मध्यावधि चुनाव ज्यों-ज्यों निकटतर आते जा रहे हैं और राजनैतिक दलों की सरगर्मियां बढ़ रही हैं, त्यों-त्यों एक और प्रवृत्ति भी अधिक साफ़ उभर कर आ रही है जिससे लगता है कि आज़ादी के बीस बरस या आधुनिक राजनैतिक आंदोलन ने सौ बरस में तो क्या, हमने हज़ार बरस के इतिहास में भी बहुत कम सीखा है: या सीखा है तो केवल नया तंत्रकौशल- पुरानी मनोवृत्तियों की पुष्टि के लिए. कोई भी चुनाव सांप्रदायिक अथवा जातिगत चिंतन से मुक्त नहीं रहा है, प्रत्येक में ऐसे फिरक़ेवाराना स्वार्थों को उभार कर या उनकी दुहाई देकर वोट पाने का प्रयत्न किया गया है. फिर भी राजनैतिक लक्ष्यों के प्रति लगाव भी रहा है- जो प्रत्येक चुनाव में कमतर होता गया जान पड़ता है.
‘दिनमान’ एक समतावादी, स्वाधीन लोकतंत्र भारत के आदर्श के प्रति समर्पित है और मानता है कि यह एक लौकिक राजनैतिक आदर्श है जिसके लिए लौकिक राजनैतिक साधन ही काम में लाए जाने चाहिए. केवल इसलिए नहीं कि वही नैतिक हैं, इसलिए भी कि वही इस लक्ष्य को पूरे और स्थाई ढंग से प्राप्त कर सकते हैं: और सब में धोखा है और अगर किसी में जल्दी सफलता की मरीचिका दीखती है तो वह अधिक ख़तरनाक है, अपनी ओट में अधिक भयावह संभावनाएं लिए हुए है.
इनमें वह प्रवृत्ति प्रधान है जो धर्ममन की दुहाई देकर संकीर्णता और वैमनस्य को उभारती है. फ़रीदी साहब की मुस्लिम मजलिस भी यह करती है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी; और इससे बहुत अधिक फ़र्क नहीं पड़ता कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता कुछ ऐसी बातें भी कहते हैं कि जो अधिक आदर्शोन्मुख जान पड़ती हैं, या कि उनका संगठन अधिक व्यापक और अनुशासित है.
दोनों संगठन, जैसा कि अन्य संगठन, अपने को ‘शुद्ध सांस्कृतिक कार्य’ में लगे बताते हैं; स्वयं इस बात की अनदेखी करते हुए (और दूसरों को कदाचित् इतना बुद्धू समझते हुए?) कि यह पिछले विश्वयुद्ध से ही साबित हो चुका है कि संस्कृति को राजनीति का एक कारगर हथियार बनाया जा सकता है और आज संसार की सभी बड़ी शक्तियां ठीक इसी काम में लगी हैं – और कोई भी किसी अच्छे उद्देश्य से नहीं, अगर ख़ालिस सत्ता की दौड़ ही ‘अच्छा उद्देश्य’ नहीं है!
संस्कृति का नाम लेकर लोगों को अधिक आसानी से भड़काया और बरगलाया जा सकता है, तो ऐसा ‘सांस्कृतिक’ कार्य स्पष्ट आत्मस्वीकारी ‘राजनैतिक’ कार्य से अधिक ख़तरनाक ही होता है. फ़रीदी साहब ने कहीं यह भी कहा कि उनका संगठन ‘अल्पसंख्यकों’ की सांस्कृतिक उन्नति का काम करता है, और यह भी कि अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी सरगर्मियां बंद कर दे तो वह भी अपना काम बंद कर देंगे. क्यों? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निष्क्रिय हो जाने से अल्पसंख्यकों को भी ‘संस्कृति’ की आवश्यकता न रहेगी?
मुस्लिम मजलिस की कार्रवाइयों और मनोवृत्ति की हम भर्त्सना करते हैं. बिना किसी लाग-लपेट के हम उसे संकीर्ण, समाजविरोधी और राष्ट्रीयता के विकास में बाधक मानते हैं. उसकी कार्रवाई बंद करने की बात के साथ कोई शर्त्त हो, यह हम ठीक नहीं समझते क्योंकि वह काम हर अवस्था में ग़लत है.
और क्योंकि हम ऐसा कहते हैं, इसलिए हम यह भी मानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुशासन के मूल में भी वही दूषित, संकीर्ण और कठमुल्लई मनोवृत्ति है, और वह भी एक लौकिक भारतीय समाज के और खरी राष्ट्रीयता के विकास में उतनी ही बाधक होगी- बल्कि इसलिए कुछ अधिक ही कि वह बहुसंख्यक वर्ग का संगठन है.
‘दिनमान’ के पिछले अंकों में मत-सम्मत के अंतर्गत इस संबंध में कई पत्र छपे हैं, इस अंक में भी. स्वाभाविक है कि कुछ लोग हमसे सहमत हों, कुछ चिंतित या प्रश्नाकुल हों; पर पूर्वग्रहों में दो-एक का खंडन हम आवश्यक मानते हैं. ‘दिनमान’ के (और कई पत्रों में उसके वर्तमान संपादक के) बारे में कहा गया है (या प्रश्न उठाया गया है) कि वह हिंदू-द्वेषी है. दोनों ही की ओर से इस बात का खंडन आवश्यक है.
