हमारे प्रिय कवि मंगलेश जी जब भारत नीति प्रतिष्ठान के मंच पर राकेश सिन्हा के साथ पाए गए और उसकी तस्वीर सार्वजनिक होने के बाद जब विवाद पैदा हुआ, तो उन्होंने एक स्पष्टीकरण कुछ लोगों को मेल किया, जिसे ग्वालियर वाले अशोक कुमार पांडे ने फेसबुक पर लगाया था। उस स्पष्टीकरण की प्रतिक्रिया में वरिष्ठ पत्रकार और मंगलेश जी के बहुत करीबी आनंद स्वरूप वर्मा ने उन्हें एक चिट्ठी लिखी है। यह चिट्ठी वर्मा जी ने मंगलेश जी को कल भेजी थी और उनकी सहमति से मुझे भी भेजी। मंगलेश जी ने यही चिट्ठी अशोक कुमार पांडे को भेजी है जिसे वे फेसबुक पर कल लगा चुके हैं। यह चिट्ठी दो कारणों से अहम है। पहली वजह खुद वर्मा जी ने बताई है कि उदय प्रकाश वाले मामले में ओम थानवी ने अपने जनसत्ता के अनंतर में उनका नाम लेकर गलतबयानी की है (इसके अलावा भी कई अन्य मामलों में उन्होंने थानवी जी की बतौर संपादक ‘निकृष्ट’ भूमिका की बात बताई है)। दूसरे, वर्मा जी खुद आवाजाही के हक़ में हैं, लेकिन उनका परिप्रेक्ष्य ओम थानवी से बिल्कुल अलहदा है। प्रस्तुत है वर्मा जी का पूरा पत्र और नीचे मंगलेश की का स्पष्टीकरण भी, जो उन्होंने कुछ लोगों को भेजा था।
प्रिय मंगलेश,
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आनंद स्वरूप वर्मा |
‘भारत नीति प्रतिष्ठान’ नामक संस्था में समांतर सिनेमा पर तुम्हारे भाग लेने के संदर्भ में कुछ ब्लॉग्स और साइट्स पर टिप्पणियां तथा जनसत्ता में ओम थानवी का लंबा लेख पढ़कर मुझे हैरानी नहीं हुई। हैरानी इस बात पर हुई कि तुम्हें मित्रों को स्पष्टीकरण भेजने की जरूरत क्यों महसूस हुई। जिन टिप्पणियों और लेख का ऊपर मैंने जिक्र किया है उनमें से किसी को पढ़ने से यह नहीं पता चलता है कि उस गोष्ठी में तुमने कौन सी आपत्तिजनक बात कही थी- सारा मुद्दा इस पर केंद्रित है कि उस गोष्ठी में तुम गये क्यों जबकि वह एक दक्षिणपंथी संगठन द्वारा बुलाई गई थी। तुमने इसके जवाब में कहा है कि ‘यह एक चूक थी’।
मैं नहीं समझता कि यह कोई चूक थी। अगर किसी के दक्षिणपंथी अथवा वामपंथी/प्रगतिशील होने का मापदंड गोष्ठियों में जाने को ही बना लिया जाय न कि उसके जीवन और कृतित्व को तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। वैचारिक प्रतिबद्धता का निर्धारण इस तरह के सतही मापदंडों से नहीं होता कि कौन कहां जा रहा है अथवा किससे मिल रहा है। उदय प्रकाश का मामला इससे थोड़ा भिन्न था क्योंकि उन्होंने उस व्यक्ति के हाथों पुरस्कार लिया जो घोर कम्युनिस्ट विरोधी और प्रतिगामी विचारों का घोषित तौर पर पोषक है हालांकि इसे भी मुद्दा बनाने के पक्ष में मैं उस समय नहीं था। जिन दिनों हस्ताक्षर अभियान चल रहा था, मैंने यही कहा था कि एक बार उदय प्रकाश से पूछना चाहिए कि किन परिस्थितियों में ऐसा हुआ? कहीं अनजाने में तो उनसे यह चूक नहीं हो गयी? और इसी आधार पर मैंने उस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर भी नहीं किया था हालांकि ओम थानवी ने हस्ताक्षरकर्ताओं में मेरा नाम भी अपने लेख में डाल रखा है। उदय प्रकाश की ‘और अंत में प्रार्थना’ शीर्षक कहानी ने मुझे बहुत प्रभावित किया था और उस कहानी का वैचारिक पक्ष इतना प्रबल था कि जब तक उदय प्रकाश किसी जघन्य अपराध में लिप्त नहीं पाये जाते, उनके और उनकी रचनाओं के प्रति मेरे आदर में कोई कमी नहीं आती। यही सोचकर मैंने हस्ताक्षर करने से मना किया था और आज भी मैं अपने उस निर्णय को सही मानता हूं।
