अब रामलला तिरपाल में नहीं रहेंगे. भूमिपूजन के दिन भगवान राम के नाम के बहुत दिये जलाये लोगों ने, पर हम हिंदुस्तानियों की समस्या है कि हम प्रतीकों को अधिक महत्व देते हैं और असली विरासत को छोड़ देते हैं. भगवान राम से जुड़ी पवित्र नदी छोटी सरयू की दशा बदतर थी और सूखने के कगार पर थी.
असल में, सरयू और छोटी सरयू को लेकर भ्रमित न हों.
मैं जिस सरयू के बारे में लिखने जा रहा हूं वह असल में वो नदी नहीं है जो अभी घाटों पर दिख रही है और हाल तक जिसके दो नाम थे, सरयू और घाघरा और अयोध्या के आसपास के टुकड़े को सरयू कहा जाता था (हालांकि उत्तर प्रदेश शासन ने अब पूरी नदी का नाम बदलकर सरयू कर दिया है).
सरयू नदी की एक पूर्व धारा रही नदी को स्थानीय रूप से छोटी सरयू कहा जाता है, पर पवन सिंह जैसे कुछ लोगों और लोक दायित्व जैसी संस्था ने अथक मेहनत से उसे बचा लिया. लिहाजा, नदी जी गयी है.
आजमगढ़ की नदियों पर काम कर रहे और गैर-सरकारी संस्था लोक दायित्व के संयोजक पवन कुमार सिंह ने 2018 में छोटी सरयू को मूल सरयू का नाम देकर इसको बचाने के लिए अभियान प्रारम्भ किया. उनका दावा है कि छोटी सरयू ही मूल सरयू है.
बहरहाल, छोटी या मूल सरयू को बचाने की यह कामयाब कोशिश हमें समाज की शक्ति के बारे में बताती है. जहां सरकारें अपनी लापरवाही को आलसी नौकरशाहों की आड़ में बचा ले जाती हैं, तब शायद समाज को ही अपनी विरासत बचाने के लिए खड़ा होना पड़ता है. 2018 तक स्थिति यह थी कि आकार में काफी हद तक सिकुड़ चुकी छोटी सरयू नदी का क्षेत्रफल लगातार सिमटता जा रहा था. (अभी यह बहुत संकरे बरसाती नाले की रूप में है)
साफ-सफाई न होने से नदी का प्रवाह थम-सा गया था. आजमगढ़ के लाटघाट से शुरू हुआ 59 किलोमीटर का सफर तय करते-करते नगर की तलहटी में प्रवाहित तमसा तक आते-आते नदी का पानी काला पड़ जाता था. नदी का अस्तित्व मिटने के कगार पर पहुंच गया था पर प्रशासन मौन ही रहा.
छोटी सरयू नदी आंबेडकर नगर जिले से निकलती है और आज़मगढ़ के विभिन्न इलाकों से होती हुई बड़गांव ब्लॉक क्षेत्र होती हुई कोपागंज ब्लॉक के सहरोज गांव के पास टौंस नदी में मिल जाती है. एक ज़माना था जब कोपागंज ब्लॉक क्षेत्र के सिंचाई का एकमात्र साधन छोटी सरयू नदी थी. सैकड़ों गांवों के लोग पेयजल के लिए भी इसी पर निर्भर थे.
औद्योगिक प्रदूषण की मार से कहीं-कहीं नदी का पानी इतना ज़हरीला हो गया है कि पशु भी इसका पानी पीने से कतराते हैं. इस नदी में पानी की कमी थी और गर्मियों में हालात और भी खराब थे.
आजमगढ़ जिले के महुआ गढ़वल रेगुलेटर से समय-समय पर पानी छोड़ा जाता, तो नदी में थोड़ी जिंदगी लौट आती थी. अतिक्रमण सुरसा की तरह अलग मुंह फाड़े नदी को निगल रहा था (यह संकट अब भी है). लोकदायित्व संस्था के पवन सिंह की मांग है कि गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा जैसी बड़ी नदियों को पोषित करने वाली छोटी नदियों की दुर्दशा पर भी लोगों को और प्रशासन को ध्यान देना चाहिए.
असल में, आजमगढ़ जिले में छोटी-बड़ी मिलाकर लगभग डेढ़ दर्जन नदियां हैं जिनके बेसिन में पानी का ऐसा संकट है कि वहां डार्क जोन बन रहा है. पवन सिंह कहते हैं कि आजमगढ़ जिले के उत्तरी इलाके के तमाम गांव में जलस्तर काफी नीचे चला गया है और पानी प्रदूषित हो चुका है जबकि इस क्षेत्र में सरयू नदी का एक बड़ा तंत्र रहा है जिसके अवशेष आज भी दिखते हैं और उन्हीं अवेशेषों में एक है छोटी सरयू.