इन पंक्तियों के लेखक को अपने को हिंदू मानने में न केवल संकोच नहीं है, वरन् वह इस पर गर्व भी करता है; क्योंकि इस नाते वह मानव की श्रेष्ठ उपलब्धियों के एक विशाल पुंज का उत्तराधिकारी होता है. उस संपत्ति को वह खोना, बिखरने या नष्ट होने देना, या उसका प्रत्याख्यान करना नहीं चाहता. इसके बावजूद वह — और वैसा ही सोचने वाले अनेक प्रबुद्धचेता हिंदू — राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सरगर्मियों को अहितकर मानते हैं तो इसलिए नहीं कि वे हिंदू-द्वेषी या हिंदू धर्म-द्वेषी हैं, वरन् इसीलिए कि वे हिंदू हैं और बने रहना चाहते हैं.
संघ का ऐब यह नहीं है कि वह ‘हिंदू’ है; ऐब यह है कि वह हिंदुत्व को संकीर्ण और द्वेषमूलक रूप देकर उसका अहित करता है, उसके हज़ारों वर्ष के अर्जन को स्खलित करता है, सार्वभौम सत्यों को तोड़-मरोड़ कर देशज या प्रदेशज रूप देना चाहता है यानी झूठा कर देना चाहता है.
जिस दाय की बात हम कर रहे हैं, वास्तव में ‘हिंदू’ नाम उसके लिए छोटा पड़ता है: वह नाम न उतना पुराना है, न उतना व्यापक अर्थ रखने वाला, न उसके द्वारा स्वयं चुना हुआ. यह उत्तर मध्यकाल की, और इस्लाम से साक्षात्कार की देन है. इसके बोध से ही आर्य समाज में यह भावना प्रकट हुई थी कि अपने को हिंदू न कह कर ‘आर्य’ कहें: ‘हिंदू’ धर्म ‘आर्यधर्म’ की एक परवर्त्ती शाखा-भर थी.
जो हो, नाम एक बिल्ला-भर है और जिस वस्तु को चाहे जिसने, चाहे जब नाम दिया, महत्त्व वस्तु का ही है. और उसके बारे में इस आधार पर भेद करना कि कौन ‘इसी मिट्टी में’ उपजी, कौन बाहर से आई, गलत है. हिंदू या आर्यधर्म की मूल संपत्ति का – ऋग्वेद का – एक महत्त्वपूर्ण अंश ऐसे प्रदेश की देन है जो न अब भारत का अंग है, न अतीत में समूचा कभी रहा.
किसी के मन में यह भ्रांत कल्पना हो भी सकती है कि पाकिस्तान आख़िर भारत ही है और फिर उसमें आ मिलेगा: पर महाभारत के या गुप्तों के समय का गांधार जो आज अफ़गानिस्तान है, क्या उसे भी भारत में मिलाने का कोई स्वप्न देखता है? या ईरान के भाग को? अगर हां, तो उसकी बुद्धि को क्या कहा जाए? अगर नहीं, तो इस ‘देशज धर्म’ वाले तर्क का क्या अर्थ रह जाता है? वेदों के अधिभाग को हम इसलिए अमान्य कर दें कि वह उस भूमि पर नहीं बना जो भारत है? क्यों? क्या सत्य इसीलिए अग्राह्य होगा कि वह अमुक मिट्टी का नहीं है? तब सार्वभौम सत्य क्या होता है? और समूचे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का हम क्या करेंगे? कि सब अग्राह्य है क्योंकि इस मिट्टी की उपज नहीं है?
और फिर उसका हम (और दूसरे) क्या करेंगे जो यहां पैदा हुआ और अन्यत्र गया? क्या हम इसका समर्थन करेंगे कि श्रीलंका, बर्मा, तिब्बत, नेपाल, लाओस, कंबोडिया आदि बौद्ध धर्म को खदेड़ कर भारत भेज दें क्योंकि वह उन देशों की उपज नहीं है? शायद हम कहेंगे कि सिंहली या भोट बौद्ध धर्म अलग है, इसका स्वतंत्र विकास हुआ है. पर एक तो मूल वही रहेगा, दूसरे क्या इस्लाम का स्वतंत्र विकास भारत में नहीं हुआ? क्या हिंदुस्तानी मुसलमान, अरब या ईरानी मुसलमान से उतना ही भिन्न नहीं है जितना सिंहली बौद्ध हिंदुस्तानी बौद्ध से?
नहीं, ऐसी ‘देशज’ अंधता को हम राष्ट्रीयता नहीं मान सकते; न हम हिंदुत्व पर इस नाते गर्व करते हैं कि वह इस मिट्टी की देन है, बल्कि मिट्टी पर इसलिए गर्व कर सकते हैं कि उसमें ऐसे सत्य उपजे जो सार्वभौम हैं. एक हिंदू धर्म ने ही धर्म-विश्वासों और धर्ममतों से ऊपर आचरित धर्म को; ऋत के अर्थात् सार्वभौम सत्य के अनुकूल आचरण को महत्त्व दिया. अन्य धर्मों के उदारतर पक्ष अब उस आदर्श की ओर बढ़ रहे हैं और उसी में मानव मात्र के भविष्य की उज्ज्वल संभावनाएं हैं: नहीं तो ‘अंधेन नीयमाना अंधा:’ के लिए उपनिषद् कह गया है:
असुर्या नाम ते लोक अंधेन तमसावृता:
तांस्ते प्रेत्यभिगच्छंति ये के चात्महनो जना:
ऐसे आत्महंताओं की संख्या हम न बढ़ावें, चुनाव जीतने के लिए भी नहीं.
(‘स.ही.वा.’ नाम से ‘दिनमान’ के 8 दिसम्बर, 1968 के अंक में छपा संपादकीय, साभार ओम थानवी)