18वीं शताब्दी के महान तर्कवादियों ने इस बात का प्रयास किया कि प्रकृति के वस्तुगत औचित्य की तलाश की जाय। उन्होंने पाया कि इसका सरोकार सार्वभौमिक तौर पर कारण-कार्य संबंधों में है- उस नियतिवाद में है जिससे प्रकृति की परिघटना संचालित होती है। लेकिन वे इससे और आगे गए और उन्होंने यह मांग रखी कि मानव समुदाय के कार्यकलाप भी तर्क और विचार से और इस प्रकार अधिकार और न्याय से संचालित हों। उन्होंने तर्कहीनता के समूचे भंडार पर प्रहार किया, रूढ़ियों के प्रति अंधभक्ति, इसमें निहित असहिष्णुता और इसकी उन दलीलों का विरोध किया जो तर्क और विचार के खिलाफ सामने आती हैं।
1930 के दशक में अतार्किकता का दैत्य अपने वीभत्स रूप में सामने आया। इसका मुख्य लक्ष्य बदले की भावना से तर्क के खिलाफ आवाज उठाना था। हिटलर के कार्यक्रमों का एक हिस्सा विज्ञान के वस्तुगत और तार्किक मानकों को ध्वस्त करना था। उसका मानना था कि विज्ञान को प्रयोगों के जरिये नहीं बल्कि अनुभव के अनुरूप मानसिक बनावट के आधार पर आगे बढ़ना चाहिए। इसे तानाशाह की इच्छा और उसके द्वारा निर्धारित मानदंडों का पालन करते हुए काम करना चाहिए। इसके लिए उसने जो बुनियादी मानक तय किया उसके पीछे वैज्ञानिक अवधारणा की नस्ली पृष्ठभूमि थी। समग्र रूप से देखें तो सिद्धांतगत आधार पर की जाने वाली सोच इस मानक को पूरा नहीं करती थी। जैसा कि नाजी पार्टी के शिक्षामंत्री बर्नहार्ड रस्ट ने ऐलान किया, वह ध्यान देने योग्य है- ‘‘राष्ट्रीय समाजवाद विज्ञान का नहीं बल्कि इसके सिद्धांतों का दुश्मन है।’’
सापेक्षता के सिद्धांत के पीछे जो तार्किक अवधारणा है वह स्थूल जगत के वस्तुगत यथार्थ के विश्वास पर ठोस रूप से आधारित है और यह नाजी विचारों के लिए एक घृणास्पद अवधारणा थी। उस समय के दो वैज्ञानिकों लेनॉर्ड और स्टॉर्क ने, जिन्हें आइंस्टीन और सापेक्षता के सिद्धान्त पर हमला करने के लिए पहले कभी मुंह की खानी पड़ी थी, फौरन ही बदले की भावना से हमला किया। 1933 में लेनॉर्ड ने ‘फेल्किस बोउवख्तर’ नामक पत्रिका में लिखाः
प्रकृति के अध्ययन में यहूदियों के सबसे खतरनाक प्रभाव का उत्कृष्ट उदाहरण आइंस्टीन ने गणित के अपने ऐसे ऊलजुलूल सिद्धांतों से प्रस्तुत किया है जिसमें कुछ प्राचीन ज्ञान और मनमाने ढंग से जोड़-तोड़ का सहारा लिया गया है। उनके इस सिद्धांत को आज चूर-चूर कर दिया गया। प्रकृति से विरक्त सभी उत्पादों के साथ ऐसा ही होता है। यहां तक कि वे वैज्ञानिक भी, जिन्होंने दूसरे काम किए हैं, इस कलंक से नहीं बच सकते कि उन्होंने सापेक्षता के सिद्धांत को जर्मनी में स्थापित होने में मदद पहुंचाई। वे यह नहीं देख सके या वे यह देखना नहीं चाहते थे कि विज्ञान के क्षेत्र से बाहर भी इस यहूदी को एक अच्छा जर्मन नागरिक मान लेना कितना गलत है।
दो वर्ष बाद भौतिकशास्त्र की एक संस्था के उद्घाटन समारोह में लेनॉर्ड ने कहाः
