अभिषेक श्रीवास्तव
ठीक महीने भर पहले सैकड़ों लोगों के एक भरोसे की मौत हुई थी। कल रात रामभरोसे की भी मौत हो गई। इस बीच मथुरा में जाने कितनी मौतें हुई होंगी और आगे जाने कितनी और होंगी, लेकिन जवाहरबाग की कहानी अब हमारे ज़ेहन का हिस्सा नहीं है। ये दौर ही ऐसा है जब बड़ी से बड़ी कहानी की उम्र हफ्ते भर से ज्यादा नहीं होती, लेकिन मथुरा वाले जानते हैं कि जवाहरबाग में 2 जून, 2016 की शाम जो घटा था, उसकी उम्र काफी लंबी है। अरसा हुआ यह देखे हुए कि कोई अख़बार पूरे एक महीने तक किसी घटना को विशेष कवरेज देता रहे और उसे ख़बरों की कमी न पड़े। मथुरा का जवाहरबाग अगर आज भी ”ऑपरेशन जवाहरबाग” के नाम से अमर उजाला के दूसरे पन्ने पर लगातार जगह पा रहा है, तो यह बात नज़रअंदाज़ करने योग्य कतई नहीं है।
मैंने 13 जून को ‘जनपथ’ पर जवाहरबाग की कहानी विस्तार से लिखने का फैसला लिया और इस संबंध में एक पोस्ट डाली थी- ”जल्द आ रहा है ऑपरेशन जवाहरबाग”। उस पोस्ट पर किसी ने चार दिन पहले व्यंग्यात्मक टिप्पणी की- ”कुछ ज्यादा जल्दी नहीं हो गया क्या”। वाकई, जिस कहानी को तभी कह दिया जाना चाहिए था, वह अब जाकर धीरे-धीरे खुल रही है। दिलचस्प यह है कि दिल्ली में बैठे मोदियाबिंद से ग्रस्त पत्रकारों की आंख अब तक नहीं खुली है। हां, इधर दो दिनों के दौरान उनकी पलक एकबारगी बेशक झपकी जब वीरेश यादव के पुलिस में दिए कथित बयान की ख़बर आई जिसमें उसने बताया कि आरएसएस का कोई प्रचारक बाग में लोगों को प्रशिक्षण देने आता था। उसके बाद तुरंत योगी आदित्यनाथ का खंडन भी आ गया और कहानी को जैसा टर्न लेना था- समाजवादी पार्टी बनाम भारतीय जनता पार्टी- वैसा उसने महीने भर में पहली बार ले भी लिया। अब दिल्ली के प्रगतिशील पत्रकारों की जमात को लगने लगा है कि समाजवादी पार्टी को इस एक आरएसएस प्रचारक के सहारे बचाया जा सकता है। आज का इंडियन एक्सप्रेस देखिए, बिजनेस स्टैंडर्ड देखिए, दिल्ली के बाकी अखबार देखिए… महीने भर तक भांग खाकर सोये हुए लोग मामले में आरएसएस का नाम आते ही जाग गए हैं।
मैंने कोशिश की थी। मथुरा से लौटने के बाद वहां देखे-सुने का ब्योरा देने के लिए मैंने कुछ कहानियां लिखीं। पहली कहानी, जो बेहद अराजनीतिक लेकिन मानवीय थी, वह कैच ने छापी। दूसरी अहम कहानी, जो रामवृक्ष यादव के मुकदमों और उनके वकील की दुश्वारियों पर थी, मैंने दम साधकर अंग्रेज़ी में लिखी और बड़ी उम्मीद से ‘दि वायर’ के सिद्धार्थ वरदराजन को सहमति मिलने के बाद भेजी। उनका जो जवाब आया, उसे पढ़कर मैं समझ नहीं सका कि इस पर क्या प्रतिक्रिया दी जाए- उनका कहना था कि कहानी ‘जटिल और अस्पष्ट’ है तथा ‘वे नहीं जानते कि अंत में आखिर किस पर विश्वास किया जाए और क्या सच है।’ क्या ख़बर लिखना आस्था का मामला है? क्या हर ख़बर लिखने के पहले आप यह जांच लेते हैं कि सच क्या है? एक पत्रकार के लिए उसके देखे और सुने के अलावा क्या तीसरा कोई भी पक्ष सच होना चाहिए? बहरहाल, मामले में आरएसएस का नाम आने के बाद शायद अब वे जान गए होंगे कि किस पर विश्वास किया जाए। वहां से कहानी लौट आने के बाद मैंने उसे कारवां पत्रिका के हरतोश सिंह बल को भी उसे भेजा था। उनका जवाब आना तो दूर, मेल की पावती तक नहीं आई।
