स्वातंत्र्योत्तर भारत के निर्विवाद आंचलिक उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु का साहित्य आज़ादी के बाद दम तोड़ते निम्न मध्यवर्गीय कस्बाई जीवन का साहित्य है। रेणु की कहानियां असल में अनेक समस्याओं से जूझती उन जिंदगियों की कहानियां ही हैं जिनका अस्तित्व हर एक पल समस्याओं से घिरा है।
रेणु का समय प्रेमचंद के ठीक बाद का समय था। तब तक हिंदी में एक तरह के अभिजात्यबोध का साहित्य पर कब्ज़ा हो चुका था। भाषा शब्दों और प्रयोगों के खेल में फंसने लगी थी और यह कोई अनहोनी बात भी न थी। स्वतंत्रता के बाद नया उत्साह था, प्रगति के नए-नए सपने थे। ऐसे में सबसे आसान था बनी बनाई लीक पर चलकर शहरी और मध्यमवर्गीय जीवन की कहानियां लिखते जाना, पर रेणु ने ऐसा नहीं किया। रेणु का एकाएक उभरना मठों में बैठे लेखकों के लिए परेशान करने वाला था। उन्हें प्रसिद्धि जितनी जल्दी मिली, इल्जाम भी उतनी ही आसानी से हवा में गूंजने लगे।
सुप्रसिद्ध आलोचक सुरेंद्र चौधरी के अनुसार ‘रेणु की विचारधारा उनकी भावधारा से बनी थी। उन्हें विचारों से अपने भावजगत की संरचना करने की विवशता नहीं थी।’ यही कारण था कि वे अमूर्त से सैद्धान्तिक सवालों पर बहस नहीं करते थे। उनके विचारों का स्रोत कहीं बाहर-पुस्तकीय ज्ञान में न था, राजनीतिक हस्तक्षेप में उनका विश्वास बढ़ रहा था। उनके मन में एक आशा पनप रही थी। और जब ऐसा कुछ हुआ, तो रेणु अचानक सक्रिय हो गए।
मानसिक क्षमताओं के प्रशिक्षण की बात पर वे मुस्कुराते। वे विश्वास करते थे कि प्रशिक्षण के लिए ज़िंदगी स्वयं एक पाठशाला है। उनका विश्वास था कि राजनीतिक पृष्ठभूमि के कलात्मक उपयोग के लिए कार्यकर्त्ता की दृष्टि का विसर्जन जरूरी है। इससे राजनीतिक पृष्ठभूमि स्वयं अपनी गतियों को अधिक क्षमता से और अधिक स्पष्टता धारण करती है। लेखकीय प्रतिबद्धता इससे आहत नहीं होती। रेणु, प्रतिबद्धता को इतनी नाजुक चीज न समझते थे कि उसके लिए गुहार की जरूरत पड़ती रहे। वे उसे लेखक और आदमी की अविभाज्य नैतिकता मानते थे। पर साथ ही मैंने यह भी पाया था कि कतिपय राजनीतिक गतिविधियों से वे बेहद निराशा का अनुभव करते थे। उनका विचार था कि भारत में किसी शाब्दिक ढंग की वामपंथी एकता के बदले हमें जनता के बीच की एकता के आधारों को पहचानना चाहिए… पर उन्हें अपने विश्वासों ने भी कम निराश नहीं किया। इसे मोहभंग न कहा जाय तो क्या कहा जाय?
जिस उत्साह और सक्रियता के साथ वे सन ‘74 के आंदोलन में शरीक हुये थे और जिस प्रकार वे उससे प्रेरित हो रहे थे, उसे बाद की स्थितियों ने जिस हद तक झुठलाया, उससे गहरी मानसिक निराशा उत्पन्न होना स्वाभाविक था। रेणु का मोहभंग हुआ। भारतीय राजनीति में नेतापंथी तत्त्व की वास्तविकता क्रांति से बड़ी हो जाये, यह एक दुर्घटना थी। यह रेणु के जीवन का सकरुण इतिहास बन गया।
रेणु जानते थे कि एशियाई देशों में, कृषि-उत्पादन में बृद्धि और सामाजिक न्याय, दोनों को एक-दूसरे की प्रगति में योगदान करना है। पूरा ढांचा इस योग में बाधक है। इस ढांचे को बदले बगैर कोई प्रगति नहीं होगी। मगर जब तक ढांचा बादल नहीं जाता, तब तक गाँव सोया रहे इससे हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है? लोकतन्त्र और सम्पूर्ण क्रांति के अनिवार्य और ऐतिहासिक सम्बन्धों को लेकर उनकी समझ स्पष्ट थी। यह समझ व्यावहारिक अधिक थी, सैद्धान्तिक कम। वे इस तंत्र की मानसिक बनावट को ज्यादा अच्छी तरह समझते थी। लोकतन्त्र के बिना सामाजिक न्याय संभव नहीं है। मगर हम जिस लोकतंत्र में हैं वह एक प्रकार का राज्यतंत्र है। फिर भी वह पुराने तंत्र की अपेक्षा अधिक गतिशील है। इस तंत्र के दोनों पक्षों पर उनकी सावधान दृष्टि थी। यही कारण है कि इस तंत्र की निरंकुशता के विरुद्ध जब संघर्ष प्रारम्भ हुआ तो वे उसकी अगली कतार में आ गये- नेता की तरह नहीं, कार्यकर्त्ता की तरह।