तुम्हारे गोष्ठी प्रसंग पर जितनी टिप्पणियां देखने को मिली हैं वे बहुत सतही और व्यक्तिगत विद्वेष की भावना से लिखी गयी हैं। तुम्हें याद होगा जब मैंने नेपाल पर आयोजित एक मीटिंग में विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं को आमंत्रित किया था तो हम लोगों के एक वामपंथी कवि मित्र ने मेरी इसलिए भर्त्सना की थी कि मेरे मंच पर डी.पी. त्रिपाठी कैसे मौजूद थे। उनकी निगाह में वह एक ‘पतित राजनीतिज्ञ’ हैं इसलिए उनको आमंत्रित कर मैंने अपनी पतनशीलता का परिचय दिया। मैंने उन्हें समझाना चाहा कि वह एक राष्ट्रीय पार्टी के महासचिव के नाते वहां मौजूद थे लेकिन कवि मित्र इससे संतुष्ट नहीं हुए। बहरहाल मामला इतना ही नहीं है। हम वामपंथियों के अंदर जो संकीर्णता है वह इस हद तक हावी है कि अगर मैं किसी मंच पर (दक्षिणपंथियों की तो बात ही छोड़ दें), सीताराम येचुरी के साथ बैठा देखा जाऊं तो संशोधनवादी घोषित कर दिया जाऊंगा। हमें सांस्कृतिक/सामाजिक संगठनों और राजनीतिक पार्टियों में फर्क करना चाहिए। दो वर्ष पूर्व गाजियाबाद में आयोजित भगत सिंह की यादगार से संबंधित एक गोष्ठी में मंच पर जैसे ही मेरे बगल में डी.पी. यादव आकर बैठे, मैंने वाकआउट कर दिया। लेकिन वह एक कुख्यात माफिया का मामला था। मैं राकेश सिन्हा को नहीं जानता लेकिन अगर वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थक हैं तो महज इस कारण हम उनके मंच से अपनी बात कहने में गुरेज करें- यह मुझे उचित नहीं लगता। क्या तुम्हें आमंत्रित करते समय राकेश सिन्हा को तुम्हारे विचारों की जानकारी नहीं थी? तुम्हें अच्छी तरह पता है कि वर्षों से रामबहादुर राय जी के साथ मेरे अच्छे संबंध हैं और मैं उनकी पत्रिका में वही लिखता रहा हूं जो मैं चाहता हूं। रामबहादुर राय जब मुझसे मिलते हैं और राजनीतिक मुद्दों पर बातचीत होती है तो मैं उन्हें आरएसएस समर्थक और वह मुझे कम्युनिस्ट समर्थक समझकर ही बात करते हैं और कई बार अत्यंत शालीनता के साथ हमारी बहसें भी हो जाती हैं। इसलिए हमें कहां जाना है, कब जाना है, किसके साथ बैठना है, किसके साथ नहीं बैठना है- ये सारी बातें विषय और उस समय की घटनाओं से निर्देशित होनी चाहिए। इसके लिए कोई बना बनाया फार्मूला नहीं हो सकता।
जहां तक ओम थानवी का सवाल है, संपादक होने के वावजूद उनके व्यक्तिगत आग्रह/दुराग्रह उनके संपादकीय दायित्व पर हमेशा भारी पड़े। तुम उनके साथ काम कर चुके हो और मैं उनके संपादन में नियमित तौर पर लिख चुका हूं। 