डॉ. श्याम बिहारी राय से मेरे पहली मुलाक़ात 1970 के दशक के शुरुआती वर्षों में किसी समय दिल्ली में हुई थी और तब से अंत तक उनके साथ जीवंत संबंध बना रहा। इधर काफी दिनों से उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था तो भी वह नियमपूर्वक सुबह दस बजे तक लक्ष्मी नगर स्थित ग्रंथ शिल्पी के दफ्तर पहुँच जाते और शाम तक वहाँ रहते। उनके निधन की खबर ने मुझे हतप्रभ कर दिया क्योंकि निधन से महज 10-15 दिन पहले ही उनसे फोन पर लंबी बातचीत हुई थी। बातचीत में उन्होंने अपनी भावी योजनाओं की चर्चा की और तय हुआ कि हम लोग जल्दी ही मिलें।
1975 के आसपास मैं पश्चिम दिल्ली के टैगोर गार्डन में रहता था और कुछ ही समय बाद राय साहब जनकपुरी के सी ब्लॉक में रहने लगे जो मेरे निवास से नजदीक ही था। अब उनसे प्राय: मुलाकात होती रही। मैं उन दिनों हेराल्ड लास्की की विख्यात पुस्तक ‘ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स’ का अनुवाद कर रहा था। देश में आपातकाल की घोषणा हो चुकी थी और अखबारी लेखन बंद हो गया था। आकाशवाणी से 1974 में ही मैं निकाला जा चुका था। आजीविका के लिए अनुवाद का ही सहारा था। राय साहब को पता था कि मैं ‘ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स’ का अनुवाद कर रहा हूं।
इस बीच अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की प्रकाशन संस्था मैकमिलन ऐंड कंपनी ने हिंदी प्रकाशन क्षेत्र में प्रवेश किया और राय साहब की वहां नियुक्ति हो गई। कहानीकार डॉक्टर माहेश्वर, राय साहब और वंदना मिश्र- इन तीनों को हिंदी की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। साहित्य वाला प्रभाग डॉक्टर माहेश्वर संभालते थे और समाज विज्ञान से संबंधित विषयों की जिम्मेदारी राय साहब और वंदना पर थी। मैकमिलन ने मूलतः इन कामों का विभाजन ‘फिक्शन’ और ‘नॉन फिक्शन’ के तौर पर किया था। उस समय तक हिंदी प्रकाशन की दुनिया गैर कथा साहित्य के रूप में इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि से संबंधित पाठ्य पुस्तकों तक ही सीमित थी। मैकमिलन का भी इरादा ऐसी ही पुस्तकें छापने का था जो कालेजों और विश्वविद्यालयों के छात्रों के लिए उपयोगी हों और जिनसे कंपनी के राजस्व में वृद्धि हो। उन दिनों चूंकि डॉक्टर रॉय से मेरी अक्सर मुलाकात होती इसलिए मैकमिलन में होने वाली बैठकों के बारे में मुझे सारी जानकारी मिलती रही। मैकमिलन के प्रकाशन बजट और काम के सुसंगठित रूप को देखते हुए राय साहब को लगा कि यह ऐसा अवसर है जिसका लाभ उठाकर हिंदी के प्रकाशन जगत को एक नई दिशा दी जा सकती है। वह चाहते थे कि नॉन फिक्शन में साहित्यालोचना और पाठ्य पुस्तकों की बजाय समाज विज्ञान के क्षेत्र में देश-विदेश में हुए कार्यों से हिंदी पाठकों को परिचित कराया जाय। यह काफी कठिन काम था जो हिंदी प्रकाशन परंपरा से अलग हटकर था। क्या इस तरह की किताबें हिंदी पाठकों को पसंद आएंगी? क्या मैकमिलन इसके लिए तैयार होगा? वह प्रगतिशील या मार्क्सवादी विचारों की प्रचार संस्था तो है नहीं, उसे तो मुनाफा चाहिए। क्या इस तरह के प्रकाशनों से उसे आय हो सकेगी? ये कुछ ऐसे सवाल थे जिनके जवाब बहुत कठिन थे।
