दहिने बाएं दहिने बाएं… थम!


व्यालोक 

व्यालोक पेशे से पत्रकार हैं। विचारधारा से दक्षिणपंथी। जेएनयू में करीब पंद्रह साल पहले वे एबीवीपी के नेता रहे जिन्‍होंने परिसर में अशोक सिंघल का यज्ञ करवाकर लोकप्रियता हासिल कर ली थी। कालांतर में परिषद से इनका मोहभंग हो गया। समय के साथ पत्रकारिता से भी इनका मोह जाता रहा। फिलहाल अपने गृहजिले दरभंगा में रहकर कुछ सामाजिक काम और बागवानी आदि करते हैं। डेढ़ साल पहले दक्षिणपंथी सरकार केंद्र में आने के बाद वे दोबारा लेखकीय रूप से सक्रिय हुए हैं, लेकिन जेएनयू से जुड़े हालिया विवाद पर इनका पक्ष मारकाटवादी संघियों से अलहदा है। ठंडे दिमाग से इन्‍होंने कुछ बातें लिख कर भेजी हैं। आप इनसे सहमत हों या नहीं, लेकिन इसे पढ़ा जाना चाहिए – मॉडरेटर  






अब, जबकि 12 दिन बीत चुके हैं, इधर हरियाणा में आरक्षण को लेकर जाट पूरे राज्य को फूंकने पर उतारू हैं, तो समझ में आता है कि अब जेएनयू में 9 फरवरी को हुए (या बीच में ही रोक दिए गए) कार्यक्रमको लेकर कुछ तार्किक और ठंडी बातें की जाएं। धूल बहुत उड़ चुकी है औऱ अब इसका केंद्र भी कहीं और बदल चुका है। तो, ठंडे दिमाग से कुछ ठंडी बातें की जाएं, ताकि हमें न आपके लैपटॉप के स्क्रीन को ब्लैंक दिखाना पड़े, न ही आपसे एकतरफा संवाद करने को विवश होना पड़े।

यदि आप हिंदूवादी कर्मफल (इसके राजनीतिक निहितार्थ न निकाले जाएं, कृपया) में यक़ीन करते हैं, तो ज़ाहिर तौर पर किसी भी घटना के अच्छे और बुरे दोनों ही तरह के परिणाम होते हैं। जेएनयू में 10-12 छात्र-छात्राओं की बेवकूफी (या सरकशी, देशद्रोह या अभिव्यक्ति की आज़ादी कहें?) ने जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर (और शायद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी, क्योंकि सैकड़ों की संख्या में अंतरराष्ट्रीय समर्थन भी मिले) बवाल खड़ा किया, और लोगों को साफ तौर पर खांचे में बंटने को मजबूर किया, वह भी शायद अभिशाप में छिपा वरदान’ (Blessing in disguise) ही है।

वरदान, इसलिए कि अब हमारे पास विकल्प है। वह विकल्प है, जो आज़ादी के समय से हम तलाश रहे थे, जो 1962, 1975 से लेकर कई बार हमारे पास आया था। वह विकल्प अच्छे और बुरे लेफ्ट का था। ठीक वैसा ही विकल्प जो अमेरिका ने या कहें तो पाकिस्तान ने पूरी दुनिया के सामने रखा था- गुड तालिबान और बैड तालिबान का।

फिलहाल, हरियाणा की रार की वजह से दिल्ली में पानी भी नहीं आ रहा, तो यह कहना भी मुफीद नहीं होगा कि यमुना में कई सारे नालों का गंदा पानी बह गया। हां, इन दस दिनों में जेएनयू के बहाने राष्ट्रद्रोह और राष्ट्रप्रेम पर जितनी भी चर्चा हुई है, उसके बहाने कम से कम पाले साफ हो गए हैं। रेखाएं खिंच गयी हैं और अगर अंग्रेजी में कहें तो, Battle lines have been drawn…

मेनस्ट्रीम मीडिया, सोशल मीडिया, मॉर्फ्ड वीडियो, फोटोशॉप्ट फोटोज़ आदि-इत्यादि के बहाने इस बार जो अतिरेकी बहस चली है, उसने इतना तो साफ कर ही दिया है कि भारत की मूल आत्मा को कोई नहीं मार सका है। यदि पिछले 10 दिन मात्र का हिसाब देखें, तो पक्ष-विपक्ष में इतने लेख, इतनी दलीलें, इतने आरोप-प्रत्यारोप नज़र आएंगे कि एकबारगी तो 1 लाख श्लोकों का महाभारत लिखने वाले वैशंपायन वेदव्यासभी घबरा जाएं। वैसे, नतीजा तो वही है, जो मैं पहले भी कह चुका हूं। मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना और वादे-वादे जायते तत्वबोधः वाला भारतीय हृदय और मानस इस बात को बड़ी आसानी से पचा भी लेगा और अपने अगले पड़ाव (फिलहाल हरियाणा की हिंसा) की ओर बढ़ जाएगा।

