सियासत की बिसात पर मोहरे की चाल और जनता बेहाल


विपक्ष आज कमज़ोर है! यह बात किसी से छुपी नहीं है। लाख कोशिशों के बावजूद विपक्ष के सारे मोहरे अपने लक्ष्य से कोसों दूर नज़र आ रहे हैं। मोहरों की चाल ग़लत है, ऐसा नहीं है बल्कि मोहरों की चाल को कोई बल नहीं मिल पा रहा है। मोहरों को मनोबल और सुरक्षा अक्सर प्यादे ही प्रदान करते हैं। विपक्ष के प्यादों की फ़ौज आज टुकड़ियों में बंटी है जो अपने-अपने मोहरों की सुरक्षा में तैनात हैं।

सत्तापक्ष के पास राजा और वज़ीर के अलावा मोहरों की कोई बिसात नहीं और विपक्ष के पास मोहरों के अलावा राजा और वज़ीर की कोई बिसात नहीं। जिसकी वजह से विपक्ष के सारे मोहरे अपना-अपना सुर अलापते हैं लेकिन कोई सरगम तैयार नहीं हो पाती, बल्कि उनके स्वतंत्र आलाप कर्कश ध्वनियों का एक कोलाहल बन कर रह जाते हैं।

जो सत्तापक्ष के इरादों को भांप चुके हैं वे सारे मोहरे मज़बूती से अपने-अपने क़िले की हिफ़ाज़त में मुस्तैद हैं और जो कमज़ोर पड़े, उन्हें सत्तापक्ष निगल चुका है। सत्तापक्ष के इरादे साफ़ हैं- एकदलीय व्यवस्था, जिसकी ओर वह तेज़ी से अग्रसर है। बहुदलीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मज़ाक सत्तापक्ष के नेतृत्व ने सदन के भीतर और बाहर भी उड़ाया है। साथ ही साथ उन्होंने खुलकर एकदलीय व्यवस्था का एलान भी किया जिसकी आलोचना विपक्ष ने जतायी भी। सत्तापक्ष के इस मंसूबे की ओर राजनीति विश्लेषकों ने भी इशारा किया है। गोवा, मणिपुर और महाराष्ट्र के तजुर्बे ख़ासकर उनके इस मंसूबे की पुष्टि करते हैं।

अब तक नोटबंदी से लेकर इलेक्टोरल बॉन्‍ड, राजनीतिक दलों को कॉर्पोरेट व विदेशी फंडिंग, ईडी, एनआईए तथा इनकम टैक्स विभाग के इस्तेमाल से विपक्ष को घेरने और मात देने के सत्तापक्ष के दांव जगज़ाहिर हैं। ऊपर से विपक्षी मोहरों की ख़रीद-फ़रोख़्त में कामयाबी सत्तापक्ष की हवस को दर्शाती है। कई चुनावी नतीजे में विपक्ष अधिकतम प्रतिशत मतों को हासिल करने के बाद भी सत्ता से महरूम रहा है। ऐसे में विपक्ष के क़िले लगातार टूटते नज़र आ रहे हैं और बहुदलीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर ख़तरा साफ़ मंडरा रहा है।

राजनीतिक विचारधाराओं की बात की जाए तो मूलरूप से भारत में तीन धाराएं बहती हैं- बाएं, दाएं और मध्यमार्गीय दृष्टिकोण की धाराएं। बायीं ओर की धार को वाम दलों के नाम से सम्बोधित किया जाता है, दायीं ओर सत्तापक्ष खड़ा है और मध्यमार्गीय धारा कांग्रेस की मानी जाती है, जो आज मुख्य विपक्ष के रूप में खड़ी है। बाक़ी सारे छोटे-बड़े राजनीतिक दलों की विचारधारा कहीं न कहीं इन्हीं तीन धाराओं में से किसी एक के नज़दीक बहती है। इनमें से कुछ ऐसे भी दल हैं जो समयानुसार अपनी क़रीबी धारा प्रवाह को छोड़ कर दूसरी धारा से जा मिलते हैं – ऐसा करने के लिए उन्हें सत्तामोह मजबूर करता है।

इन तीन धाराओं का दिशालक्ष्य क्या है? बाएं ख़ेमे वाले ग़रीबों, किसानो, मज़दूरों और मज़लूमों की आवाज़ बुलंद करते हैं, साथ ही साथ वर्गविरोधी समाज और बराबरी के पक्षधर होते हैं जो तर्क और विज्ञान के दम पर वर्तमान और भविष्य को सुलझाने का सपना देखते हैं, इसलिए इन्हें प्रगतिशील धारा के नाम से भी जाना जाता है जो रूढ़िवादी मानसिकता, दमनकारी नीतियों व पूंजीपतियों के शोषण के विरोध में बिगुल बजाते हैं।

दायीं ओर की धारा ठीक प्रगतिशील विचारों के विपरीत होती है जहां वर्तमान और भविष्य से ज़्यादा इतिहास और संस्कृति के कुतर्क पेश किये जाते हैं, लेकिन हक़ीक़तन इस धारा के पक्षधर संस्कृति व गौरवशाली इतिहास की आड़ में पूंजीपतियों से सांठगांठ कर सत्तासुख भोगते हैं और पूंजीपतियों के लिए जनता के शोषण के रास्ते आसान करते जाते हैं। ये इतना सबकुछ आसानी से इसलिए कर पाते हैं क्‍योंकि ये जनता के बीच किसी ख़ास अल्पसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत का ज़हर घोलने में कामयाब होते हैं जिससे इनका काम आसान हो जाता है और बेचारी जनता असली सवालों को छोड़ कर अपनी मूर्खता का प्रमाण देती है।