मैं उम्मीद करता हूं कि यह संस्थान विज्ञान के क्षेत्र में एशियाई विचारधारा के खिलाफ युद्ध का शंखनाद करेगा। हमारे फ्यूरर (हिटलर) ने राजनीति और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में इस विचार को पूरी तरह समाप्त कर दिया है जिसे मार्क्सवाद के रूप में जाना जाता है, लेकिन प्रकृति विज्ञान में आइंस्टीन को जरूरत से ज्यादा महत्व देने की वजह से इस विचारधारा का अभी भी बोलबाला बना हुआ है। हमें अच्छी तरह यह समझ लेना चाहिए कि किसी जर्मन के लिए किसी यहूदी का बौद्धिक अनुयायी बनना अत्यंत घृणित काम है। प्रकृति विज्ञान पूरी तरह आर्यों के मूल से निकला है और आज जर्मन लोगों को भी अज्ञात की तलाश में अपना खुद का रास्ता ढूंढना होगा।
सापेक्षता के सिद्धांत की नस्लगत विसंगतियों के प्रमाण जुटाए गए और इसके रचयिता की नस्ली पृष्ठभूमि पर गौर किया गया। यह माना गया कि इसका ‘आर्यन भौतिकशास्त्र’ से कोई मतलब नहीं है। इतना ही नहीं, व्यवहार में भी विज्ञान के शुद्धिकरण का नाजियों द्वारा चलाया गया कार्यक्रम केवल विज्ञान के क्षेत्र तक ही नहीं सीमित रहा बल्कि वैज्ञानिकों के माता-पिता और दादा-दादी की पृष्ठभूमि तक गया और इस बात पर गौर किया गया कि नस्ल के आधार पर अपने से नीच सहकर्मियों के साथ उनका कितना उठना-बैठना है। खुशकिस्मती की बात है कि जब पूरी तैयारी के साथ जर्मनी के विश्वविद्यालयों और विज्ञान के शुद्धिकरण का काम नाजियों ने शुरू किया उस समय तक आइंस्टीन देश छोड़कर बाहर जा चुके थे और हिटलर की खुफिया पुलिस और उसके गुर्गों (स्टार्मट्रूपर्स) की पहुंच से बहुत दूर थे।
दरअसल, 1930 से ही आइंस्टीन कैलिफोर्निया के इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में पढ़ाने जाया करते थे। 1932 के वसंत में जर्मनी के राष्ट्रपति के रूप में हिंडेनबर्ग के चुनाव जीतने के कुछ ही समय बाद आइंस्टीन कैलिफोर्निया से वापस बर्लिन पहुंचे थे। कापुथ स्थित उनके निवास में अनेक मित्रों ने हाल की घटनाओं पर बातचीत की। चर्चा का विषय था ब्रूनिंग का इस्तीफा, जर्मनी के चांसलर के रूप में पापेन की नियुक्ति और राजनीतिक परिदृश्य पर श्लेशर का स्थापित होना। आइंस्टीन ने गौर किया कि जिन लोगों का देश की वित्तीय पूंजी पर दबदबा है वे सत्ता में हिटलर को लाने का रास्ता तैयार कर रहे हैं। 1932 की सर्दियों में जब वह अपनी पत्नी के साथ कैलिफोर्निया के लिए रवाना हो रहे थे, उन्होंने घर से निकलने से पहले अपनी पत्नी से कहा- ‘‘एक बार अच्छी तरह इस घर को देख लो।’’
‘‘ऐसा क्यों?’’ पत्नी ने पूछा।
‘‘अब शायद तुम इसे फिर नहीं देख सकोगी।’’
जब हिटलर सत्ता में आया उस समय तक आइंस्टीन कैलिफोर्निया पहुंच चुके थे। 1932-33 में हिटलर की देखरेख में जर्मन विश्वविद्यालयों के शुद्धिकरण का अभियान चलाया गया। उस समय आइंस्टीन न्यूयॉर्क में थे जहां उन्होंने जर्मनी के राजदूत से मुलाकात की। राजदूत ने आइंस्टीन से कहा कि जर्मनी वापस जाने में उन्हें डरना नहीं चाहिए क्योंकि हिटलर की नई सरकार बहुत न्यायप्रिय है और सबके साथ न्याय करेगी। अगर वह बेकसूर हैं तो उनका कुछ नहीं होगा, लेकिन आइंस्टीन ने एलान किया कि जब तक नाजी सरकार सत्ता में रहेगी वह जर्मनी नहीं लौटेंगे। राजदूत के साथ औपचारिक बातचीत का दौर जब समाप्त हो गया तो राजदूत ने उनसे निजी तौर पर कहा, ‘‘प्रोफेसर आइंस्टीन, अब हम एक इंसान के रूप में एक दूसरे से बात कर रहे हैं और मैं आपको यही कह सकता हूं कि आप जो कुछ भी कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं।’’
