मराठी साहित्य में दलित अस्मिता के प्रकाश-स्तंभ


बाबूराव रामाजी बागुल का जन्म 17 जुलाई 1930 को नासिक में हुआ था। हाई स्कूल की शिक्षा के बाद,उन्होंने 1968 तक विभिन्न काम किए। ऐसा करते हुए उन्होंने पत्रिकाओं में कई कहानियां प्रकाशित कीं, जिन पर मराठी पाठकों का ध्यान आकर्षित होने लगा। अंततः 1963 में उनकी कहानियों का पहला संग्रह आया, जेव्हा मी जात चोरली (जब मैंने अपनी जाति को छुपाया था)। इसने मराठी साहित्य में एक तिरोहित समाज के अपने भावुक चित्रण के साथ हलचल पैदा की और इस तरह आधुनिक मराठी साहित्य में नई गति लाई।

जब बाबूराव बागुल की आत्मकथा सबसे पहले उनकी मातृभाषा मराठी में प्रकाशित हुई थी तो उसने मराठी साहित्य और समाज को झकझोर दिया था। भारतीय समाज में जाति पर आधारित दमन और अपमान की साहसभरी कथा कहने कहने वाली यह पुस्तक अब एक क्लासिक मानी जाती है और दलित साहित्य में मील का पत्थर। आज इसे कई आलोचकों द्वारा दलितों के महाकाव्य के रूप में देखा जाता है। बाद में अभिनेता-निर्देशक विनय आप्टे द्वारा इस कहानी पर एक फिल्म बनाई गई थी। यह 20वीं शताब्दी के शुरुआती आधुनिक दलित साहित्य की कृतियों में से एक थी।

बाबूराव बागुल की साहित्यिक रचनाएं समाज को तो प्रतिबिंबित करती ही हैं, वे ब्राह्मणवादी ताकतों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल भी हैं। उन्होंने मराठी साहित्य में ‘दलित चेतना’ का विकास कर एक नए अध्याय की शुरुआत की। उनके पात्र जाति-आधारित अमानवीय पदक्रम पर तो प्रश्न उठाते ही हैं, वे उसके मूल आधार पर भी कठोर प्रहार करते हैं, वे क्रोधित हैं, वे असहमत हैं, वे विद्रोही हैं। उन्हें असहनीय पीड़ा से गुज़रना पड़ता है परन्तु वे उसे अपनी नियति मानने को तैयार नहीं हैं। वे अपने आत्माभिमान और गरिमा के लिए आक्रामक संघर्ष करते हैं। बागुल की कहानियों में कोई ‘उद्धारक’ नहीं है; उनके नायक वे पददलित हैं जो अपनी अधोगति के लिए ज़िम्मेदार व्यवस्था के खिलाफ आक्रोशित हो उठ खड़े होते हैं। बागुल की एक कहानी का नायक मस्थुर कहता है, “जब वे मुझे मार रहे थे तब दरअसल मनु मुझे मार रहा था।”

बाबूराव बागुल का इसके बाद कविताओं का एक संग्रह, आकार (आकार) (1967) प्रकाशित हुआ, जिसने तत्काल दृश्यता दी, लेकिन यह उनकी लघु कहानियों का दूसरा संग्रह मरण स्वस्त होत आहे (डेथ इज गेटिंग चीप) (1969) था, जिसने उनकी स्थिति को मजबूत किया अपनी पीढ़ी की एक महत्वपूर्ण प्रबुद्ध आवाज के रूप में। संग्रह को अब भारत में दलित लेखन में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है और 1970 में उन्हें महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘हरिनारायण आप्टे पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था।

चूंकि दलित लेखकों ने धीरे-धीरे साहित्यिक दुनिया में अपना उचित स्थान बना लिया है, इसलिए यह स्पष्ट रूप से एक परिवर्तन काल है, साहित्यिक क्षेत्र पर दलित पात्रों का प्रभुत्व तो था लेकिन उनके पास बहुत मजबूत आवाज नहीं थी। दलित साहित्य केवल एक साहित्यिक धारा या रचनाओं का कोई औपचारिक विभाजन नहीं है। यह एक सामाजिक आन्दोलन है जो अन्याय का विरोध करता है और मुक्ति की आशा से चालित है। बाबूलाल बागुल का तर्क है कि  “भारत का स्थापित साहित्य, हिन्दू साहित्य है” और उसके हिन्दू चरित्र के कारण ही नीची जातियों के लिए उसमें कोई जगह नहीं है। अपनी बात को विस्तार देते हुए वे लिखते हैं,“जिन लोगों ने हिन्दू मूल्यों के ढांचे को आत्मसात कर लिया है, उनके लिए फुले और आंबेडकर के दर्शन से उद्भूत विचारों, कथानकों और नायकों को स्वीकार करना असंभव है।” (डांगले, 1992) इस सन्दर्भ में बागुल की राह एकदम अलग है। उनके कथानक, हाशिये के समाज से आते हैं। ‘गैंगस्टर’ और ‘स्ट्रीटवॉकर’ के विद्रोही नायक इसी समाज से हैं।

