यह नरेंद्र मोदी के ‘न्यू इंडिया’ की संसद है जहां ‘जवाबदेही’ की क्रिया को ‘मुकर जाने’ की क्रिया से स्थानांतरित किया जा चुका है। देश के कोटि-कोटि ‘हिन्दू’ मतदाताओं को इस अवसर की कोटिश: बधाइयाँ व शुभकामनाएं।
संसद में आधिकारिक रूप से झूठ बोलने और बारम्बार बोलने के जो प्रतिमान इस सरकार ने स्थापित किये हैं वह ‘न भूतो न भविष्यति’ तो हैं ही, लेकिन इस लिहाज से अनुकरणीय भी हैं कि ख्वामखां संसद का कीमती समय बहस मुबाहिसों और गतिरोधों में ज़ाया नहीं होता। जिन मुद्दों पर लगे कि विपक्ष कुछ मौका ले सकता है उस मुद्दे पर एक पंक्ति में झूठ बोल जाओ। अब पहले विपक्ष उस बोले गए झूठ पर बात करे, फिर कहीं मुद्दे तक पहुंचेगा। यहाँ मूल बात झूठ हो जाएगी न कि वो मुद्दा जिस पर झूठ बोला गया।
जवाब तो मुद्दे पर देना बनता है न कि झूठ पर। झूठ पर दो-चार मीडिया डिबेट्स होंगीं। सौ-पचास लेख आ जाएंगे जिनसे सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ना है। जिनसे सेहत पर फर्क पड़ना है वो भली-भांति जानते हैं कि सरकार झूठ बोल रही है और यह बात उन्हें आज पहली दफा पता चली हो ऐसा नहीं है बल्कि वो तो शुरूआत से ही जानते हैं कि जब अपनी गरदन फँसने लगे तो झूठ बोल जाओ। अपने ही किये काम की ज़िम्मेदारी मत लो। भाग जाओ, माफी मांग लो, कन्नी काट लो, खीसें निपोर दो और बेहया बनकर अगले मौके की तैयारी करो। जिन्हें अपने बातों दावों से भरमा लिया गया था, उन्हें मुसलमानों का डर दिखा दो। जब झूठ पकड़ में आने ही लगे तो मुगल संग्रहालय का नाम बदली कर दो।
हालिया झूठ बस इतना सा है कि मार्च में बलात् थोपे गए लॉकडाउन की वजह से जो प्रवासी मजदूर नागरिक सड़कों पर शाया हुए, उनमें से कितने मजदूर काल के गाल में समा गये। जो सुरक्षित अपने-अपने घरों तक नहीं पहुँच पाये? यह एक ऐसा सवाल था जो उसी संसद के एक सम्मानित सदस्य ने लिखित में पूछा था, जिसके जवाब में सरकार बहादुर ने दो टूक शब्दों में कहा- ऐसा कोई आंकड़ा हमने जमा नहीं किया। ये सही है कि मीडिया के मार्फत फैलायी गयी फेक न्यूज़ की वजह से प्रवासी मजदूर अपना आपा खो बैठे और पैदल ही गांवों की तरफ चल दिये। सरकार ने सभी के लिए रहने-खाने आदि के पुख्ता इंतजामात भी किये थे, लेकिन लोगों ने धैर्य से काम नहीं लिया और यह स्थिति बनी।
अब मौत के आंकड़ों को ही जब जमा नहीं किया गया तो उन्हें किसी प्रकार के कोई मुआवज़े का सवाल पैदा नहीं होता है। गौरतलब है कि सरकार ने यह नहीं कहा कि मजदूरों की मौत नहीं हुई। बस, उसने आंकड़े जमा नहीं किये। यानी आज़ादी के दौरान हुए देश-विभाजन के बाद सबसे बड़ा पलायन सड़कों पर देखा गया तो मौतें होना स्वाभाविक हैं, लेकिन उनके आंकड़े जमा करने का औचित्य सरकार को समझ में नहीं आया या उसे ज़रूरी नहीं लगा और उसने नहीं किया।