1933 के वसंत की शुरुआत के साथ ही आइंस्टीन यूरोप आ गए और बेल्जियम में ओस्तेंदे से कुछ दूर समुद्र के किनारे ला कोक में एक छोटा सा मकान लेकर रहने लगे। बेल्जियम की साम्राज्ञी महारानी एलिजाबेथ की आइंस्टीन के सिद्धांतों में काफी दिलचस्पी थी और एक वैज्ञानिक के रूप में वह उनका बहुत सम्मान करती थीं। बेल्जियम के शाही परिवार और वहां की सरकार ने इस बात की पूरी सतर्कता बरती कि जर्मनी से आकर कोई आइंस्टीन को नुकसान न पहुंचा सके। उनकी सुरक्षा के लिए सरकार ने कुछ अंगरक्षकों को तैनात कर दिया जो दिन रात उनके मकान के इर्द-गिर्द डटे रहते थे। 1933 की गर्मियों में फिलिप फ्रैंक ने उधर से गुजरते हुए आइंस्टीन से मिलना तय किया। वह ला कोक गया और वहां के लोगों से जानकारी लेनी चाही कि आइंस्टीन कहां रहते हैं। अधिकारियों ने वहां रहने वालों को सख्त हिदायत दी थी कि वे किसी भी हालत में किसी को यह जानकारी न दें कि आइंस्टीन कहां रहते हैं। फिलिप फ्रैंक की पूछताछ ने आइंस्टीन की हिफाजत के लिए तैनात सैनिकों को सतर्क कर दिया। आखिरकार उसने आइंस्टीन की पत्नी को ढूंढ निकाला और जब आइंस्टीन की पत्नी ने फ्रैंक को देखा तो, जैसा कि उसने अपने एक विवरण में लिखा है, वह बेहद डर गईं। उन्हें पहले से ही किसी ने खबर दी थी कि हिटलर ने आइंस्टीन की हत्या के लिए किसी को रवाना किया है।
इस पैमाने पर अपनी हिफाजत की व्यवस्था देखकर आइंस्टीन को चिढ़ होने लगी थी, लेकिन जिन लोगों ने यह व्यवस्था की थी वे इसे उचित मानते थे और इसे जारी रखने के पक्ष में थे। वैज्ञानिकों की सूची में आइंस्टीन शीर्ष स्थान पर थे और उन्हें पता था कि किसी भी समय बगल के देश जर्मनी का कोई नाजी एजेंट मुसीबत बनकर आ सकता है और यह भी उन्हें पता था कि जर्मनी में रहने वाले उनके घनिष्ठ मित्र भी उनके प्रति चिंतित रहते हैं।
बेल्जियम में समुद्र के किनारे जिस मकान में वह रहते थे उसमें उनकी पत्नी के अलावा उनकी सौतेली बेटी मार्गट और उनकी सेक्रेटरी हेलेन भी रहती थी। जर्मनी से रवाना होने से पहले मार्गट ने बड़े परिश्रम से इस बात की व्यवस्था की थी कि आइंस्टीन के कुछ जरूरी कागजात और दस्तावेज फ्रांसीसी दूतावास की मदद से देश से बाहर पहुंचा दिए जायं।
1933 में ऐंतोनिना वैलेंतिन ने आइंस्टीन से उनके निवास में मुलाकात की। बाद में उसने अपनी पुस्तक में लिखाः
उस साल वसंत देर से आया था। सर्दियों का धूसर आसमान बहुत दमनकारी लग रहा था। समुद्र की लहरें तट से टकरा कर वापस जा रही थीं और उनका शोर गूंज रहा था। उस छोटे से मकान में लहरों के शोर के बीच जो अन्य आवाजें थीं उसमें लोगों की पदचाप, प्लेट और तश्तरी की खड़खड़ाहट और टाइपराइटर से निकलती एक धुन थी।
एंतोनिना ने देखा कि आइंस्टीन शांत मुद्रा में अपने काम में लगे थे। वह अभी भी विज्ञान की जटिलताओं को समझने में तल्लीन थे और अपने इस दुर्दिन के बारे में व्यंग्यात्मक ढंग से टिप्पणी करते थे। जब वह हंसते थे तो लगता था जैसे कोई विशाल वृक्ष अपनी शक्तिशाली शाखों के साथ हिल रहा हो। एंतोनिना ने उनकी पत्नी एल्सा को जर्मनी में प्रकाशित एक एलबम दिखाया जिसमें उन लोगों की तस्वीरें लगी थीं जो नाजी सरकार के विरोधी थे। इसके पहले पृष्ठ पर ही आइंस्टीन का फोटोग्राफ था और उनके ‘अपराधों’ की सूची थी जिनमें पहला अपराध ‘सापेक्षता का सिद्धांत’ था। इस सूची के अंत में एक टिप्पणी थी – ‘अभी मारा नहीं गया।’