भावी प्रकाशनों की सूची को अंतिम रूप देने के सिलसिले में जो बैठकें होती थीं उनमें मार्केटिंग विभाग के अधिकारी भी शामिल होते थे और उनकी राय बहुत मायने रखती थी। मीटिंग में प्रस्तुत प्रस्तावों पर विभिन्न पहलुओं से विचार किया जाता था मसलन अनुवाद और प्रोडक्शन पर आने वाला खर्च, रॉयल्टी का भुगतान, प्रचार पर होने वाला व्यय, संभावित बिक्री से होने वाली आय आदि और इन सब के अध्ययन के बाद ही हरी झंडी मिलती थी। डॉ. राय को विश्वास था कि अगर हिंदी में प्रगतिशील और मार्क्सवादी विचारों का साहित्य उपलब्ध कराया जाय तो लोग इसे पसंद करेंगे। अंग्रेज़ी में यह परंपरा काफी पहले से जारी थी और बहुत सारे प्रकाशक मार्क्सवादी पुस्तकें छाप कर व्यावसायिक लाभ कमा रहे थे। खुद मैकमिलन लंदन ने ऐसी कई पुस्तकें प्रकाशित की थीं। डॉ. रॉय ने मार्क्सवादी पुस्तकों की एक सूची बैठक में पेश कर दी जिन्हें विदेशों के बड़े बड़े अंग्रेजी प्रकाशकों ने छाप कर काफी मुनाफा कमाया था। बावजूद इसके मैकमिलन के संचालकों को वह राजी नहीं कर सके- कंपनी पैसा लगाने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं थी।
राय साहब ने अपना प्रयास जारी रखा। उन्होंने भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आइसीएचआर) से संपर्क किया और तत्कालीन निदेशक और प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. राम शरण शर्मा से बात की और एक व्यवस्था बनी कि आईसीएचआर कुछ पुस्तकों को प्रकाशक को स्पॉन्सर करेगा और संबद्ध पुस्तक के प्रकाशन के लिए एक निश्चित राशि देगा जिसके बदले कुछ पुस्तकें प्रकाशक से खरीद लेगा। इस व्यवस्था से डॉ. राय मैकमिलन को समझा सके कि प्रोडक्शन लागत में कमी आने से कंपनी के राजस्व में वृद्धि होगी। अब मैकमिलन तैयार हो गया था और यह एक बड़ी उपलब्धि थी।
एक दिन बहुत सवेरे राय साहब मेरे यहाँ आ पहुंचे। बहुत खुश नज़र आ रहे थे। उन्होंने बताया कि रजनी पाम दत्त की पुस्तक ‘इंडिया टुडे’ के अनुवाद की स्वीकृति मिल गई है और वह मुझसे अनुवाद कराना चाहते हैं। मैंने उन्हें याद दिलाया कि इसी पुस्तक का ‘भारत आज और कल’ शीर्षक से ओम प्रकाश संगल का अनुवाद पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस से पहले ही प्रकाशित हो चुका है। लेकिन पता चला कि जिस संस्करण के अनुवाद का प्रस्ताव था उसमें वे अंश शामिल थे जिन्हें ब्रिटेन में अंग्रेज़ प्रकाशक के सेंसरशिप की वजह से निकाल देना पड़ा था। मैं जो अनुवाद करूंगा वह अनसेंसर्ड संस्करण का पहली बार किया जाने वाला अनुवाद होगा।
मैं इसके लिए सहर्ष तैयार हो गया। पुस्तकों के प्रोडक्शन में उनकी सुरुचिपूर्णता और वंदना मिश्र की शानदार कॉपी एडिटिंग ने लगभग सात सौ पृष्ठ की इस पुस्तक को नया आकर्षण दिया और इसकी प्रतियां देखते-देखते बिक गईं। इस सेट में प्रकाशित अन्य पुस्तकें ‘यूरोपीय वामपंथ के सौ वर्ष’ (लेस्ली डर्फलर), ‘मार्क्स तथा आधुनिक समाज शास्त्र’ (एलेन स्विंगवुड) तथा टॉम बाटमोर की दो पुस्तकें ‘अभिजन और समाज’ तथा ‘मार्क्सवादी समाजशास्त्र’ ने भी, मैकमिलन के मार्केटिंग विभाग के नजरिए से देखें तो, बहुत अच्छा ‘बिजनेस’ किया। राय साहब की धाक जम गई। अब उनके प्रस्तावों को हरी झंडी मिलने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। राय साहब के कहने पर मैंने दो और पुस्तकों ‘भारत में विदेशी निवेश’ (मैथ्यू कुरियन) तथा ‘माओत्से तुंग का राजनीतिक चिंतन’ (मनोरंजन मोहंती) का अनुवाद किया। अगली पुस्तक डी डी कोसांबी की ‘ऐन इंट्रोडक्शन टु दि स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ का एक चौथाई अनुवाद अभी पूरा हुआ था कि मैकमिलन के हिंदी विभाग के बंद होने की घोषणा ने सबको स्तब्ध कर दिया। यह 1980-81 की बात है लेकिन उस समय तक राय साहब ने बेहद महत्वपूर्ण पुस्तकें हिंदी जगत को दे दी थीं जिनमें रामशरण शर्मा की ‘शूद्रों का प्राचीन इतिहास’ और ‘प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं’, रोमिला थापर की ‘अशोक तथा मौर्य साम्राज्य का पतन’, अयोध्या सिंह की ‘भारत का मुक्तिसंग्राम’ और ‘फासीवाद’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
यहाँ एक और घटना का जिक्र प्रासंगिक है। एक मकसूद अली थे जिनकी कंपनी मैकमिलन की किताबों की बाइंडिंग करती थी। मैकमिलन की हिन्दी पुस्तकों की सफलता से प्रेरित हो कर उन्होंने राय साहब से इच्छा जाहिर की कि वह भी प्रकाशन का काम शुरू करना चाहते हैं बशर्ते राय साहब अनौपचारिक तौर पर इसकी ज़िम्मेदारी संभाल लें। राय साहब फौरन तैयार हो गए और मकसूद साहब के लिए फटाफट कुछ पांडुलिपियाँ जुटायीं, उनका सम्पादन किया और ‘पीपुल्स लिटरेसी’ नाम से एक प्रकाशन संस्था बना दी। इस बैनर तले भी कुछ उत्कृष्ट पुस्तकों का प्रकाशन हुआ जिनमें उल्लेखनीय हैं: मैनेजर पाण्डेय की ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’, शिव कुमार मिश्र की ‘दर्शन, साहित्य और समाज’ तथा ‘प्रेमचंद और विरासत का सवाल’, कर्ण सिंह चौहान का ‘साहित्य के बुनियादी सरोकार’, सुरेश शर्मा का ‘रघुवीर सहाय का कविकर्म’ आदि। इन सारी किताबों के प्रोडक्शन की ज़िम्मेदारी डा॰ राय ने संभाली और कोई पारिश्रमिक नहीं लिया। उन्हें खुशी थी कि एक बाइंडर ने इतना अच्छा साहित्य प्रकाशित किया।
मैकमिलन के हिंदी प्रकाशन की सफलता और लोकप्रियता ही घातक साबित हुई। हिंदी विभाग को बंद करने के पीछे उच्च पदों पर बैठे अँग्रेज़ीदां लोगों के कुटिल चालों की महत्वपूर्ण भूमिका थी जो वहां हिंदी का वर्चस्व स्थापित होने से आतंकित महसूस कर रहे थे। यह स्थिति हमने अनेक उन संस्थानों में देखी है जहां से हिंदी और अंग्रेजी दोनों के प्रकाशन होते हैं। बहरहाल, हिन्दी प्रकाशन जगत के एक शानदार अध्याय का समापन हो चुका था।
राय साहब का जीवन बहुत सादा था। वह एक सामान्य किसान परिवार से थे और उनके व्यक्तित्व में खान-पान से लेकर पहनावे में एक सादगी थी। अपनी पसंद-नापसंद के बारे में उनके अंदर एक अजीब सा अतिवाद था। अगर किसी को पसंद करते थे तो खूब पसंद करते थे और चिढ़ते थे तो उस से स्थायी तौर पर दूरी बना लेते थे। 1985 के बाद मैं नोएडा में रहने लगा और कुछ वर्ष बाद राय साहब भी पटपड़गंज के अपने फ्लैट में आ गए। कई बार दिवाली के अवसर पर वह अपनी बेटी को लेकर नोएडा आ जाते और सेक्टर 24 स्थित राष्ट्रीय श्रम संस्थान में प्रोफेसर रहमान के आवास में ही दिवाली बिताते क्योंकि उनकी बेटी को पटाखों से एलर्जी थी। श्रम संस्थान का परिसर बहुत बड़ा था और प्रदूषण से मुक्त था। रहमान साहब के यहां जाने से पहले घंटों मेरे यहां रुकते। उनके स्वभाव का रूखापन कइयों को बहुत बुरा लगता था लेकिन खरी खरी कहने की आदत से वह मजबूर थे। आत्मप्रचार से दूर रह कर वह अपना काम करते रहते और कभी उन्होंने न तो कोई संगठन बनाने का प्रयास किया और न अपने प्रकाशन ‘ग्रंथ शिल्पी’ को ही बहुत पारदर्शी रखा। कहना मुश्किल है कि यह उनका व्यक्तिवाद था, अंतर्मुखी होना था या मन के भीतर कहीं गहरे पैठ बनाए वह वर्गघृणा थी जिसने उनके समूचे व्यक्तित्व को कुछ लोगों के लिए खुरदुरा बना दिया था।