मराठवाड़ा के दीवाली, 1959 अंक में प्रकाशित अपने एक लेख में बागुल लिखते हैं: 

दलित साहित्य मानता है कि सामाजिक बहसों या दार्शनिक अथवा राजनैतिक घोषणापत्रों में जीवन का अर्थ खोजने से जीवन से रंग और उत्साह दोनों जाते रहेंगे। हमें अपने जीवन का असली अर्थ प्रकृति में मिलेगा। मनुष्य, दरअसल, प्रकृति का मूर्त रूप है। उसकी इच्छाएं, आवेग और भावनाएं, असल में सूर्य, चंद्रमा, तूफ़ान और आंधियों के समान हैं। जब इन प्राकृतिक इच्छाओं और भावनाओं को ‘षड रिपु’ निरुपित कर उनका दमन किया जाता है, तब धर्म और भगवान अमरत्व को प्राप्त हो जाते हैं और जीवन, जो कभी सुबह की देवी उषा का गीत था, अंधेरे में कैद हो जाता है। हम आए हैं तूफ़ान, प्रकाश और दावानल के विजयी रथों पर सवार। युग अब पेड़ों पर उड़ते-उतरते पक्षियों की तरह आएंगे और जाएंगे और चारों ओर खुशियां ही खुशियां होंगी।

अतः बागुल यह नहीं मानते कि दलित साहित्य का उद्देश्य केवल राजनैतिक और दार्शनिक विमर्शों का प्रतिवाद करना होना चाहिए। क्योंकि अगर हम केवल इसी मार्ग पर चलेंगे, केवल इसे ही सब कुछ मान लेंगे तो हम मनुष्य को उसकी रचनात्मकता और उसके भावनात्मक आवेगों से दूर कर देंगे। बागुल के लिए साहित्य, मनुष्यों की भावनाओं और इच्छाओं से जुड़ा हुआ है। पर जब मानवीय आवेगों, भावनाओं और इच्छाओं को विकृति बताकर दरकिनार कर दिया गया तो ईश्वर और धर्म का प्रधान हो गया और वे मनुष्यों के नियंता बन बैठे। बागुल द्वारा मनुष्यों की भावनाओं की तुलना तूफ़ान, जंगलों और प्रकाश से करना क्रन्तिकारी है। वे उस मार्ग का त्याग कर रहे हैं जिसमें भावनाओं को धार्मिक आज्ञाओं के आसपास घूमता हुआ बताया जाता था।

बागुल एक अम्बेडकरवादी बौद्ध थे। 1968 के बाद वे साहित्य के एक पूर्णकालिक लेखक बन गए, जो महाराष्ट्र में हाशिये पर पड़े लोगों के जीवन से संबंधित है। उनके साहित्यिक लेखन ने उस वर्ग के लोगों के जीवन का ग्राफिक विवरण दिया। बाबूराव बागुल की साहित्यिक रचनाएं समाज को तो प्रतिबिंबित करतीं ही हैं वे ब्राह्मणवादी ताकतों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल भी हैं। उन्होंने मराठी साहित्य में ‘दलित चेतना’ का विकास कर एक नए अध्याय की शुरुआत की।

बीआर अम्बेडकर , ज्योतिबा फुले और कार्ल मार्क्स के विचारों का बागुल के दिमाग पर प्रभाव पड़ा। वह जल्द ही दलित आंदोलन के एक महत्वपूर्ण कट्टरपंथी विचारक बन गए और 1972 में पैंथर, मैनिफेस्टो ऑफ पैंथर के एक प्रमुख विचारक को प्रकाशित किया। उसी वर्ष उन्होंने महाड में आयोजित ‘आधुनिक साहित्यिक सम्मेलन’ की अध्यक्षता की। वर्षों से उनकी कहानियों ने भविष्य के दलित लेखकों को अपनी आत्मचरितात्मक कथाओं को रचनात्मक प्रस्तुतिकरण सिखाया। इसके बाद, यशवंतराव चव्हाण महाराष्ट्र मुक्त विश्वविद्यालय ने मराठी साहित्य में उनके योगदान को मान्यता देने के लिए बाबूराव बागुल गौरव पुरस्कार की स्थापना की, जो एक नवोदित लघु-कथा लेखक के प्रारंभिक कार्य के लिए प्रति वर्ष दिया जाएगा।



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