आइंस्टीन की पत्नी लगातार इस भय में जी रही थीं कि कहीं कोई उकसावे की कार्रवाई न हो। उन्होंने फ्रैंक को बताया था कि कुछ दिन पहले नाजी पार्टी का एक कार्यकर्ता आया था जो इस बात के लिए आमादा था कि आइंस्टीन उससे मिलें। उसे पूरा यकीन था कि प्रवासियों का जो फासिस्ट विरोधी संगठन है उसका नेतृत्व आइंस्टीन कर रहे हैं। उसने प्रस्ताव रखा कि उसके पास नाजी पार्टी के कुछ गुप्त दस्तावेज हैं जिन्हें वह उन्हें बेचना चाहता है। आइंस्टीन को लगता था कि अपहरण से लेकर हत्या तक कभी भी कुछ भी उनके साथ हो सकता है।
फ्रैंक के साथ बातचीत के दौरान आइंस्टीन ने बताया कि बर्लिन से बाहर आने के बाद उन्हें मनोवैज्ञानिक ढंग से मुक्ति का अहसास हुआ। उनकी पत्नी उनके इस तरह के बयानों से सहमत नहीं थीं और उनका कहना था कि बर्लिन में उनके पति ने बड़े सुखद दिन बिताए थे और वहां के प्रमुख भौतिकशास्त्रियों के सान्निध्य में उन्हें बहुत अच्छा लगता था। आइंस्टीन इससे सहमत थे और वह मानते थे कि अगर विज्ञान की दृष्टि से ही देखा जाय तो निश्चय ही बर्लिन उनके लिए बहुत अच्छी जगह थी। लेकिन उनका कहना था कि वह न जाने क्यों वहां एक अजीब किस्म का दबाव महसूस कर रहे थे और उन्हें इस बात का पूर्वाभास हो गया था कि यहां उनका अंत अच्छा नहीं होगा।
इसी उधेड़बुन में आइंस्टीन ने रशियन अकादमी से इस्तीफा दे दिया था। उन्हें पता था कि अगर वह इस्तीफा नहीं भी देंगे तो नाजी शासक उन्हें वहां से निकाल बाहर करेंगे। ऐसी हालत में मैक्स प्लैंक जैसे जर्मन वैज्ञानिकों के सामने एक अजीब स्थिति पैदा हो जाएगी। अगर वे आइंस्टीन के निष्कासन का विरोध करेंगे तो नाजी सरकार उन्हें दंडित करने से छोड़ेगी नहीं। अगर वे निष्कासन के पक्ष में होंगे तो इससे वे खुद को कलंकित महसूस करेंगे। मुसीबत वाली इस स्थिति से अपने मित्रों को बचाने के लिए आइंस्टीन ने अकादमी को एक पत्र लिखा कि मौजूदा सरकार के रहते हुए वह अपने पद पर काम नहीं कर सकते और फिर उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
उनका इस्तीफा मिलते ही अकादमी की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। अकादमी के अध्यक्ष को इस बात का गर्व था कि उस संस्थान के साथ वाल्टेयर, द ’लम्बेयर (गणितज्ञ) और मापर्चुइस (गणितज्ञ व दार्शनिक) जैसी फ्रांसीसी हस्तियां किसी जमाने में जुड़ी हुई थीं और ऐसे में किसी ऐसे व्यक्ति का इस्तीफा कैसे मंजूर किया जाय जो मानसिक तौर पर जर्मनी का ही राष्ट्रीय नागरिक है। लेकिन उन पर नाजियों का दबाव था। लिहाजा अकादमी ने न केवल वह इस्तीफा मंजूर किया बल्कि एक बयान भी प्रकाशित किया जिसमें आरोप लगाया गया था कि आइंस्टीन की गतिविधियां जर्मन राष्ट्र के हितों के खिलाफ हैं और वह खुद भी शासन द्वारा किए जा रहे अत्याचार की खबरें फैलाते हैं जबकि उनको इसका विरोध करना चाहिए। अकादमी ने आइंस्टीन को एक पत्र के माध्यम से लिखा, ‘‘अगर आप जर्मनी की सत्ता के बारे में कुछ अच्छे शब्द बोल देते तो इसका विदेशों में बहुत अच्छा असर होता।’’
