीं करने देंगे। ये उन मीडिया मठाधीशों में शामिल हैं जो नागरिकों को केवल उन ‘कोरोना विजेताओं’ के चेहरे दिखा रहे हैं जो ठीक होने के बाद लड़खड़ाते हुए अस्पतालों की सीढ़ियों से उतर रहे हैं, उन लाशों के चेहरे नहीं जो मुर्दाघरों में बिछी पड़ी हैं। ये मठाधीश प्रधानमंत्री को गंगा घाट की आरती के दृश्य तो दिखा रहे हैं पर मणिकर्णिका पर जलने की प्रतीक्षा करती हुए मृत शरीरों की क़तारें नहीं।

प्रधानमंत्री इस समय जिस समूह के घेरे में हैं वही उनकी आँखें और साँस बना हुआ है। मोदी वीडियो वार्ताओं के ज़रिये उसी वर्चुअल संसार में विचरण कर रहे हैं जो उन्होंने ‘डिजिटल इंडिया’ के नाम से देश के लिए तैयार किया था और विकास के नाम पर बेचा था। प्रधानमंत्री को उनके पद पर यह देखने तक के लिए बनाए रखना पड़ेगा कि वे वर्तमान युद्ध को नागरिकों के हार जाने के पहले किस तरह से जीत कर दिखा सकते हैं! टूटती हुई साँसों के हित में प्रधानमंत्री से उनके इस्तीफ़े की माँग तत्काल बंद की जानी चाहिए!


लेखक वरिष्ठ संपादक हैं

About श्रवण गर्ग

View all posts by श्रवण गर्ग →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *