पता नहीं आपका क्या अनुभव है पर हमसे कई लोग ऐसा कह रहे हैं कि इस बार अगस्त कुछ ज़्यादा लंबा चल रहा है। हालांकि यह फॉग नहीं है। बीत ही नहीं रहा है। कितने तो ऐतिहासिक स्तर के समारोह हो चुके हैं। पर यह अगस्त है कि गुज़र ही नहीं रहा है। आम तौर पर अगस्त जैसा महीना कई बड़े त्यौहारों और राष्ट्रीय पर्व के कारण गहमागहमी में बीत जाया करता था। इस बार सब कुछ हो चुका है पर अभी भी 16 प्रतिशत बचा रह गया।
लोग तरह-तरह की बातें कर रहे हैं कि अब लोग कोरोना -कोरोना से ऊब चुके हैं। जितने प्यारे सुशांत सिंह लोगों को लगते थे और उनके प्रति सबकी मर्मस्पर्शी संवेदनाएं थींं, अब उनकी मौत की कवरेज से भी लोग आजिज़ आ चुके हैं। राम मंदिर के शिलान्यास की उम्मीद लगाए कितनी ही हिन्दू आत्माएं बैकुंठ चलीं गयीं, कितने लोग सन्यास ले चुके या उन्हें जबरन सन्यासी बना दिया गया और जब इस ऐतिहासिक क्षण का इंतज़ार खत्म हुआ भी तो बड़ा बेरौनक़ बीत गया।
लोग तो यहांं तक सोचकर बैठे थे कि 5 अगस्त को शिलान्यास के बाद शायद ही इस बार 15 अगस्त मनाया जाएगा क्योंकि आज़ादी पर दिया जाने वाला भाषण तो उसी अवसर पर दिया जा चुका था। यह सोच बहुत क्षुद्र साबित हुई। बंदे को बोलने में ही तो महारत है। फिर बोल दिया और अब तक के तमाम भाषणों का रिकार्ड तोड़ते हुए 90 मिनट तक नॉन-स्टाप बोला गया। दर्शक दीर्घा खाली थी तो क्या हुआ लफ़्फ़ाज़ी ज़िंदाबाद थी, ज़िंदाबाद है और ज़िंदाबाद रहेगी।
देश हिन्दू राष्ट्र बनते न बनते रह गया। अगस्त मध्य में पहुँच गया।
इस बीच सुशांत सिंह का मामला सीबीआइ ने अपने संगीन हाथों में ले लिया। अब उसका शानदार हश्र होने से कोई रोक नहीं सकता है। हमें बिहार पुलिस और मुंम्बई पुलिस की आईस-पाईस के खेल से मुक्त कराने और इस मामले को सीबीआइ तक ले जाने के लिए चौबीसों घंटे सजग, सतर्क और सावधान मीडिया का शुक्रगुज़ार होना चाहिए।
कुछ पढ़े लिखे लोग न जाने क्या-क्या अटकलें लगाने लगे थे कि इससे राज्यों के बीच अधिकार क्षेत्र की लड़ाई आने वाले समय में नागरिकों की स्वतंत्र आवाजाही को लेकर एक गंभीर असुरक्षा का वातावरण निर्मित करेगी। बिहार के किसी व्यक्ति को महाराष्ट्र में कुछ हो गया और वो महाराष्ट्र पुलिस के पास गया तो वहांं की पुलिस कह देगी आप तो बिहार के नागरिक हैं वहीं रिपोर्ट दर्ज कराओ। या इसके उलट भी। और ऐसा देश के हर राज्य के नागरिकों के साथ होने लगेगा। इस तरह की तमाम गैर-वाजिब अटकलों, अंदेशों और बात-बात पर संघीय गणराज्य का शिगूफ़ा छोड़ने वालों पर मीडिया की चौकन्नी भूमिका ने जोरदार तमाचा जड़ा है। खैर!
ताज़ा ख़बर ये है कि रिया चक्रवती अब लगभग सीबीआइ के जाल में फंस गयी हैं। सीबीआइ उनके घर पहुँच ही रही है। इस वक़्त जब यह सब लिखा जा रहा है वो अपने ड्राइंग रूम में बैठी हैं। रिपब्लिक भारत उनके टीवी स्क्रीन पर शाया हो रहा है जिसे इसी चैनल की एक योद्धा अपनी जान की बाज़ी लगाते हुए सामने वाले फ्लैट की बालकनी पर लटककर यह सब कवर कर रही हैं। रिया की पेशानी पर चिंता और पकड़े जाने का डर साफ-साफ दिखलाई पड़ रहा है।
अभी सीबीआइ पहुँचती ही होगी लेकिन इस बीच रिया चक्रवर्ती ने करीब 12 बार छोटे-छोटे घूंट लेते हुए आधा गिलास पानी पी लिया है। कैमरे में साफ नहीं आ रहा है पर ऐसा कहा जा रहा है कि उनके पानी के गिलास में कोई एनर्जी बूस्टर जैसा द्रव्य भी घुला हुआ है। संभव है आज रात उनकी गिरफ्तारी भी हो जाएगी। इस बीच उनके घर में रिपब्लिक भारत चलता रहेगा।
रिपब्लिक भारत से याद आया… इस महीने सदियों बाद आज तक जैसा नंबर वन चैनल रिपब्लिक से रेस में पीछे छूट गया। आज तक अब कल तक हो गया और रिपब्लिक भारत नंबर बन गया है।
‘बिनोद’ एक अलग ही मामला है जिस पर कोई भी आधिकारिक रूप से कुछ नहीं जानता कोरोना के माफ़िक लेकिन वह जो छाया तो ऐसा छाया कि 5 अगस्त को सोशल मीडिया के 100 प्लाट्स में से 35-40 अपने नाम करवा गया।
15 अगस्त का बहुत सारा समय महेंद्र सिंह धोनी के एक इन्स्टाग्राम अपडेट ने खा लिया कि आज के सूर्यास्त के साथ ही उनका क्रिकेट कैरियर भी अस्ताचलगामी हो जाएगा। समय दिया शाम 0729। इस खबर ने भी कुछ प्लाट्स खा लिए तब भी कुछ बचाये जा सकते थे लेकिन रैना दोस्ती निभाने चले आए और दो-चार उनने भी खा लिए।
रक्षाबंधन बीत गया। सीमित संसाधनों और आवाजाही के बीच इस दिन सड़कों पर थोड़ी चहल-पहल देखी गयी। जन्माष्टमी मना ली गयी। इस बीच कैलेंडर में कितनी ही तारीखें मुसलसल वेबीनारों की भेंट चढ़ गयीं। कोरोना से घास पर क्या प्रभाव पड़ा? भूसे पर क्या? पेड़ की पत्ती, टहनी, तने, फूल, बीज, फल यानी नखशिख पर क्या असर हुआ? घूरे पर क्या? से लेकर स्त्रीवादी चिंतन से लेकर दलित चिंतन से लेकर सवर्ण चिंतन, आरक्षण, दिव्याङ्गोंं पर क्या प्रभाव पड़े, सबकी गंभीर पड़ताल इन वेबीनारों में हुई और देश की परिस्थितियों पर गहन चिंतन मनन के बाद तमाम वेबीनारर्स इस नतीज़े पर पहुंचे कि इन- पर्सन सभा सम्मेलन बुलाने से बेहतर इस तरह के वर्चुअल आयोजन हैं। किफ़ायती भी हैं और एक वक्ता दिन में कई जगह कई-कई विषयों पर अपनी बात रख सकता है। हाँ, कुछ तकनीकी दिक्कतें आती हैं और हर वक्ता को एकाधिक बार यह कहना पड़ता है– एम आई औडिबल? फिर इसे बहुधा हिन्दी में भी कि क्या आप मुझे सुन सकते हैं? लेकिन इसका एक जस्टीफिकेशन यह भी दिया गया और सिविल सोसायटी ने सर्वसम्मति से मान्य भी किया कि माइक की दिक्कत तो परंपरागत सभा सम्मेलन में भी आ ही जाती है।
अब सवाल ये है कि राम मंदिर के शिलान्यास की इहलौकिक परिघटना और लौकिक मामलों पर वेबीनारों में हुए इतने विशेषज्ञों द्वारा किये गये गहन चिंतन-मनन के बाद भी देश को कोई ऐसी दिशा क्यों नहीं मिल पा रही है कि कुछ हो या न हो पर ये अगस्त का महीना थोड़ा जल्दी बीत जाये या बीतता हुआ महसूस ही हो जाये?