दरअसल, दिल्ली एक खास किस्म की दिक्कत से ग्रस्त है। यहां के लोग उन गिरोहों की सुविधा के अनुसार सच को मानते हैं जहां से वे संचालित होते हैं। मैंने एक कोशिश यह भी की थी कि मथुरा की कहानी को सामने लाने के लिए पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक दल वहां भेजा जा सके। यह भी नाकाम रही। अधिकतर लोगों में इस बिंदु पर प्रस्ताव से असहमति थी कि इससे भाजपा और संघ को लाभ होगा। मेरे निजी अनुभव में ऐसा पहली बार हुआ कि मानवाधिकारों की दुहाई देने वाले लोगों ने मानवाधिकारों के इतने जघन्य उल्लंघन पर राजनीतिक लाभ और हानि का चश्मा लगा लिया।
ऐसे में मैंने इंतज़ार करने का फैसला लिया। और इस बीच जो कुछ मेरे पास प्रथम दृष्टया उपलब्ध था, सीमा आज़ाद की पत्रिका ‘दस्तक’ को भेज दिया। वहां शायद छप भी गया होगा। मैं जानता था कि जवाहरबाग की आग में इंसानी त्रासदी की सैकड़ों कहानियां दफ्न हैं। यहां गड़े मुर्दों को उखाड़ने की ज़रूरत ही नहीं थी क्योंकि सड़कों, अस्पतालों और जेलों में जीवित लाशें मौजूद थीं। बात सिर्फ उन्हें देख लेने भर की थी। स्थानीय पत्रकारों ने लगातार अपनी निगाह बनाए रखी और पन्ने रंगते रहे। 2 जून को हुए ऑपरेशन की सच्चाइयां एक-एक कर के सामने आती रहीं।
इस बीच मेरे पास उस शख्स का फोन लगातार आता रहा जिसे दिल्ली के मीडिया ने ब्लैकआउट किया हुआ है- रामवृक्ष यादव का वकील तरणी कुमार गौतम। वह अकेला शख्स जो अब तक पीडि़तों के साथ डटा हुआ है। गौतम 28 जून को दिल्ली आए थे। उनका फोन भी आया लेकिन मैं मिल न सका। कल भी फोन आया था। एक नई कहानी सुनने को मिली। अब तो पीडि़तों के फोन खुद ही आने लगे हैं। किसी की औरत गायब है, किसी का पिता, किसी का बेटा और किसी की मां। एक महीना हो गया आज, लेकिन सैकड़ों परिवार अब भी बिछड़े हुए हैं। मामले की जांच करने के लिए गठित न्यायिक आयोग ने जवाहरबाग कालोनी के 43 लोगों से हलफ़नामे ले लिए हैं। जांच जारी है।
इस सब के बीच कल रात मथुरा जिला अस्पताल में 70 साल के रामभरोसे की मौत हो गई। एक आदमी का पता अब तक नहीं लग सका है जिसके जबड़े में गोली मारी गई थी और जिसे करीब 20 दिन पहले दिल्ली/लखनऊ रेफर किया गया था। किसी को नहीं पता वह मर गया कि जी रहा है। मैं जिन लोगों से मिला था, उनमें कई अब भी जेलों में हैं। औरतें छोड़ दी गई हैं। बच्चे भी। सब अलग-अलग भटक रहे हैं अपने परिजन की तलाश में। गौतम इन सब के मामले संकलित कर के हाइकोर्ट में एक याचिका डालने की तैयारी कर रहे हैं।
जवाहरबाग, मथुरा की अनसुनी कहानियां सुनाने का सही वक्त शायद आ चुका है। अगली किस्त अगले दिन। बस थोड़ा सा इंतज़ार।
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