पॉलिटिकली Incorrect: रैदास के बेगमपुरा में किताबों के लंगर भी होते, काश!


आपको कैसा लगेगा अगर मूंगफली की उम्मीद में बढ़ी आपकी अंजुरी बादाम से भर जाए! आप चाय की तलाश में हैं और आपको गरमागरम दूध का न्योता मिल जाए। प्यास लगी हो और लोग ठेठ मक्‍खन वाली छाछ लिए आपकी सिफ़ारिश कर रहे हों। 

टीकरी बॉर्डर पर जमे किसान जत्थों के बीच घूमते हुए ऐसे वाकये बार-बार घटित हुए। कुछ लोग बच्चों को खाने की चीज़ें बांट रहे थे, लगा मूंगफली है, लेकिन हथेली बादाम से भर गई। सुबह-सुबह दिल्ली से आए कुछ नौजवान टूथ ब्रश, साबुन शैंपू बांट रहे थे। लुधियाना से कुछ लोग मोजे लेकर आए थे। जब मैंने एक जोड़ी मोजा मांग लिया तो इऩ्हें पैर में डालते हुए वो सज्जन बड़ी संतोष भरी नज़रों से देख रहे थे।

पीछे गांवों से दूध, छाछ, सब्ज़ी, राशन और सूखी लकड़िया लिये गाड़ियां आ रही हैं। कदम-कदम पर रुक कर ये सामान लंगरों में, ग्रुपों में लोगों को बांटे जा रहे हैं।

इन्हीं सबके बीच टीकरी बॉर्डर पर यूनियन का झंडा साइकिल में टांगे एक नौजवान माइक से अनाउंस करता जा रहा था- ‘ज़रूरत से अधिक सामान न लें। सामान स्टोर न करें।’ इस नौजवान की ड्यूटी है कि पांच किलोमीटर के दायरे में लोगों को बताये।

ऐसी कहानियां सिर्फ़ टीकरी बॉर्डर की नहीं हैं, ना ही सिर्फ सिंघु बॉर्डर की, जहां जनता का रेला रुका हुआ है। अनगिनत कहानियां हैं और सबका सिरा कहीं एक जगह जुड़ा हुआ है।

ये देख हैरान रह जाएंगे कि किसान आंदोलन में कौन सी चीज़ है, जिसका लंगर नहीं लगा है। सिंघु, टिकरी, चिल्ला, गाज़ीपुर, शाहजहांपुर हर जगह, हर उस चीज़ का लंगर है जिसके बारे में आपको जरूरत पड़ने पर ही ख्याल आ सकता है। लेकिन इससे इतर भी कुछ है जिसे आप वहां पहुंच कर ही महसूस कर पाएंगे।

सिंघू पर बारिश के समय पॉलिथीन की तिरपाल बांटी जा रही है तो साथ में पिज़्ज़ा और गोलगप्पों के लंगर भी लगे हैं। वॉशिंग मशीन, जिम, रोटी बनाने वाली मशीन, टेलीविज़न, टाटा स्काई की छतरियां, मोबाइल चार्ज करने के सामूहिक प्वाइंट, निजी वाइफ़ाई के राउटर्स, अंगीठी जैसा काम करने वाला देसी गीज़र, कदम-कदम पर मेडिकल कैंप, सफ़ाई करने वाले दस्ते, सुरक्षा में मुस्तैद जवान, रात में पहरेदारी करने वाली पैट्रोल टीमें…।

टीकरी और सिंघु बॉर्डर पर जहां तक ट्रालियों का रेला खड़ा है उसके आसपास की आबादी शिकायत करने के बजाय खुश है। लंगर लगा है तो सिर्फ किसानों के लिए नहीं, सर्वहारा और अर्धसर्वहारा के लिए भी उतना ही खुला है।

हाइवे के किनारे बसी आबादी को अपना धंधा बंद होने और आने-जाने की परेशानी का दुख नहीं है। बुज़ुर्ग किसानों के लिए घर के टॉयलेट और बाथरूम सुबह चार बजे ही खोल दिए जाते हैं।

शायद ये ऐसा पहला आंदोलन है जिससे आसपास के लोग खुश हैं।

जिस समय ये लिख रहा हूं, मेट्रो से टीकरी के रास्ते में हूं और एक एक्जीक्यूटिव टाइप बुज़ुर्ग सज्जन अपने फोन पर किसानों के बारे में अपशब्द बोलते हुए यही शिकायत कर रहे हैं, “इनके लंगरों में तो पकवान बन रहे हैं। वहां तो बादाम पिस्ता बंट रहे हैं। जश्न मना रहे हैं।”

सिंघू बॉर्डर पर जब पिज़्ज़ा लंगर शुरू हुआ तो यही नुक्स निकाला गया, लेकिन अब तो वहां फुट मसाज़र का भी इंतज़ाम हो गया है!