असल में, मूल सरयू नदी, जिसे सरकारी अभिलेखों में छोटी सरयू के नाम से दर्ज किया गया है, पहले सरयू की मुख्यधारा हुआ करती थी. समय के साथ अपने कटाव और धारा बदलती हुई यह नदी पिछले कुछ सदियों में 15 से 70 किमी तक उत्तर दिशा की ओर बढ़ गयी. इसके छाड़न के रूप में नदी का मार्ग रह गया, जिसे बाद में छोटी सरयू कहा जाने लगा.
छोटी सरयू कम्हरिया घाट से करीब तीन किमी पूर्व की तरफ कम्हरिया मांझा से निकलती है. यहां से कुछ आगे गढ़वल बाजार के पूरब से आती स्थानीय नदी पिकिया इसमें मिलती है. इस संगम पर मोहरे बाबा का स्थान है. आंबेडकर नगर जिले के प्रसिद्ध पौराणिक स्थल भैरव बाबा पर अतरौलिया बाजार की तरफ से एक नदी (जिसे सरकारी अभिलेख में छोटी सरयू भाग-1 कहा गया है) आकर मिलती है. बहवलघाट होते हुए यह नदी प्रसिद्ध सलोना ताल के बाद मऊ जिले में प्रवेश करती है.
छोटी सरयू की पौराणिकता की तरफ इशारा करते हुए श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान दिल्ली के डॉ. रामअवतार शर्मा ने कहा है कि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए राम और लक्ष्मण इसी के दाहिने किनारे से आगे गए थे. स्थानीय किंवदन्ती है कि 23वें त्रेतायुग में प्रजापति दक्ष ने यहीं पर यज्ञ किया था और यहीं पर यज्ञकुंड में माता सती ने अपने प्राण दिए थे. जाहिर है, ऐसी कथाओं से जुड़ी नदी पवित्र है और पर्यावरणीय कारणों से नहीं तो कम से कम पौराणिक वजहों से सही, योगी सरकार को इसकी दशा सुधारने की चेष्टा करनी चाहिए.
छोटी सरयू की व्यथा का आरंभ होता है 1955 में आयी बाढ़ से, जब बाढ़ के समाधान के तौर पर इलाके में महुला गढ़वल बांध बनाया गया. इस बांध ने छोटी सरयू को बड़ी सरयू से अलग कर दिया, जिसके कारण छोटी सरयू में प्रवाहित जल से रिश्ता टूट गया और वह बरसात के जल पर निर्भर हो गयी. जब तक बारिश ठीक होती रही नदी अपने जीवन को किसी तरह बचाती रही. धीरे-धीरे जलस्तर गिरता गया, नदी सिकुड़ती गयी और नदी का चरित्र बदलता गया. नदी में गिरने वाले नालों की संख्या बढ़ती गयी जिससे उसमें जलकुंभियां और अन्य वनस्पतियां घर बनाने लगीं.
कहावत ही है, नदी वेगेन शुद्धयति. नदी को शुद्ध रखना है तो उसकी अविरलता को बचाना होगा. प्रवाह में आने वाली बाधाओं को रोकना होगा. पानी में नालों के माध्यम से गिरने वाले खनिजयुक्त और उर्वर पदार्थों को रोकना होगा.
लोकदायित्व संस्था लगातार प्रशासन से मांग कर रही है कि महुला गढ़वल बांध पर रेगुलेटर लगाकर बाढ़ के समय नियंत्रित जल मूल सरयू में छोड़ा जाए, हालांकि सरकारी बाबुओं की अज्ञानता की वजह से आजमगढ़ के लोगों ने खुद नदी जिलाने का बीड़ा उठा लिया. इस नदी की हालत देखकर 25 स्वयंसेवकों की टोली के साथ लोकदायित्व और पवन सिंह ने इसकी अगुवाई की. उस समय नदी में जलकुंभी और कचरे की भीषण समस्या थी. लगातार छह महीने की मेहनत से भैरव स्थल पर नदी की सूरत बदल गयी है. नदी साफ लगने लगी और लोग उसमें कूड़ा फेंकना भी बंद कर चुके हैं.
इस साफ-सफाई में अच्छी बात यह हुई कि नदी तल में तीन पातालतोड़ कुएं भी निकल आए, जिससे नदी को नवजीवन मिल रहा है.
छोटी सरयू का जी जाना यह यकीन दिलाता है कि जो समाज अपनी विरासतों को संभालकर रखना चाहता है, जिसके लिए नदी की पूजा कर्मकांड नहीं है, असल में वही समाज जीवित है.
(कवर तस्वीर लोक दायित्व के सौजन्य से)