1970 से दिल्ली के विभिन्न अखबारों में मैं फ्रीलांसिंग करता रहा हूं और रघुवीर सहाय से लेकर ओम थानवी तक अनेक संपादकों से मेरा साबका पड़ा। मेरा व्यक्तिगत अनुभव यही रहा कि संपादक के रूप में ओम थानवी अत्यंत अनैतिक और निकृष्ट हैं। नेपाल पर जब मैं लिखता था, उन्होंने बिना मुझसे पूछे हर जगह जनयुद्ध शब्द को इनवर्टेड कामा के अंदर कर दिया और जब मैंने एक बार जानना चाहा कि ऐसा वह क्यों करते हैं तो उन्होंने कहा कि जनयुद्ध तो माओवादी मानते हैं, हम तो इसे तथाकथित जनयुद्ध ही कहेंगे। मैंने उन्हें समझाना चाहा कि यह लेख मेरा है, मेरे नाम से छप रहा है इसलिए मेरे ही विचारों को इसमें रहने दीजिए लेकिन उन पर इसका कोई असर नहीं हुआ। मैंने इसे मुद्दा न बना कर जनयुद्ध की बजाय सशस्त्र संघर्ष लिखना शुरू किया जो ओम थानवी के लिए ज्यादा आपत्तिजनक हो सकता था लेकिन जिद पूरी होने की सनक से मस्त इस हठधर्मी संपादक का ध्यान इस पर नहीं गया और जनसत्ता से मेरा संबंध बना रहा। लेकिन जब प्रधानमंत्री प्रचंड द्वारा कटवाल को बर्खास्त किये जाने के बाद मेरे लेख में उन्होंने काटछांट करना चाहा क्योंकि वे कटवाल की बर्खास्तगी के पक्ष में नहीं थे, तब मेरा संबंध समाप्त हुआ क्योंकि मैं इसकी इजाज़त नहीं दे सकता था। मैंने तय कर लिया कि अब ओम थानवी के संपादन में नहीं लिखूंगा। ऐसे बीसियों प्रसंग हैं जिनके आधार पर मैं उन्हें निकृष्ट कोटि का संपादक मानता हूं। अभी के लेख में भी उनकी तिलमिलाहट इस बात से है कि वामपंथियों ने उनके आराध्य अज्ञेय पर लगातार प्रहार किये थे। इस लेख के जरिए उन्होंने अपने भरसक वामपंथ को नीचा दिखाकर अपना हिसाब किताब चुकता करने की कोशिश की। इस समय कुछ ब्लॉग्स भी ऐसे हैं जिन्हें देखकर लगता है कि बंदर के हाथ में उस्तरा पकड़ा दिया गया हो। बस, थानवी जैसे लेखक और उस्तरापकड़ू बंदरों वाले ब्लॉग्स में एक अच्छी दोस्ती कायम हो गयी है।
तुमने अपने स्पष्टीकरण में अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रमाण के रूप में कुछ घटनाओं का जिक्र किया है जो मुझे अनावश्यक लगा। आशा है तुम इस तरह की आलोचनाओं से आहत हुए बगैर वह करते रहोगे जिसे ठीक समझोगे न कि वह जो दूसरों को खुश रख सके।
तुम्हारा-
आनंद स्वरूप वर्मा
मंगलेश डबराल का वह स्पष्टीकरण, जिसकी प्रतिक्रिया में उपर्युक्त पत्र भेजा गया है:
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मंगलेश डबराल |
पिछले कुछ दिनों से कुछ फेसबुक ठिकानों पर यह सवाल पूछा जा रहा है कि मैं भारत नीति संस्थान नामक एक ऐसी संस्था में समान्तर सिनेमा पर वक्तव्य देने के लिए क्यों गया, जिनके मानद निदेशक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्थक राकेश सिन्हा हैं. मैं स्वीकार करता हूँ कि यह एक चूक थी जो मुझसे असावधानी में हो गयी. समान्तर सिनेमा की एक शोधार्थी सुश्री पूजा खिल्लन को मैंने कभी इस विषय में कुछ सुझाव दिए थे और एक दिन उन्होंने फोन पर मुझसे कहा कि एक कार्यक्रम में उनके पेपर पाठ के दौरान मैं कुछ बोलने के लिए आऊँ. दफ्तर में काम की व्यस्तता के बीच मैंने इंटरनेट पर इस संस्था के बारे में कुछ सूचनाएं देखीं कि यह एक दक्षिणपंथी संस्था है लेकिन उसमें रामशरण जोशी, अभय कुमार दुबे, कमर आगा, ज्ञानेंद्र पाण्डेय, नीलाभ मिश्र, अरविंद केजरीवाल आदि वक्ता के रूप में शामिल हुए हैं. इससे यह भी भ्रम हुआ कि दक्षिणपंथी या हिन्दुत्ववादी विचारधारा की ओर झुकाव के बावजूद यह पेशेवर संस्थान है. मुझे यह भी सूचित किया गया कि संस्थान की भूमिका सिर्फ जगह उपलब्ध कराने तक सीमित है. कुल मिलाकर मैं इस पर ज़्यादा गंभीरता से विचार नहीं कर पाया.