आइंस्टीन ने जवाब में लिखा कि अगर वह ‘अच्छे शब्द’ बोलेंगे तो इसका अर्थ न्याय और स्वतंत्रता की उन धारणाओं का तिरस्कार होगा जिनके लिए वह जीवन भर संघर्ष करते रहे। उन्होंने आगे लिखा कि उनकी तरफ से इस तरह का प्रमाण पत्र देना उन सिद्धांतों को नीचा दिखाना है जिनके आधार पर सभ्य समाज में जर्मनी की जनता को एक सम्मान का स्थान प्राप्त है। उन्होंने लिखा-
मौजूदा परिस्थितियों में इस तरह का कोई प्रमाण पत्र देने का अर्थ यह होगा कि मैं परोक्ष रूप से ही सही नैतिक भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने और मौजूदा सांस्कृतिक मूल्यों को नष्ट करने में योगदान दे रहा हूं। इसी वजह से मैंने अत्यंत मजबूरी में अकादमी से इस्तीफा दिया और आपके इस पत्र से साबित होता है कि मैंने जो कुछ भी किया, अच्छा किया।
मैक्स प्लैंक के अंदर जो जातीय पूर्वाग्रह थे उसकी वजह से उसके लिए यह समझना असंभव हो गया कि जर्मनी में जो कुछ हो रहा था उसका वास्तविक अर्थ क्या था। वह ईमानदारी से यह मानता था कि नई सत्ता द्वारा की जा रही ज्यादतियां एक अस्थायी आनुषंगिक परिघटना है। यहां तक कि उसने एक प्रोफेसर को, जिसने जर्मनी छोड़ने का फैसला किया था, सलाह दी कि वह एक साल की छुट्टी पर चला जाय। उसका विश्वास था कि साल भर बाद नई सरकार की इन गतिविधियों की समाप्ति हो जाएगी। एक मौके पर तो उसने व्यक्तिगत रूप से हिटलर से बातचीत भी की कि वह कैसर विल्हम इंस्टीट्यूट में ‘अनार्य’ वैज्ञानिकों को काम करने दें। प्लैंक को हैरानी हुई जब हिटलर ने अपने चिर परिचित पागलपन भरे अंदाज में उस ‘महान लक्ष्य’ की फिर घोषणा की जिसमें कहा गया था कि राइक (जर्मन राज्य) के दुश्मनों को समाप्त किए बगैर वह अपना काम नहीं रोकेगा। प्लैंक इस बात के लिए अभिशप्त था कि वह जर्मन विज्ञान के अधःपतन को देखे और आइंस्टीन को इस बात की खुशी थी कि उन्होंने अपने मित्र के दुख को और नहीं बढ़ाया।
मार्च 1933 में पुलिस ने जर्मनी में आइंस्टीन के निवास की तलाशी ली और उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली। हिटलर की राजनीतिक पुलिस का कहना था कि इस संपत्ति से कम्युनिस्ट आंदोलन को मदद पहुंचाने की योजना थी। इसके कुछ ही दिन बाद आइंस्टीन के लेखों को, जिनमें सापेक्षता के सिद्धांत पर उनके कई लेख थे, सार्वजनिक तौर पर बर्लिन में स्टेट ऑपेरा हाउस के चौराहे पर ‘अनार्यन और कम्युनिस्ट साहित्य’ के साथ जलाया गया।
इन सबके बावजूद नाजी शासन के दौरान भी कुछ प्रोफेसरों ने सापेक्षता के सिद्धांत को पढ़ाना जारी रखा। ऐसा करते समय वे न तो इस सिद्धांत का नाम लेते थे और न आइंस्टीन के नाम का ही उल्लेख करते थे- बस वे बुनियादी अवधारणा की व्याख्या किए बगैर फार्मूलों और निष्कर्षों पर ही ध्यान केंद्रित करते थे। कुछ भौतिकशास्त्रियों ने यह भी योजना बनाई कि वे किसी तरह लेनॉर्ड जैसे वैज्ञानिकों और उनके सापेक्षतावाद विरोधी सिद्धांतों से मुक्ति पा लें। उन्होंने सोचा कि अगर ब्रातिस्लावा के अभिलेखागार में खोजबीन की जाय, जहां लेनॉर्ड के पूर्वज रहा करते थे, तो शायद ऐसी कोई सामग्री मिल सके जिससे यह साबित हो कि लेनॉर्ड की नसों में भी अनार्य खून था।
गार्गी प्रकाशन द्वारा शीघ्र प्रकाश्य बी. कुज़नेत्सोव की पुस्तक ‘अल्बर्ट आइंस्टीन’ से; अनुवाद: आनंद स्वरूप वर्मा