विकल्प हमारा यही तो है कि हम अच्छे और बुरे लेफ्ट में से किसी एक को चुन लें। (यह चुनाव क्यों जरूरी है, और इसके अलावा भी एक चयन क्या करना है, वह आगे बताया जा रहा है) बुरा लेफ्ट कौन? तो, बुरा लेफ्ट वह, जो अपने निर्माण (1920 या 1925, दोनों ही को लेकर दो धड़े दावा करते हैं) के समय से ही अंतरराष्ट्रीय इशारों पर चलता रहा है, वह जो 1938-39 तक तो हिटलर को भी सपोर्ट करता है, क्योंकि उसने तब तक अंतरराष्ट्रीय आका सोवियत संघ पर हमला नहीं किया होता है, और जो अचानक ही 1942 में वर्गशत्रु घोषित हो जाता है, क्योंकि वह सोवियत पर हमला करता है। इसी वजह से भारत के कम्युनिस्टों (ध्यान दीजिएगा कि दूसरे इंटरनेशनल के समय बनी पार्टी का नाम भी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया रखा गया है) के लिए अंग्रेजों भारत छोड़ो का आंदोलन भी झूठा हो जाता है, इसके खिलाफ काम करना उनकी मजबूरी बन जाती है।

बुरा लेफ्ट वह, जो 1947 में मिली आज़ादी को झूठी आज़ादी बताता है, जो 1962 में चीन के हमले के समय चेयरमैन माओ का सपोर्ट करता है, 1975 की इमर्जेंसी में Indira is India, India is Indira के साथ खड़ा हो जाता है, जो आज देश के 17 राज्यों में खूनी संघर्ष को अंजाम दे रहा है, जो गरीब-गुरबों की लड़ाई के नाम पर हथियारों की तस्करी और खूंरेजी कर रहा है।

अच्छा लेफ्ट कौन? अच्छा लेफ्ट वह, जो लगातार संशोधन करता चलता है, भारतीय दर्शन और मीमांसा की तरह। वह मुस्लिम लीग को सपोर्ट कर फिर गांधी के साथ (माने कांग्रेस) भी आ जाता है, जो 1950 तक सशस्त्र क्रांति (तेलंगाना, बंगाल आदि) को समर्थन देकर फिर संसदीय प्रणाली में न केवल विश्वास जमाता है, बल्कि अपनी पहली सरकार भी बना लेता है। (यह अलग बात है कि अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाले नेहरू पहली गैर-कांग्रेसी राष्ट्रीय सरकार को पचा नहीं पाते और बर्खास्त कर देते हैं)। अच्छा लेफ्ट वह है, जो बार-बार ऐतिहासिक ग़लतियां करता तो है, लेकिन उसे तुरंत या कुछ समय बाद पहचान कर माफी भी मांग लेता है। वह अपने दर्जनों विभाजन कराने के बाद भी मजदूरो-किसानों की बात करता है, वह अपने सबसे तगड़े प्रत्याशी को देश की सर्वोच्च कुर्सी तक पहुंचने से भी रोक देता है। वह सीपीआई-माले को कई वर्षों तक भूमिगत रहने के लिए भी बाध्य करता है, फिर उसे संसदीय प्रणाली अपनाने को भी, वह नक्सलबाड़ी को भी कुचलता है और फिर माओवादियों को द्रोही बताकर उनका संधान भी करता है।

यह आपको उलटबांसी लग रही होगी, लेकिन यह उलटबांसी नहीं, भारतीय चरित्र है, जो नेहरू जैसे खांटी यूरोपीय मानस वाले व्यक्ति (खुद उनके कहे मुताबिक) को भी मिश्रित अर्थव्यवस्था से लेकर दर्शन तक अपनाने को भी अपनाने को बाध्य करता है। यह दरअसल भारतीय मानस है, जो अतियोंसे हमेशा बचता है…वह मध्यमार्गी ही रहता है। समझिए, तो धागे भर का फर्क है, तनिक सा हैंचो तो बेवकूफ….तनिक सा हैंचो तो…….।