सुश्री खिल्लन का पर्चा और मेरा वक्तव्य, दोनों सेकुलर और प्रगतिशील दृष्टिकोण के ही थे. मैंने अपने वक्तव्य में अन्य कई मुद्दों के साथ फिल्मों में हाशिए के लोगों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के चित्रण के सवाल पर भी बात की जिसमें गर्म हवा, ‘नसीम‘, ‘अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है‘ और ‘मैसी साहब‘ आदि की खास तौर पर चर्चा थी. सुश्री खिल्लन के पर्चे में मकबूल फ़िदा हुसैन की फिल्म ‘गजगामिनी‘ के कलात्मक दृश्यों की भी बात की गयी थी. लेकिन गोष्ठी में क्या कहा गया, बहस इस पर नही, बल्कि वहाँ जाने के सवाल पर है जिसका अंतिम जवाब यही है कि यह एक चूक थी.
अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के स्तर पर मेरा रिकार्ड साफ रहा है. मैंने साहित्य अकादमी मिलने पर उत्तराखंड — तब उत्तरांचल–के मुख्यमंत्री के हाथों प्रेस क्लब देहरादून से सम्मानित होना अस्वीकार किया, फिर भाजपा शासन में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मलेन, न्यूयार्क का निमंत्रण अस्वीकार किया और तीन साल पहले बिहार सरकार का प्रतिष्ठित राजेन्द्र माथुर पत्रकारिता पुरस्कार भी नहीं लिया क्योंकि सरकार में भाजपा थी. प्रायः कुछ न छोड़ने, कुछ न त्यागने के इस युग में ये मेरे कुछ विनम्र “अस्वीकार” थे.
यह भी सच है कि एक मनुष्य का इतिहास उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है और उसके साथ चलता रहता है.
स्वयं को प्रगतिशील मानने वाले मित्रों को इतनी सावधानी बरतना चाहिए कि वे दक्षिणपंथी संगठनों या संस्थाओं के कार्यक्रम में न जाएँ क्योंकि वे आपकी उपस्थिति मात्र का लाभ खुद के फायदे के लिए उठा लेते हैं. दस साल बाद भी वे बताएँगे कि आप उनके कार्यक्रमों में आते रहे हैं.
ललित सुरजन
ललित जी की बात से सौ प्रतिशत सहमत हूँ. मेरा सवाल है कि क्या आनंद स्वरुप वर्मा इस ब्लॉग को भी बन्दर के हाथों में उस्तरा मानते है? यह यह टिपण्णी सिर्फ उन ब्लॉग पर लागू होती है जो उनके पक्षधर नहीं है. जहाँ से उन्हें फ़ायदा हो वह ब्लॉग उत्तम अन्य सभी बेकार! वैसे ओम थानवी को ‘निकृष्ट कोटि का संपादक’ मानने वाले आनंद स्वरुप वर्मा ने कौन सा बड़ा काम किया है वे भी स्पष्ट कर देते तो बहुत अच्छा हो जाता. उनके ‘निकृष्ट कोटि का संपादक’ कहने की वजह बस यही तो है कि थानवी जी ने उनके लिखे का संपादन कर दिया! और ब्लोगों को बन्दर का उस्तरा कहने का कारण भी यही है कि इसने उनकी पोल खोल दी. अगर जनपथ की तरह मोहल्ला या अन्य ब्लॉग वर्मापथ का अनुशरण करते तो शायद वे ऐसा कुछ नहीं कहते. असल में वर्मा जी को केवल अपनी प्रसंशा सुनने की आदत है. जो उनकी प्रसंशा नहीं कर सकते वे सब उनके दुश्मन बन जाते हैं.
