कांग्रेस की सियासत और वसूल जब गांधीवाद पर आधारित है तो ये कांग्रेसी कैसे गांधी विरोधी संगठनों के हमराही बन जाते है? आज लोगों के जेहन में ये प्रश्न कौंध रहा है।
इस पर कांग्रेस आला कमान/संगठन के साथ-साथ कांग्रेसी शुभचिंतकों को भी विचार करना होगा। गैर-कांग्रेसी, खासकर साम्प्रदायिक और फासिस्ट ताकतें नेहरू ही नहींं बल्कि गांधी और यहां तक कि आजादी की विरासत पर भी लगातार प्रश्निचिह्न लगाती रहती हैंं और हर दुर्दशा के लिए इन्हें ही कसूरवार ठहराती हैंं। खुद के स्थापित प्रतिमानों की हिफाज़त न कर पाने वाली कांग्रेस को संगठन से लेकर सियासी दांव पेंच पर पुनर्विचार करना होगा।
कांग्रेस के पास गांधी-नेहरू के साथ साथ आजादी के आंदोलन में स्थापित मूल्यों की विरासत है पर उन वसूलों पर प्रशिक्षित राजनेताओं और कार्यकर्ताओं का सर्वथा अभाव है। काँग्रेस के फ्रंटल आर्गेनाइजेशन इतिहास के विषयवस्तु बनकर रह गए हैंं यद्यपि वहां पद प्राप्ति की होड़ तो है लेकिन प्रतिबद्धता का सर्वथा अभाव है। कभी रचनात्मक कार्यक्रमो की भरमार थी पर आज कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की भी कोई व्यवस्था नहींं है।
राहुल गांधी क्रमशः नेहरू की ओर लौटते हुए नज़र आ रहे हैंं। नेहरू जैसी ही संयम भाषा और समस्याओं पर वैज्ञानिक दृष्टि उनमें परिलक्षित अवश्य हो रही है पर जब तक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता, प्रशिक्षित नेता और विचारवान नेतृत्व नही रहेगा, सिंधिया और पायलट जैसे लोग ही पैदा होंगे जिन्हें पार्टी में बनाये रखने में ही पूरी ऊर्जा खर्च करनी पड़ेगी।
कांग्रेस का इतिहास रहा है आद्योपांत कलेवर परिवर्तन का। जब जब कलेवर परिवर्तित हुआ है कांग्रेस में उभार और निखार आया है। बदलिए, सड़े गले अंगों का ऑपरेशन कीजिये, विचारवान और प्रशिक्षित नेतृत्व पैदा कीजिये, गांधी नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद और सुभाष की कार्यशैली अपनाइए, शास्त्री का विज़न अपनाइए, इंदिरा के तेवर संजोइये, राजीव के वैज्ञानिक चिंतन पर गौर कीजिए, अपनी उपलब्धियों को गांव-गांव ले जाइए, जनता के सवालों पर आक्रामक होइए और भारत की उस परिकल्पना को बर्बाद मत होने दीजिये जिसे नेहरू ने सबको साथ लेकर फलीभूत किया था।
फिर देखिए कि विकल्प आप ही बनेंगे वरना पूरी ऊर्जा दलबदलू और अवसरवादी लोगोंं को रोकने में ही लगती रहेगी और इतिहास कांग्रेस को अपने पन्नों में समेट लेगा।
बेहतरीन प्रस्तुति