आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी ने लाल किले की प्राचीर से सातवीं बार लगातार भाषण दिया तो वह कई मायनों में ‘ऐतिहासिक’ था। खुद प्रधान-सेवक और उनके समर्थक कई बातों को इतनी बार ऐतिहासिक बताते हैं कि यह एक तरह का चुटकुला भी बन गया है, लेकिन यह भाषण अपने प्रस्थान-बिंदु से लेकर समापन तक सचमुच ऐतिहासिक था।
प्रधानमंत्री जब लाल किले से बोल (हमेशा गरजने के विपरीत) रहे थे, तो वह एक गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री के तौर पर सबसे अधिक अवधि तक राज करने वाले प्रधानमंत्री भी हो चुके थे, वह भी पूर्ण बहुमत के साथ। इतनी सारी विपरीत परिस्थितियों-यथा, कोरोना, बिहार व असम की बाढ़, अर्थव्यवस्था की बुरी हालत, सीएए और भविष्यत् एनआरसी के पुरजोर विरोध, बंगलोर के दंगे- आदि के बावजूद 70 फीसदी से अधिक जनता का समर्थन पाने वाले भी वह शायद एकमात्र प्रधानमंत्री होंगे। यह बात दीगर है कि न्यूज चैनल द्वारा किए गए उस सर्वे पर एक नयी बहस की जा सकती है।
2014 में जब मोदी ने लाल किले से अपना पहला संबोधन प्रधानमंत्री के तौर पर दिया था, तो टॉयलेट की बात की थी। उस वक्त भी लोग चौंके थे। वह चौंकाने में माहिर भी हैं। इस बार उन्होंने सैनिटरी नैपकिन और स्वास्थ्य कार्ड के साथ शिक्षा में कौशल की चर्चा की है। पृष्ठभूमि के तौर पर उनके 5 अगस्त को राम जन्मभूमि मंदिर के शिलान्यास के समय दिए गए भाषण को याद कर लीजिएगा और साथ ही यह भी कि 34 वर्षों बाद नयी शिक्षा नीति की भी घोषणा कर दी गयी है।
नयी शिक्षा नीति की तो मजम्मत कर विरोध का टोकन पूरा कर दिया गया, लेकिन राम जन्मभूमि मंदिर, भूमिपूजन के मौके पर दिए गए भाषण की सही नापतौल करने में लोग अब तक लगे हुए हैं। इसका एक खास कारण है। दरअसल, भाजपा और मोदी के साथ मातृसंस्था रा.स्व.संघ ने खेल के नियम ही बदल दिए हैं, जबकि उनके विरोधी अब तक पुराने नियमों में ही उलझे हैं। वे उन्हीं तर्कों और तथ्यों को परोस रहे हैं, जिसके खिलाफ समाज (यानी हिंदू समाज के) में गुस्से की भावना बसी हुई है।
थोड़ा पीछे की यात्रा करते हैं और इस बात को खोल कर समझते हैं। संघ परिवार के बृहत् कार्यक्रम में उसके हरेक आनुषंगिक संगठन को पता है कि उसे कब और कहां क्या भूमिका अदा करनी है। याद कीजिएगा, तो पीएम नरेंद्र मोदी के 2014 के बाद और उसके पहले वाले रूप का अंतर इतना अधिक है कि उन्हें बारहां कट्टर दक्षिणपंथियों की आलोचना भी झेलनी पड़ी है। इससे पहले वाजपेयीजी का रूप आप याद करें तो कथित लिबरल-बुद्धिजीवी वर्ग भी उन्हें ‘उदारवादी’ बताकर उनके कशीदे गढ़ते थे, लेकिन सनद रहे कि वाजपेयी जी ने सबसे पहले अयोध्या में ‘विवादित ढांचे’ को समतल करने की बात कही थी।
नरेंद्र मोदी भी 2014 के बाद से लगातार अपनी छवि एक स्टेट्समैन की बनाने में लगे हैं, चाहे वह दिल से कभी भी साध्वी प्रज्ञा को माफ न करने की बात हो या गोरक्षकों की सार्वजनिक निंदा हो या कई सुलगते मसलों पर अबूझ चुप्पी, वह कई बार दक्षिणपंथी ताकतों की भी आलोचना के शिकार होते हैं, जबकि वह अच्छी तरह जानते हैं कि सब कुछ के बावजूद लिबरल-बुद्धिजीवी वर्ग का समर्थन उनको हासिल नहीं होने वाला है। इसके बावजूद वह ऐसा करते रहे हैं, क्यों? इसका उत्तर जानने के लिए थोड़ा और पीछे की ओर चलते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को एक सांस्कृतिक संगठन कहता रहा है और वह है भी, जिसका उद्देश्य आखिरकार अखंड हिंदू राष्ट्र (भारत) की स्थापना करना है। भले ही यह स्वप्न कितना ही अव्यावहारिक दिखे, संघ तमाम हिंदुओं को एक छाते के तले लाकर उस स्वप्न को साकार करना चाहता है। यह सपना ठीक उसी शेखचिल्ली का लगता है, जिसके तहत पाकिस्तान हाल ही में अपना नया नक्शा जारी करता है, लेकिन संघ की सबसे बड़ी खूबी उसका धैर्य है। यहां याद रखा जाय कि संघ के ‘ना हिंदू पतितो भवेत्’ और ‘सर्व हिंदू मम सोदरा’ के साथ ही वीर सावरकर जब इस देश में हिंदुत्व की व्याख्या करते हैं, तो अहमदिया हिंदू और क्रिस्तनिया हिंदू तक कहने से नहीं चूकते।
संघ को पता है कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है, तो मुसलमानों का ‘इंतजाम’ करना ही होगा, इसीलिए वह कभी ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ का दांव खेलता है, तो कभी अपने सरसंघचालक से यह बयान दिलवाता है कि मुस्लिम और हिंदू इस देश की दो आंखें हैं और मुसलमानों को साथ लिए बिना इस देश को चलाना मुश्किल है।
संघ के प्रथम प्रवक्ता के पद पर राम माधव की नियुक्ति (कश्मीर के मसले में इनकी भूमिका को याद कर लीजिए) से लेकर दुनिया के सामने खुलने (दो बार पत्रकारों- राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय- के साथ बंद कमरे में बैठक) से लेकर संघ के जानकार (यह कौन सा पद है?) राकेश सिन्हा की राज्यसभा में नियुक्ति से लेकर नयी शिक्षा नीति तक, सब कुछ ठीक योजना के मुताबिक चल रहा है, लेकिन अब?
यहीं आकर संघ की नीति औंधे मुंह गिरती है और वह ठीक कथित लिबरल्स के साथ जाकर खड़ी हो जाती है। कैसे? इसे समझने के लिए दोनों ही की नीति को देखिए।
इस देश की मूल समस्या यह है कि संघ हों या कथित लिबरल्स, दोनों ने इस्लाम को मुसलमानों से इक्वेट कर दिया है। हिंदू-मुसलमान की बातें तो दोनों ही खूब कर रहे हैं, लेकिन ‘इस्लाम’ पर बात करने से कतई कतरा रहे हैं। इससे भी बड़ी उलटबांसी यह हुई है कि ‘हिंदुत्व’ के नाम से लिबरल-बुद्धिजीवी वर्ग ने जबरन एक ‘पॉलिटिकल डॉक्ट्रीन’ को थोपने की कोशिश की है और संघ के मठाधीशों ने उसे अपने बुद्धि-विलास में, या फिर योजना के मुताबिक, जानकर नकारा नहीं है बल्कि स्वीकार कर लिया है।
यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है क्योंकि ‘इस्लाम’ जो एक पॉलिटिकल डॉक्ट्रीन है, उसे धर्म बना दिया गया जबकि हिंदू, जो जीवन को जीने का धर्म था (या सनातन, या हिंदुत्व या हिंदुइज्म यानी हिंदूवादी) और जो कहीं से भी एक पॉलिटिकल डॉक्ट्रीन है ही नहीं (जिसके होने या न होने के लिए आपको कुछ नहीं करना पड़ता) उसे एक हिंसक, आक्रामक, बहुसंख्यकवादी राजनीति के तौर पर इस देश के केंद्र में स्थापित कर दिया गया।
पूरा पेंच दरअसल यहीं आकर फंस गया है। दिल्ली से लेकर बंगलोर के हिंदू-विरोधी दंगों तक किसी ने भी ‘इस्लाम’ पर बात नहीं की है। हरेक आदमी ने सीएए से लेकर कल्पित एनआरसी तक बात की, फासीवाद वगैरह मार-तमाम बातें कीं, लेकिन इस्लाम पर कोई बात नहीं हो रही है।
बेंगलुरू में भी यही हुआ। एक नेता के पुत्र के कथित फेसबुक पोस्ट पर बात हो रही है, लेकिन वह प्रतिक्रिया थी इस पर कहीं एक शब्द नहीं लिखा गया। ऊपर का एक अनुच्छेद मेरे लिए लिखना निहायत गैर-जरूरी था, लेकिन यह केवल इसलिए दिया है कि क्षणजीवी स्मृतियों के इस काल में एक बार फिर से पाठक उन तमाम चीजों को याद कर सकें।
इस्लाम एक पॉलिटिकल डॉक्ट्रीन है, इस देश के 95 से 99 फीसदी मुसलमान धर्मांतरित हैं, 1947 में धर्म के नाम पर एक बंटवारा हुआ जिसमें पाकिस्तान मुसलमानों को मिला— ये तीन आधारभूत बातें हैं जिनसे मुंह फेरना ही आज के कथित लिबरल्स को उनकी हालत के लिए जिम्मेदार बनाता है। अब भी, राम जन्मभूमि का फैसला सर्वोच्च अदालत से आने के बाद भी मुस्लिमों का एक हिस्सा जिस तरह से वहां मस्जिद बनाने की बात करता है, यही हिंदुओं के ‘फ्रिंज-एलिमेंट’ को बढ़ावा देता है और बहुसंख्यकों का एक तबका भी कट्टर धार्मिकता (या मजहबीपन या रिलिजियोसिटी) की ओर बढ़ता है। गोया पहले ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा अब ‘मस्जिद वहीं बनाएंगे’ में तब्दील हो गया हो!
फिलहाल, संघ के दोनों हाथों में लड्डू हैं। उसको पता है कि भारत की धारा बहुत ही अजीब है। यह तुर्कों से लेकर मुगलों और अंग्रेजों से लेकर नेहरू और इंदिरा गांधी तक को पचा गयी। सर्वस्वीकार्य यहां गांधी और नेहरू ही अब तक हैं, जो उदारवादी थे इस हद तक कि उन पर मजहब-विशेष के समर्थन का भी आरोप लगा। इसलिए संघ राजनैतिक, सामाजिक स्तर पर तो उदारता का चोला ओढ़ रहा है, साथ ही उसे यह भी पता है कि कथित लिबरल्स-बुद्धिजीवी वर्ग ठीक वही गलती बारहां दोहराएगा, जो आखिरकार उसका ही काम आसान कर रहा है, लोगों को हिंदुत्व के फोल्ड में ला रहा है।
इसके नतीजे निकालना अभी बेमानी होगा क्योंकि देशों का इतिहास एकाध दशक में न बनता है, न बिगड़ता है। खासकर, भारत जैसे देश का, जिसे कविगुरु रवींद्रनाथ ने सभ्यताओं की मथनी कहा था, मुस्तकबिल बताना तो बड़ी ही मुश्किल बात है।
भारत का एक देश के तौर पर फिलहाल इतना ही साबका होना चाहिए कि वह इस्लाम पर बात करे और उसे बहसतलब बनाए, अन्यथा कांग्रेस का हाल देख ही रहे हैं जो मुसलमानों के लिए आज़ादी के बाद से लगातार कालीन बिछा-बिछा कर आज खुद इतिहास के कूड़ेदान में समा जाने को बेताब दिख रही है।
हश-हश करके और इस्लाम को भारतीयता के अनुकूल न ढालकर फिलहाल हमारे समय की दो बड़ी विचारधाराएं एक ही गलती कर रही हैं। यह गलती भारत को भारी पड़ने वाली है।