वैसे तो किसान अपना राशन लेकर चले थे, शायद उन्हें इस बात का इल्म रहा हो कि जो लोग उनके आंदोलन को खत्म करना चाहते हों वो पानी तक क्यों मुहैया कराएंगे। हो भी वही रहा है। सिंघु बॉर्डर पर बीच-बीच में बिजली काट दी जा रही है। सरकार की ओर से टॉयलेट तक की व्यवस्था नहीं है। हरियाणा की खट्टर सरकार ने पानी के टैंकर तक नहीं भेजे। ठंड में मरते लोगों के इलाज के लिए कोई सरकारी मेडिकल कैंप तक नहीं। दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने दिल्ली की तरफ़ कुछ व्यवस्था की है, लेकिन बस खानापूर्ति।

मोदी सरकार का ऐसा रुख है मानो ये अपने मुल्क के लोग ही नहीं। शायद इसीलिए आंदोलन के दौरान क़रीब 60 किसानों के मारे जाने को लोग हत्‍या और आपराधिक अनदेखी क़रार दे रहे हैं।

सिंघु और टीकरी पर बीसियों किलोमीटर तक छावनी में तब्दील इन अस्थाई शहरों की पूरी व्यवस्था को जनता ने अपने हाथों में ले लिया है।

हर एक किलोमीटर पर व्यवस्था कमेटियां बन गई हैं जो हर ज़रूरत का समान पहुंचाने से लेकर सुरक्षा व्यवस्था, ट्रैफिक संचालन और बुजुर्गों की देखभाल तक का जिम्मा लिए हैं। अगर कोई नगर परिषद या नगर पालिका होती तो भी इतना कुशल और समाजवादी टाइप व्यवस्था नहीं दे पाती।

ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट शयमवीर कहते हैं कि किसानों ने दिखा दिया है कि अगर देश चलाने की ज़िम्मेदारी उन्हें और मजदूरों को मिल जाए तो वे ऐसी ही खुशहाल व्यवस्था पूरे देश में ला सकते हैं जहां ज़रूरत की सभी चीजें, ज़रूरत के अनुसार उपलब्ध होंगी। जहां सुविधाएं सारी हैं, बगैर बाज़ार के और बिना एक नया टैक्स लिए।

रैदास ने शायद ऐसे ही शहरों की कल्पना अपने ‘बेगमपुरा’ में की रही होगी, ‘जहां ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और छूत-अछूत का भेद नहीं है; जहां कोई टैक्स नहीं, कोई संपत्ति का मालिक नहीं; कोई अन्याय, कोई चिंता, कोई आतंक, कोई यातना नहीं।’

दिल्‍ली के बॉर्डरों पर रैदास के असंख्य बेगमपुरा उग आए हैं। बस इस बेगमपुरा में एक चीज़ की कमी खलती है- किताबों की। सिंघु पर कुछ लोगों ने मिल कर भगत सिंह लाइब्रेरी बना दी है, जहां लोग बैठकर पढ़ते हैं। एक-दो किताबों की दुकानें भी अस्थाई डेरे में शामिल हो गई हैं।

टीकरी बॉर्डर पर भी एक भगत सिंह लाइब्रेरी है और ट्रॉली टाइम्स का कैंप दफ़्तर भी। ट्रॉली टाइम्स इन किताबों की कमी को कुछ हद तक पूरा करने की कोशिश भर है।

इन सबके बावजूद किसानों के बेगमपुरा में किताबों का लंगर नहीं है। कोई नहीं कहने वाला, ‘आओ जी, किताबां हैं, प्यारी प्यारी किताबां। पढ़ लो और जी करे ले जाओ जी।’

‘आओ जी तुसी लंगर छक लेयो’ की कदम-कदम आवाज़ के बीच जैसे कुछ खालीपन सा सालता है।

सरकार बहादुर नहीं चाहती, इसलिए इस साल विश्व पुस्तक मेला नहीं लग रहा। काश! कि सारे प्रकाशक इसी आंदोलन के बीचोबीच विश्व पुस्तक मेला लगा देते। लग जाता किताबों का लंगर और बन जाता मुकम्मल बेगमपुरा।



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