अरविन्द सिंह, पूना
मै हैरान इस बात को लेकर हूँ कि समय के साथ वामपंथ कि प्रकृति अभी भी नहीं बदली है. आखिर मंगलेश डबराल जी को माफ़ी क्यों मंगनी पड़ी ? क्या यह उनकी चुक थी ? मै नहीं मानती हूँ. भारत नीति प्रतिष्ठान का वेबसाइट पर सब कुछ है. इसमें कही भी संघ समर्थक या उससे जुड़े होने का उल्लेख तक नहीं है. हा इसके निदेशक जरुर संघ विचारधारा के प्रबल समर्थक मने जाते हैं. तो क्या अब तक जितने लोग गए है इस मंच पर सबने वामपंथ कि सीमा का उल्लंघन किया है? स्तालिनवादी यह मानसिकता ही वामपंथ के पतन का कारण है. मै स्वयं वामपंथी संगठन से जुडी थी और अभी भी कई मामलों में मेरी उनसे सहमति है. राकेश सिन्हा जी से मिलने के बाद मेरे विचारो में परिवर्तन आया है. वे उतने ही प्रगतिशील हिं जितने आप अपने आपको मानते हैं. क्या मंगलेश डबराल को कार्यक्रम में प्रतीत हुआ कि उनपर कुछ आरोपित किया जा रहा है? क्या बोलने से पहले उनसे कुछ सीमाए बता ड़ी गयी थी? क्या जो पर्च पढ़ा गया उसमे निदेशक ने कोई संपादन किया या पढने कि पूर्ण स्वतंत्रता दी? ये प्रश्न आज अधिक प्रशंगिक हैं? राकेश सिन्हा सचमुच में संवाद के समर्थक है यही कारण हिया कि वे लोगो को अलग अलग मुद्दों पर इकठ्ठा कर रहे हैं. डबराल जी को सहसद दिखाना चाहिए और कहना चाहिए कि उन्होंने कोई गलती या चूक नहीं कि है. जिन्हें लगता है उन्हें लगने दे. वे तो सहस के साथ अपनी बाते कहकर आय्ठे फिर किस बात का अपराध बोध उनपर थोपा जा रहा है? उन्हें जितना आदर और सम्मान मिला किया एक वामपंथी के हैसियत से उन्हें दिया गया कि उनकी विद्वता का सम्मान किया गया ? जब मैंने राकेश जी से फ़ोन पर बात कर चर्चा कि तो उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि अगर उन्हें पता होता कि डबराल जी कि फजीयत होगी तो वे स्वयं उन्हें नहीं बुलाते हलाकि उन्हें इस बात का दर था कि आने से पहले कुछ कट्टरपंथी वामपंथी उन्हें उसमे नहीं जाने कि सलाह देंगे. तब तो पर्वत पटनायक को विश्व बैंक की कमिटी में नहीं रहना चाहिए क्योकि भारत के वामपंथ उसे अमेरिका का पिट्ठू मानते हैं. क्या प्रतिष्ठान अमेरिकी स्मर्ज्वाद से भी खतरनाक हो गया है. वास्तव में दर तो इस बात का है की संवाद अगर इसी तरह चलता रहा तो विचारधारा की जाती व्यवस्था मिट जाएगी और अनेक लोगो का सुविधाजनक बौद्धिक दुकानदारी बंद हो जाएगी. डबराल एक लोकतान्त्रिक आस्था के व्यक्ति है पर जरुरत से ज्यादा घबरा गए. यही समय होता है परीक्षा की घरी का. संघ के अनेक कट्टरपंथी लोगो ने राकेश सिन्हा के विरुद्ध मुहीम चलयी की वामपंथियों को मंच दे रहे हैं उन्होंने पुच्छ इससे आपको क्या मिल रहा है. वे आते हैं और अपने बात कहकर चले जाते हैं. हम क्या अपराध बोध के शिकार हैं. पर वे अपनी रह अलग बनाकर संवाद खड़ा किया जिसे कुछ निथाल्लू तोड़ना चाहते हैं. वास्तव में झगडा तो यश का है , लोप्रियता का है, अधिपत्य का है और उसे सीधे नहीं कर संघ को बिच में लाया जा रहा है. राकेश सिन्हा ने प्रभाष जोशी समीरित व्यख्यान भोपाल में दिया . प्रगतिशील लोगो को उसे पढ़ना चाहिए. उन्होंने कोर्पोराते मीडिया पर आक्रमण किया , विदेशी पूंजी का विरोध किया. अगर संघ कल कार्ल मार्क्स का नाम ले लेगा तो ह=भारत के वामपंथी मार्क्स को भी गली देने लगेंगे. डबराल जी माफ़ी आपको इतिहास में कायरो की श्रेणी में खड़ा करेगा.. क्या आप राकेश सिन्हा को नहीं जानते थे? क्या उनका लेख आपने कभी नहीं पढ़ा है भले ही नहीं छापा हो ? क्या चनलो पर उन्हें बोलते हुए नहीं देखा था? आप क्यों नहीं कहते की सहर्ष निमंत्रण स्वीकार कर आप गए. आपने उस दिन लगभग तिन घंटे समय बिताये. आपको प्रतिष्ठान का प्रकाशन भेट किया गया. मेरे मित्र ने आपसे सवाल भी किया था. उसने मुझे जानकारी ड़ी की आप सहज थे , प्रसन्नमुद्रा में थे. इसलिए एक स्वाभिमानी की तरह उनसे लड़िये जो वामपंथ को एक समप्रदाय बना देना चाहते हैं. फिर ममता की बात तो सही है की मार्क्सवादियो से तालुकात नहीं रखो. मै डबराल जी को एक महँ कविमंती हूँ उनकी इज्जत करती हूँ इसलिए मुझे दुःख हुआ . आगे भी पवित्रता के साथ उनकी प्रतिभा और प्रतिबद्धता की लिए उनका सम्मान करती रहूंगी.
जाओ नहीं वह खुदपरस्त , जाओ वह बेवफा सही !
जिसको हो दीन-ओ-दिल अजीज , उसकी गली में जाए क्यूँ !!
जैसे सियार मैदान छोरकर भागता है वैसे ये वामपंथी बिच बहस से भाग गए , अभी तो शेर को मैदान में आना बाकि ही था .-manushiRana
मंगलेश डबराल जी को खुला पत्र
आदरणीय मंगलेश डबराल जी,
मंगलेश डबराल जी किसी कार्यक्रम में जाना या नहीं जाना यह अपका अपना फैसला है। आप भारत नीति प्रतिष्ठान के कार्यक्रम समान्तर सिनेमा, के गोष्ठी में अध्यक्ष के नाते आये थे। मैं भी श्रोताओं में था और कार्यक्रम के आयोजन से भी जुड़ा हुआ था। आपने जिस प्रकार से माफीनामा दिया और कार्यक्रम में भाग लेने को एक चुक बाताया उसे देखकर मुझे आश्चर्य एंव दुख दोनो हुआ। आपने कुछ ऐसी बाते कहीं जो तथ्यो से परे है।
1. आपको मैने ही प्रतिष्ठान का साहित्य भेट किया आपने उसे सहर्ष स्वीकार किया साथ ही आपने प्रतिष्ठान के कार्यो के प्रशंसा भी की ।
2. आपने अपने उदबोधन में निदेशक का नाम बड़े सम्मान से लिया।
3. प्रतिष्ठान द्वारा इस आयोजन की भी सराहना की ।
4. विषय पर खुली चर्चा हुई।
कार्यक्रम के दौरान क्या आपको कही लगा की आप किसी प्रकार के दवाब में बोल रहे है? इसके बावजूद आपने प्रतिष्ठान को व्यवसायिक संस्था नहीं है जो प्रमाण पत्र दिया वह आपकी integrity पर सवाल खड़ा करता है। आप अपने बंधुओ से सीधे माफ़ी मांग लेते तो कोई हर्ज नहीं था परंतु माफ़ी मांगने के क्रम मे आपने जो तर्क दिया वह आप जैसे श्रेष्ठ विद्वान के लिए उचित प्रतीत नहीं होता है। कार्यक्रम में आपका अभिनंदन हुआ, आपका परिचय दिया गया जिसमे आपके योगदान एवं व्यकित्तव की चर्चा की गई कार्यक्रम से पहले निदेशक के कमरे में अनेक लोगो के साथ आपने खुली चर्चा की इस दौरान क्या आपको लगा की आप पर विचारधारा थोपी जा रही है? आप कार्यक्रम के दौरान व बाद में भी पूर्ण संतुष्ट ऩजर आ रहे थे। कार्यक्रम के उपरान्त आपने श्रोताओं के