अब विपक्ष चाहे तो इस पर बहस कर सकता है कि आपको मौत के आंकड़े जमा करना क्यों ज़रूरी नहीं लगा? जिसके जवाब में सरकार बहादुर कह सकती है कि नवरात्रों में शुभ काम ही किये जाते हैं। उस समय देश में नवरात्रों का पावन अवसर था, चारों तरफ देवियों के चरण रज अपना सौरभ हवाओं में बिखेर रहे थे, माताएं सुबह-शाम देवी गीत गा रही थीं और गुड़हल के पवित्र फूल गली-गली में खिले हुए थे- ऐसे में मौत जैसी अशुभ घटनाओं का लेखा-जोखा रखना एक धर्मप्रिय देश की संस्कृति के खिलाफ होता! एक अच्छी सरकार जन भावनाओं को ख्याल में रखकर ही कोई काम करती है। यह 1962 का भारत नहीं है। यह नरेंद्र मोदी का न्यू इंडिया है। यहां अब नवरात्रों में मौत के हिसाब नहीं रखे जाते। इतना कहकर विपक्ष की खिल्ली उड़ा दी जा सकती है। बाद में यही सब बातें टीवी डिबेट्स में प्रवक्ताओं की तरफ से कहलवायी जा सकती हैं।
भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह बात भलीभांति जानते हैं कि आंकड़ों की भाषा ऐसे तो बड़ी नीरस सी लगने वाली भाषा ही है लेकिन इसमें एक और ऐब है। वो यह कि ये आंकड़े एक बार जनमानस में पहुँच गये तो मारे नहीं मरते। एक बार लोगों के पास आ गये तो इनका धड़ल्ले से प्रयोग-दुरुपयोग होने लगता है। इसलिए इनके दुरुपयोग के खतरे को टालने का एक बढ़िया तरीका है इन्हें जमा ही न करना या नहीं बताना। नहीं बताने से क्या होगा? ज़्यादा से ज़्यादा कुछ दिनों की जगहँसाई ही होगी। और क्या? जगहँसाई की चिंता उन्हें नहीं है क्योंकि जिस ‘जग’ में उनकी हँसाई हो सकती है वो उनके अपने बनाये ‘जग’ से बहुत छोटा है।
जिस जगत में जगहँसाई का थोड़ा सा भी खतरा है उन्हें पहले ही मोदी विरोधी, धर्म विरोधी और अंतत: देशद्रोही घोषित किया जा चुका है। झूठ बोलने का यह आत्मविश्वास ऐसे ही पैदा नहीं होता। इसके पीछे न केवल संघ की वर्षों की मेहनत है, बल्कि आज के दौर की हर मीडिया और दिमागों में ताले जड़े करोड़ों इंसान भी हैं, जिनकी चाबी बक़ौल हरिशंकर परसाई, नागपुर में जमा है।
सच अगर घटे या बढ़े तो सच नहीं रह जाता, लेकिन झूठ इस मामले में बहुत लकी होता है उसकी कोई इंतिहा नहीं होती। डंके की चोट पर जब चाहो जितना चाहो जैसे चाहो, आप झूठ बोलो। कोई यह नहीं कह सकता कि कल तो आपने ये कहा था। यह आत्मविश्वास तब और बढ़ जाता है जब झूठ बोलने वाले और झूठ सुनने वाले दोनों को पता हो कि बेहिचक झूठ बोला जा रहा है। इससे दोनों एक तल पर ही होते हैं और बहस की गुंजाइश बहुत क्षीण हो जाती है।
अब चीन के मामले में देखिए। सीमा पर तनाव की खबरें आयी हैं। झड़पें हुई हैं। जो भी जिस रूप में भी मौजूद विपक्ष है, उसने पूरा ज़ोर लगाकर प्रधानमंत्री को मजबूर कर लिया कि बताओ चीन का क्या मामला है? देश जानना चाहता है। प्रधानमंत्री ने भी ठान लिया कि आज देश को सच बताना है। देश इंतज़ार करने लगा। बैठक लगी। प्रधानमंत्री ने सबको सुना। सबसे बाद में कह दिया कि हमारी सीमा में कोई नहीं आया, किसी ने कोई कब्ज़ा नहीं किया। बात खतम।