इसी के साथ एक और विकल्प आया है… अच्छे राइट के चुनाव का। हालांकि, अभी तक इस देश में जो धारणा बनी हुई है, उसके मुताबिक राइट या दक्षिण तो राइट ही रहा है, लुंपेन ही रहा है, उसमें अच्छे-बुरे का सवाल ही नहीं आता है। वह तो हमेशा ही अतिवाद की खुराक पर जीता रहा है।

हालांकि, इन 10 दिनों ने अच्छे राइट की पहचान भी करा दी है। अच्छा राइट वह, जो 1947 के 15 अगस्त और 1950 की 26 जनवरी को तिरंगा फहराता है, 2002 से लगातार अपने मुख्यालय पर जो तिरंगे को सलामी देता है, जो आज़ादी की जंग में कांग्रेस के साथ रहता है, जिसके यहां छुआछूत न देखकर खुद मोहनदास गांधी बड़ाई करते हैं, जिस संगठन के अनुशासन के देश के पहले भारतीय अंग्रेज प्रधानमंत्री नेहरू भी कायल थे, जो 1975 में आपातकाल के खिलाफ खड़ा हो जाता है, जो 1996 से लेकर 2004 तक कई प्रयासों में पहली बार पूरे टर्म तक गैर-कांग्रेसी सरकार चलाता है, जो 25 दलों के घोडों को एक साथ नाथ सकता है, जो कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बना सकता है, जो पर्याप्त बहुमत के बावजूद सभी विवादास्पद मसलों को बैक-बर्नर पर रख सकता है, जिसके चेहरे दीनदयाल उपाध्याय से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख से लेकर यज्ञदत्त शर्मा तक हों, जिनके घोर विरोधी भी जिनके व्यक्तित्व और अध्ययन के कायल हों।

बुरा राइट वह, जो तिरंगे की जगह भगवा ध्वज चाहे, जो इस सर्वसमावेशी, सर्वजनीन देश को, (जिसे रवींद्रनाथ ठाकुर ने सभ्यताओं का महासमुद्र कहा था) हिंदू राष्ट्र मात्र बनाना चाहे, जो Affirmative Action को Appeasement कहे, जो दस लोगों के आधार पर पूरे समुदाय, पूरे विश्वविद्यालय की प्रोफाइलिंग करे, जो अदालत में लोगों को मारे, जो तर्कों की जगह मार-कुटाई से काम चलाए।

तो, अब वापस, लेख के पहले अनुच्छेद की तरफ। हमारे पास यह मौका बहुत मौके से आया है। सीमाएं इतनी साफ कभी नहीं खिंची थीं। जैसा कि भारत की आत्मा को जानने वाला हरेक आदमी जानता है, हम अति की तरफ कभी नहीं जाएंगे, चाहें वह बायां कदम हो या दायां।

मौका अच्छा है, साथियों गुड लेफ्ट के साथ गुड राइट के सामंजस्य बिठाने का। आखिर, कांग्रेस ने 60 वर्ष शासन किए हैं, उससे कम-से-कम इतना सीखना तो बनता ही है।
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4 Comments on “दहिने बाएं दहिने बाएं… थम!”

  1. आपकी बात सत्य भी है और स्पष्ट भी। इतनी साफ़ साफ़ विभाजन रेखा कभी नहीं खींची गयी। दोनों धड़े अपने अपने विचारधारा और समर्थकों के साथ आमने सामने हैं। रही बात मध्यम मार्ग की, तो वो इस मिट्टी की देन है। हमारे डीएनए में है। तो कुछ समय बाद उग्र भीड़ थोड़ी नरम हो जायेगी और नरम भीड़ थोड़ा सा समर्थन उग्र भीड़ का भी कर देगी। उसके बाद सिर्फ गुनगुना पानी रह जायेगा। जो हमेशा की तरह बहता रहेगा।

  2. आपकी बात सत्य भी है और स्पष्ट भी। इतनी साफ़ साफ़ विभाजन रेखा कभी नहीं खींची गयी। दोनों धड़े अपने अपने विचारधारा और समर्थकों के साथ आमने सामने हैं। रही बात मध्यम मार्ग की, तो वो इस मिट्टी की देन है। हमारे डीएनए में है। तो कुछ समय बाद उग्र भीड़ थोड़ी नरम हो जायेगी और नरम भीड़ थोड़ा सा समर्थन उग्र भीड़ का भी कर देगी। उसके बाद सिर्फ गुनगुना पानी रह जायेगा। जो हमेशा की तरह बहता रहेगा।

  3. ये दीगर बयानी तो अच्छी है, देखना इसे भी कोई सियासत ना समझे !!

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