वे जनता की शक्ति में विश्वास करते थे। नेतृत्व के संबंध में वे अवश्य इतने आश्वस्त न थे। यही कारण है कि सम्पूर्ण क्रान्ति के संदर्भ में वे तमाम तथाकथित क्रांतिकारी शक्तियों की एकता को लेकर कभी आश्वस्त न हो सके थे। मगर अपनी इस भावना को उन्होंने रणनीति के ऊपर कभी नहीं थोपा। वे जानते थे कि इससे आंदोलन में बाधाएँ आएंगी और उसकी भावनात्मक शक्ति क्षीण होगी। जयप्रकाश के क्रांतिकारी व्यक्तित्व और कर्तव्य में उनकी आस्था लगभग अटल थी। ’परती-परिकथा‘ में विस्तार से प्रस्तुत कुबेर सिंह और जितेंद्र के संबंध में वामपंथी एकता को लेकर उनकी टकराहटों की चर्चा कई दृष्टियों से महत्व की हो जाती है। कांग्रेस के राजनीतिक प्रभुत्व को तोड़े बिना यह संभव न होता। पर क्या इस एकाधिकार को केवल अकेली पार्टी-शक्ति पराजित कर सकती है? वामपंथी शक्तियों की एकता के पीछे यही समझ कार्य करती दिखाई पड़ती है।
रेणु ने 1936 के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत की थी। उस समय कुछ कहानियाँ प्रकाशित भी हुई थीं, किंतु वे किशोर रेणु की शुरुआती कहानियाँ थीं। 1942 के आंदोलन में गिरफ़्तार होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने ‘बटबाबा’ नामक पहली महत्वपूर्ण कहानी लिखी। ‘बटबाबा’ ‘साप्ताहिक विश्वमित्र’ के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई।
उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफ़ाम’ पर आधारित फ़िल्म ‘तीसरी क़सम’ ने भी उन्हें काफ़ी प्रसिद्धि दिलवाई। इस फ़िल्म में राजकपूर और वहीदा रहमान ने मुख्य भूमिका में अभिनय किया था। ‘तीसरी क़सम’ को बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था और इसके निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र थे। रेणु को सबसे ज्यदा प्रसिद्धि हिंदी में अपने उपन्यास ‘मैला आँचल’ से मिली। इसके लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। नेपाल की सीमा से सटे उत्तर-पूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहां के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है।
स्वयं रेणु के अनुसार:
पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है; इसके एक ओर है नेपाल, दूसरी ओर पाकिस्तान (अब बंगलादेश) और पश्चिम बंगाल। विभिन्न सीमा-रेखाओं से इसकी बनावट मुकम्मल हो जाती है, जब हम दक्खिन सन्थाल परगना और पच्छिम में मिथिला की सीमा-रेखाएँ खींच देते हैं। मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को-पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर-इस उपन्यास-कथा का क्षेत्र बनाया है।
प्रथम संस्करण की भूमिका
रेणु के अनुसार इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। इसमें गरीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण, बाह्याडंबरों, अंधविश्वासों आदि का चित्रण है। शिल्प की दृष्टि से इसमें फिल्म की तरह घटनाएं एक के बाद एक घटकर विलीन हो जाती हैं और दूसरी प्रारंभ हो जाती हैं। इसमें घटनाप्रधानता है किंतु कोई केन्द्रीय चरित्र या कथा नहीं है। इसमें नाटकीयता और किस्सागोई शैली का प्रयोग किया गया है। इसे हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों के प्रवर्तन का श्रेय भी प्राप्त है। कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की इस युगान्तकारी औपन्यासिक कृति में कथाशिल्प के साथ-साथ भाषाशिल्प और शैलीशिल्प का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहज-स्वाभाविक है, उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी।
कथा-साहित्य के अलावा रेणु ने संस्मरण, रेखाचित्र और रिपोर्ताज आदि विधाओं में भी लिखा। उनके कुछ संस्मरण भी काफ़ी मशहूर हुए। ‘ऋणजल धनजल’, ‘वन-तुलसी की गंध’, ‘श्रुत अश्रुत पूर्व’, ‘समय की शिला पर’, ‘आत्म परिचय’ उनके संस्मरण हैं। व्यक्ति सम्पूर्ण कहाँ होता है, केवल कम या ज्यादा सम्पूर्ण होता है, रेणु इतने ही सम्पूर्ण थे। वो जिस तरह सोचते थे, वही बोलते थे और वही लिखते भी थे। उनकी कहानियों में आम मनुष्य की यातनाएं कितनी परतें फाड़कर मुस्कुराहटों में बिखर जातीं हैं ये जान पाना बहुत मुश्किल है जब तक आप रेणु को आत्मसात नहीं कर लेते।
संदर्भ
1. फणीश्वरनाथ रेणु (विनिबंध, 1987, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली)
2. फणीश्वर नाथ रेणु (अंतर्कथा) – सुरेंद्र चौधरी
3. प्रस्तावना, मैला आंचल प्रथम संस्करण