इससे बात खतम नहीं हुई क्योंकि सीमा पर तनाव खतम नहीं हुआ। सीमा पर तनाव खतम नहीं हुआ क्योंकि चीन सीमा से वापिस नहीं गया। चीन सीमा से वापिस नहीं गया तो अन्य प्रभावशाली देशों के साथ बातचीत शुरू हुई। खुद चीन के सक्षम अधिकारियों से बातचीत शुरू हुई। कई दौर की बातचीत के बाद विदेश मंत्री ने मान लिया कि तनाव तो 1962 के बाद से सबसे गंभीर स्थिति में है। रक्षा मंत्रालय ने अपनी बेवसाइट पर भी यही बात बता दी, लेकिन इससे प्रधानमंत्री की झूठ पर आंच आ सकती थी तो उसको हटा दिया गया। संसद में रक्षामंत्री ने फिर वही दोहरा दिया।
झूठ पर आयी आंच सच पर आयी आंच से ज़्यादा खतरनाक होती है। सच तो फिर भी अपने लिए थोड़ा बहुत लड़ लेगा, लेकिन झूठ को दिक्कत हो जाएगी। इस बात से यह सरकार इस कदर वाकिफ़ है और इस कदर अभ्यस्त कि जब तक आप पुराने झूठ की परतें उघाड़ोगे तब तक उससे भी उम्दा किसिम के सौ पचास झूठ सामने आ जाएंगे। एक वक़्त आएगा जब आप इसलिए भी सवाल पूछना छोड़ दोगे कि भाड़ में जाओ, जब कुछ बताना ही नहीं है, मुकर ही जाना है, झूठ ही बोलना है, तो हम क्यों अपना भेजा गरम करें?
एक बात और है। मान लो कि झूठ पकड़ा ही गया, तो भी क्या ही हो जाएगा? इस सरकार के खून पसीने से पैदा हुई ‘ज़ॉम्बी जनता’ को कोई फर्क पड़ेगा क्या? उल्टा वे खड़े हो जाएंगे कि तब कहाँ थे? अब इस ‘तब’ का जवाब देने बार-बार पेशी में जाने से बेहतर है कि सवाल ही न पूछो।
इस तरह जम्बूद्वीप से धीरे-धीरे लोग सवाल पूछना बंद कर देंगे और वह दिन झूठ की मृत्यु का दिन होगा। जब सवाल नहीं, तो जवाब नहीं। जवाब देने की अनिवार्यता नहीं तो झूठ गढ़ने की ज़रूरत नहीं। इसकी शुरुआत हो चुकी है। भारत के संसदीय इतिहास में यह पहला संसदीय सत्र है जहां प्रश्नकाल नहीं है। यानी मौखिक रूप से कोई प्रश्न और बहस नहीं होगी। आप चाहें तो लिखित में दिये गये जवाबों से सच और झूठ का विच्छेदन करते रहिए, पर उससे कुछ हासिल नहीं होगा।
प्रश्न इस मामले में बेकार शै है। वो किसी को झूठ बोलने पर मजबूर कर सकते हैं। प्रश्नों की गैरहाजिरी झूठ को सार्वजनिक जीवन से च्युत कर सकती है। इसका ये मतलब नहीं है कि सच की स्थापना भी करेगी, लेकिन ‘जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं’ की भांति एक की उपस्थिति से दूसरे की अनुपस्थिति के इस खेल में डूबा-उतराया जा सकता है। और यह किसे पसंद नहीं? चलिए, मिल जुलकर खेला जाये…
(कवर तस्वीर उस 23 वर्षीय प्रवासी श्रमिक महिला की है जो श्रमिक स्पेशल ट्रेन से बिहार के मुजफ्फरपुर पहुंची थी और प्लेटफॉर्म पर उसकी मौत हो गयी थी। उसके अबोध बच्चे की ओर से उसे जगाने की कोशिश करने वाली यह तस्वीर पूरी दुनिया में वायरल हुई थी)