मध्यमार्गीय विचारधारा सबको साथ लेकर चलने की बात करती है जिसकी वजह से हर समय सबको खुश रख पाना उनके लिए असंभव लक्ष्य साबित होता है। यही कारण है की इनकी एक टांग प्रगतिशील मंसूबों की ओर तो दूसरी टांग अतीत के दलदल में फँसी होती है। नतीजतन इनके क़दमों की रफ़्तार थोड़ी धीमी पड़ जाती है क्‍योंकि इन्हें दलदल से क़दम बाहर भी निकालना होता है और मुँह के बल गिरने का ख़तरा भी होता है। इनका काम जटिल होने के साथ-साथ बड़े धैर्य और साहस का होता है क्‍योंकि हर क़दम पर इन्हें दुलत्ती दूसरी टांग से ही पड़ती है। इनका मंत्र है अनेकता में एकता जो भारतीय विविधताओं के परिप्रेक्ष्‍य में अपने आप में जटिलतम लक्ष्य है।

आज़ादी के बाद से भारत में आधुनिक स्तर पर जो कुछ भी बन पाया, मध्यमार्गीय विचारधारा की ही देन है – जिसमें शुमार हैं संविधान की संरचना से लेकर पंचायती राज तक का गठन; UGC, PSUs, ISRO, DRDO, AIIMS, IIMs, IITs से लेकर ITI तक की सोच और निर्माण; जनाधिकारों की अगर सूची बनायी जाए तो उसमें भी इसी विचारधारा के शाषनकाल का योगदान सर्वश्रेष्ठ है।

सवाल ये है कि मध्‍यमार्गी राजनीति के संदेश जनता के दिलों तक पहुँच कर लबों पर क्यों नहीं आ पाते? क्यों कोई बहरूपिया उसे छल लेता है? क्या किसी ने नोटबंदी नहीं झेली या लॉकडाउन नहीं देखा या एयर इंडिया, रेलवे, PSUs, LIC और ITI का निजीकरण/बिकना नहीं देखा? फिर भी लोगों ने कोरोना जैसी आपदा में दिवाली भी मनायी और थाली कटोरा पीट-पीट कर नाचे भी?

बहरूपिये ने समझ लिया था कि जो जनता ‘पप्पू नाच नहीं सकता’ पर अपने मतों का फ़ैसला कर सकती है उसे कोरोना जैसी आपदा पर भी नचाया भी जा सकता है। जनता के थिरकने के लिए मीडिया जैसी ऑर्केस्ट्रा टीमों को पहले ही बुक कर लिया गया। मीडिया के वो माहेरीन जिन्होंने अपनी महारत का सौदा नहीं किया आज भी अपनी शिनाख़्त बचाये हुए हैं। बाक़ी अक्सरियत, जिन्होंने अपने हुनर को दरकिनार कर हथियार डाल दिए, अपनी महारत के अभाव में महज़ चीयर लीडर का रोल अदा कर रहे हैं। हद तो ये है के जो लोग सबसे ज़्यादा नाचे, नौकरियां और व्यवसाय भी उनके ही गये। फ़ैसला आख़िर जनता को ही करना है कि देश की रहनुमाई कुतर्कों की बुनियाद पर हो या संजीदा नेतृत्व के हाथों।

सत्तापक्ष की मज़बूती इस बात में है कि वहां मोहरों से लेकर प्यादे तक अपनी जीत को भी राजा की जीत घोषित करते हैं जबकि हक़ीक़त ये है कि राजा की चालें सीमित होती हैं। खेल का निर्माण वज़ीर, घोड़े, हाथी, ऊंट और प्यादे ही करते हैं। विपक्ष के प्यादे उन मोहरों की सुरक्षा में लगे हैं जिनका आपस में कोई तालमेल नहीं, जिससे उनकी नज़र राजा और वज़ीर से हट जाती है और उनके मोहरे एक के बाद एक धराशायी होते चले जाते हैं। राजा और वज़ीर से प्यादों की दूरी हमेशा घातक साबित हुई है।

यह दूरी मौजूदा विपक्ष की स्थिति में साफ़ नज़र आ रही है, जिसकी वजह से प्यादे मोहरों के क़रीब जा पहुंचे हैं लेकिन खेल राजा की सुरक्षा पर ही टिका रहता है। ये बात न तो मोहरे प्यादे को बता रहे हैं और न ही राजा की अपनी टुकड़ी। शतरंज और राजनीति में मूलरूप से एक अंतर है – शतरंज के खेल की शुरुआत मोहरों और प्यादों की बराबरी से होती है, राजनीति में नहीं। इसलिए सत्तापक्ष और विपक्ष की लड़ाई में दोनों का बल समान नहीं होता। राजनीति में विपक्ष को मोहरों से ज़्यादा प्यादों की ज़रूरत होती है, जिससे मोहरे बनाये जा सकते हैं।


लेखक समाजशास्त्री एवं राजनीति विश्लेषक हैं


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