अभी कुछ कमी थी तो कांग्रेस बीच में आ गयी। पार्टी है कि इलास्टिक। कितना भी खींचो टूटती ही नहीं है। राजस्थान बचा लिया गया, हालांकि इसे डेड घोषित किया जा चुका था। लगभग कह ही दिया गया था कि राजस्थान में कांग्रेस की असमय मौत को कोरोना में ही गिन लिया जाएगा लेकिन वह वेंटिलेटर से लौट आयी। हालांकि कांग्रेस का शरीर अभी भी कमजोर पाया गया जिसकी पुष्टि हुई 23 अगस्त को सीडब्ल्यूसी की बैठक में। जांच रिपोर्ट लीक होने लग गयी। अभी गले में यंत्र डाला ही नहीं था कि कान में बीमारी मिल गयी। कान को सहलाया ही था कि बालों में गंभीर बीमारी निकाल आयी। शाम होते न होते उसकी रिपोर्ट भी नेगेटिव आ गयी। इस देश में कांग्रेस से लोगों को बेपनाह मोहब्बत है कम से कम उसे सलाह देने के मामले में। श्रीलाल शुक्ल के उस अमर वाक्य में जिसमें वे कहते हैं कि ‘शिक्षा दरवाजे पर पड़ी वो कुतिया है जिसे हर आता- जाता आदमी लतिया जाता है’ में अगर शिक्षा की जगह अगर कांग्रेस कर दिया जाये तो भावबोध में कोई अंतर नहीं आएगा!
मुझे सबसे बढ़िया सलाह और टिप्पणी भाजपा से निष्कासित और अपनी अलग पार्टी बना चुकी फिर भाजपा में लौट आयीं सुश्री उमा भारती की लगी कि आज के बाद कांग्रेस खत्म। नेहरू-गांधी अब इतिहास में दफन हो गये। वगैरह वगैरह।
फेसबुक की बड़ी अफसर को फेसबुक से डर लग गया। यह अजीब घटना हुई जब उनकी कारस्तानी वाल स्ट्रीट जर्नल ने दुनिया के सामने ला दी। दो-तीन दिन ख्वामखां इस मुद्दे में भी चले गये। इससे हासिल कुछ हुआ नहीं हालांकि। जो समझते थे उनकी बात की पुष्टि हो गयी। जिन्हें नहीं समझना उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। तो कुछ होना नहीं था। न हुआ और न होगा।
इस बीच देश की बड़ी आबादी अपने कान पहले मेदांता हस्पताल पर लगाये रही, कोई खास ख़बर नहीं आयी। फिर एम्स पर कान टिका लिए पर कोई बुलेटिन ही जारी नहीं होता। अभी भी कान उधर ही हैं। माने देश का गृहमंत्री एक महीने में दो- दो बार हस्पताल जाये और मीडिया पर एक पट्टी भी न चले? मीडिया के इस बर्ताव से एक सौ तीस करोड़ हिंदुस्तानियों के दिल पर चोट पहुंची है। बहरहाल, सभी लोग शिद्दत से उनके स्वास्थ्य की खबर का इंतज़ार कर रहे हैं।
इस बीच ग्वालियर का किला ढहने के कगार पर पहुँच गया। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता में से गद्दार शब्द मध्य प्रदेश में हरबोलों के मुंह चढ़ गया। बाढ़, बेरोजगारी, एयरपोर्ट, कोयला, महँगाई जैसे लकजरी आइटम्स ने भी बहुत भटकाने की कोशिश की पर सब महीने के उत्तरार्ध में आकर एक मोर के सामने चारों खाने चित्त हो गये। मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी भी है जिसे घर में पालना जुर्म है पर यह बौद्धिक आतंक से भरी कानूनी जानकारी सोलह घंटों और छह परिधानों से सुसज्जित एक वीडियो के सामने खेत हो गयी। मोर को नयी पहचान मिली। मोर के बहाने लोगों ने जहाँपनाह के बाल भी गिन डाले।
इतनी सतर्क ठलुआई के बावजूद अगस्त अटका हुआ है। कुछ शातिर कहे जा सकने वालों ने मोर के बहाने बाकी रह गयी काशी-मथुरा की झांकी भी देख ली। पता नहीं इतनी अटकलें उचित हैं या नहीं, पर जब पूरा देश ही अटकलों से चल रहा हो तो इसमें भी क्या बुराई है। अगस्त तुम जल्दी जाओ। अभी और और महीने पड़े हैं। हमें और सैर करनी है।