कमलेश्वर जी के निधन की ख़बर मुझे तीन घंटे बाद मिली…और आश्चर्य मानिए कि जिस सकते में मैं था उससे ज्यादा अफ़सोस था कि तीन घंटे ग़ुज़र गए राजा निरबंसिया को गए हुए और हमें भनक तक नहीं। मैंने तुरंत उनके घर पर फ़ोन लगाया…फ़ोन उनके नाती ने उठाया यह तो मुझे बाद में पता चला, लेकिन उनका स्वर बुरी ख़बर की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त था।
कैसा शहर है यह…। मैंने तमाम लोगों को तुरंत मोबाइल से संदेश भेजा, अख़बारों में फ़ोन किया…किसी को पता नहीं था कि 1963 में जिस नई कहानी की प्रवर्तक तिकड़ी के एक अदद लेखक कैलाश सक्सेना ने ‘दिल्ली में एक मौत’ नामक कहानी किसी सेठ दीवानचंद की मौत पर लिखी थी, वह 44 साल बाद उस कमलेश्वर पर लागू हो जाएगी।
अब कई बातें कही जाएंगी, उन्हें तरह-तरह से याद किया जाएगा। सिर्फ एक संस्मरण है दो साल पहले का…जो 75 साल की अवस्था में जी रहे, कैंसर से लड़ रहे एक जीवन को व्याख्यायित करने के लिए काफ़ी है। मौर्या शेरेटन होटल के कॉनफ्रेंस हॉल में सीएनएन नाम के एक अख़बार का लोकार्पण था और कमलेश्वर मुख्य अतिथि थे। सारी औपचारिकताएं पूरी हो जाने के बाद अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में उन्होंने मालिक को सबके सामने नंगा कर के रख दिया। बड़ी शिष्टता और विनम्रता से उन्होंने कहा कि अब तक संपादक का पद अख़बारों में लिखा जाता था और वह प्रच्छन्न ही होता था…बागडोर मालिक के हाथ में होती थी। बेहतर है कि इस अख़बार का मालिक, संपादक, मुद्रक और प्रकाशक एक ही है। कम से कम इससे कोई भ्रम संपादक को लेकर इस अख़बार के संदर्भ में पाठकों को नहीं रहेगा।
ऐसा था कमलेश्वर का साहस, प्रयोग और उनकी मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता…जिस अवस्था में हिंदी के नामवर लेखक देश भर में घूम-घूम कर अपना अमृत महोत्सव मनाते हैं उस अवस्था में कमलेश्वर आख़िर तक लेखकीय मूल्यों और पत्रकारीय स्वतंत्रता के लिए लिखते और लड़ते रहे। उनकी ज़बान और आवाज़ हिंदी में तब तक याद की जाती रहेगी जब तक शब्द बचे रहेंगे, उनके अर्थ बचे रहेंगे और बची रहेगी इंसानी आवाज़…आज़ादी और साहस की…
कमलेश्वर को हमारा शत्-शत् नमन…
28.01.2007
आज ही आपके चिट्ठे का पता लगा.अच्छा है..सशक्त लेखन है..