साथ खुली चर्चा भी की। आपने स्वंय सार्वजनिक रुप से कहा था कि आप प्रतिष्ठान को आपके द्वारा संपादित दि पब्लिक एजेंडा की मेलिंग सूची में शामिल करेगें साथ आपने इसकी प्रति भी संस्थान के मानद निदेशक प़्रो राकेश सिन्हा जी को दी थी। जब मैं आप को नीचे आपकी गाड़ी तक छोड़ने गया था इस दौरान भी आपने कार्यक्रम को सार्थक बताया था। कार्यक्रम में भाग लेने के उपरांत मुझे जो प्रतीत होता है कि प्रतिष्ठान ने तो शुद्ध शैक्षणिक व व्यवसायिक द़ष्टि में चर्चा का आयोजन किया था किंतु आपने ट्रेड यूनियन के दवाब में अपने विवेक समर्पण कर दिया जो आप जैसे महान साहित्कार को शोभा नहीं देता है।
नवनीत
09968257667
navneet.du@gmail.com
I phoned and insisted Rakesh sinha ji to write a rejoinder, he said, "why should I write?" IPF has been trying to counter the virus which had long ago inflicted in our intellectual community. It is their battle for purity of ideology and think any dialogue with IPF or him will make him polluted. let them think so. I am firm on my ideological and academic pursuit." sir great. I am quoting him which was an informal conversation on phone.–Dear friends and my former colleagues in th eleft movement kindly learn to be a man of big heart which is prerequisite for dialogue. —Manushi
ललित सुरजन जी की टिप्पणी पढ़कर दुःख हुआ। ऐसी अस्पृश्यता की भावना की उनसे अपेक्षा न थी।
अरे रानी मानुसी राणा तो तुम वास्तव में शेर हो ! मैं तो समझता था तुम शेरनी हो । वामपंथी मैदान छोडने वाले जीव नहीं होते । इसका उदाहरण तो हमारा वामपंथी कवि पुंगव मंगलेश डबराल ही है जो र स स के मंच पर भी अपनी बात रख आया और अब अपनों का हमला ऐसे झेल रहा है जैसे निछद्दम में खड़ी भैंस ओलों भरी बरसात की बूंदें झेलती है और दूध भी देती है ।
"शेर" जान्कीपुल पर ओम थानवी वाली पोस्ट पर "गलती" से एक कमेन्ट करके और फिर उसे मिटाकर भाग चुका है. उसके बाद एनानिमस कमेंट्स का तांता लगा है हर जगह. ये सारे कमेन्ट बस व्यक्तिगत हमले कर घटिया से घटिया आरोपों द्वारा किसी झूठ को सच में तब्दील करने के गोयेबल्सीय तकनीक से बहस को धुंधला करने, भटकाने के लिए हैं. जब मैंने गोलवलकर से लेकर तमाम संघी "विद्वानों" की किताब से कोट कर सच सामने लाया तो यह "एनानिमस" गीदड़भभकियों पर उतर आया/आई. फिर जब कुछ और दोस्त सामने आये तो ट्रैक फिर पलट गया. वहाँ माडरेटर की अपील पर जब हम सबने लिखना बंद कर दिया तो एक और "सिंह" सामने आये. खैर उनका डिटेल जवाब मैंने अपने फेसबुक पेज पर दे दिया है.
मुझे लगता है कि एनानिमस कमेंट्स को अलाऊ करना ही गलत है. गंभीर ब्लाग्स पर एनानिमस कमेंट्स की सुविधा समाप्त कर देनी चाहिए कि "शेरों" का असली चेहरा देखा जा सके.
अशोक जी की बात से मैं सहमत हूं
जिन नामों को आप असली मानते हैं, उनकी भी कोई गारंटी नहीं है. नागार्जुन क्या असली नाम है?
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