दरअसल उन्होंने काफी पहले अपनी भूमिका तय कर ली थी। वह विचारों से मार्क्सवादी थे और कानपुर में युवाकाल में बिताए गए छात्र जीवन में ही वह कम्युनिस्ट विचारधारा के संपर्क में आ गए थे। लोगों को कम्युनिस्ट बनाने में साहित्य की क्या भूमिका होती है इसे भी उन्होंने वहाँ के करेंट बुक डीपो और उसके मालिक दिवंगत कामरेड महादेव खेतान के संपर्क से समझा था। उनकी पक्की धारणा थी कि समाज को आगे ले जाने का काम कम्युनिस्ट पार्टियां (पार्टी नहीं) ही कर सकती हैं। यही वजह है कि सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई-एमएल या किसी कम्युनिस्ट समूह के प्रति उनका समान रूप से सकारात्मक रुख रहा। अपने भरसक वह इनकी मदद भी करते थे।
मैकमिलन के अपने अनुभवों से उत्साहित होकर ही उन्होंने ‘ग्रंथ शिल्पी’ की स्थापना की और देखते-देखते इस प्रकाशन संस्थान की पुस्तकों ने अपना स्थान बना लिया। हिंदी के दिग्गज प्रतिष्ठित प्रकाशकों के लिए भी हैरानी पैदा करने वाली यह परिघटना थी। अब कहानियों, उपन्यासों और कविताओं तक सिमटा हिंदी का प्रकाशन जगत भी अपने दायरे का विस्तार करने लगा। ग्रंथ शिल्पी ने एक ‘ट्रेंड सेटर’ का काम किया। इसने न केवल इतिहास, राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र पर बल्कि शिक्षाशास्त्र और संचार माध्यम विषयों पर भी देशी-विदेशी लेखकों की कृतियों को हिंदी पाठकों तक पहुंचाया। इसका सूत्र वाक्य था- ‘ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन ही नहीं, राजनीतिक और सांस्कृतिक आंदोलन भी है’। निश्चय ही आंदोलन के पास ही वह विजन और जोखिम उठाने का माद्दा हो सकता है जो डॉ. राय ने ग्रंथ शिल्पी के माध्यम से सामने रखा। कोई भी आंदोलन अपने मित्र शक्तियों की पहचान करता है और यही वजह थी कि राय साहब हर उस पत्रिका को 2000 से 3000 तक का विज्ञापन देते थे जिसे वह समझते थे कि समाज को आगे ले जाने में इसकी कोई भूमिका है। कई प्रकाशकों ने उनकी तर्ज पर पुस्तकें प्रकाशित करनी चाहीं पर मामला केवल प्रकाशन का नहीं था-उसके लिए उस फकीरी मानसिकता की दरकार थी जो डॉ राय में थी। सरकारी खरीद में घूस देकर अपनी किताबें बेचने और लेखकों की रॉयल्टी मारकर तिजोरी भरने के आदी जिन ढेर सारे प्रकाशकों ने मुनाफे की लालच में पाठकों से दूरी बना ली है उनके बस का नहीं था ‘ग्रंथ शिल्पी’ की नकल करना। ‘ग्रंथ शिल्पी’ ने लेखकों को नियमित रॉयल्टी भी दी और अपने संस्थान को भी जिंदा रखा तो महज इसलिए कि राय साहब ने इसे एक आंदोलन समझा था और वह अपने अंतिम समय तक एक आंदोलनकारी की भूमिका में ही रहे।
उनकी कमी शायद ही कभी पूरी हो सके।
वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा का यह लेख फिलहाल पत्रिका के अप्रैल-मई 2020 अंक में प्रकाशित है और वहीं से साभार यहाँ लिया गया है
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