(पिछले डेढ़ महीने से आवाजाही पर जो बहस चल रही थी, उसमें वाम दायरे के बाहर से पहला संगठित और सक्रिय हस्तक्षेप आया है। मंगलेश डबराल जिस संस्थान के मंच पर बोलने गए थे, उस इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन के निदेशक और हेडगेवार के जीवनीकार प्रो. राकेश सिन्हा ने बड़े सिलसिलेवार ढंग से अपने ब्लॉग और फेसबुक पर एक आलेख प्रकाशित किया है। जनपथ पर वहां से साभार लेकर चिपकाया जा रहा है। यह लेख बहुत महत्वपूर्ण है और निश्चित तौर पर एक गंभीर बहस की मांग करता है। कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर आवाजाही से संबंधित जिन ऐतिहासिक संदर्भों को प्रो. राकेश सिन्हा ने उठाया है, वे बेहद मौजूं हैं। अब तक जितने भी आलेख विभिन्न वेब पत्रिकाओं और जनसत्ता में छपे हैं, उनमें कहीं भी इस विषय को उसकी ऐतिहासिकता में नहीं देखा गया, न ही किसी ने ऐसी कोशिश की। पूरी बहस को व्यक्तिगत बना कर हिसाब चुकता करने की जो कोशिशें जनसत्ता में हुई हैं, यह आलेख उसी प्रक्रिया की परिणति है। आप लाख गाली देते रहें संघ को, लेकिन वामपंथी संकीर्णता के बारे में इतने सघन विश्लेषण और विवेकपूर्ण आलोचना की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। एक मायने में यह आलेख हिंदी जगत के निंदा प्रेमी वामपंथियों को आईना दिखा रहा है। क्या किसी के पास प्रो. सिन्हा की चिंताओं-आलोचनाओं का जवाब है? राकेश सिन्हा की आरंभिक टिप्पणी के साथ पूरा लेख अविकल नीचे हम दे रहे हैं- मॉडरेटर)
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प्रो. राकेश सिन्हा |
(जनसत्ता ने अपने चार रविवारीय अंकों में वैचारिक एवं बौद्धिक संवाद पर बहस चलाई. कई न्यूनताओं के बावजूद यह एक सराहनीय एवं अभिनंदनीय सम्पादकीय प्रयोजन है. इसने संवाद के प्रति सदिच्छा एवं काल्पनिक एवं कालवाह्य प्रवृत्तियों को सार्वजनिक बहस में लाने का काम किया है. बहस का कारण मंगलेश डबराल का भारत नीति प्रतिष्ठान में आना निमित्त मात्र है. बहस थानवी जी के हस्तक्षेप आलेख “आवाजाही के हक़ में‘ (जनसत्ता, 29 अप्रैल) से शुरू हुई लेकिन तीन वेब पत्रिकाओं (मोहल्ला, जनपथऔर जानकीपुल) और फेसबुक पर इस पर इस लेख के छपने के दो हफ्ते पहले से चर्चा हो रही थी जिससे मेरे जैसे अनेक लोग अनजान थे. थानवी जी ने वेब दुनिया की बहस को व्यर्थ नहीं जाने दिया और उसकी पृष्ठभूमि में हस्तक्षेप किया. इसी प्रसंग में उठे सवालों पर मैं अपनी बात रख रहा हूं)
बात भारत नीति प्रतिष्ठान की एक गोष्ठी (14 अप्रैल) से शुरू होती है. कवि-पत्रकार मंगलेश डबराल इसकी अध्यक्षता करने आये थे. उनकी स्वीकृति में कहीं भी अगर-मगर नहीं था. गोष्ठी का विषय “समांतर सिनेमा का सामाजिक प्रभाव” था. सुश्री पूजा खिल्लन ने अपना परचा पढ़ा. डबराल जी ने अपना विषय बखूबी रखा और जाते-जाते उन्होंने प्रतिष्ठान एवं ‘द पब्लिक एजेंडा‘ (जिसके वे संपादक हैं) के बीच बौद्धिक सम्बन्ध का प्रस्ताव देते गए. लगभग तीन घंटे वे प्रतिष्ठान में रहे और इस दौरान वे इसके कार्यों को समझाने बूझने का प्रयास करते रहे. जब उन्होंने प्रतिष्ठान में अपनी उपस्थिति को ‘चूक‘ (देखें जनसत्ता ‘वह एक चूक थी‘, 13 मई 2012) बताया तो मैं अचम्भित रह गया. मुझको अचरज इस बात का नहीं हुआ कि वे भी अपराध बोध का शिकार हो गए बल्कि यह जानकर हुआ कि वामपंथ से जुडी बौद्धिक धारा अभी भी साठ व सत्तर के दशक में ही ठहरी हुई है. इस ठहराव को दूर करने के सभी प्रयासों पर रेड ब्रिगेड का हल्ला बोल शुरू हो जाता है)
1969 की एक घटना इस सम्बन्ध में अत्यंत ही प्रासंगिक है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के एक बड़े नेता एसएस मिराजकर ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के चेयरमेन एसएस डांगे को उनके सत्तरवें जन्मदिन पर शुभकमाना सन्देश भेजा जिसमें उन्हें ‘क्रांतिकारी योगदान‘ के लिए दीर्घायु होने की कामना की. बस, वामपंथी राजनीति में तलवारबाजी शुरू हो गयी. पार्टी ने मिराजकर को इस सामाजिक शिष्टाचार के लिए ‘कारण बताओ नोटिस‘ भेज दिया. मिराजकर ने जो जवाब दिया वह डबरालजी के स्पष्टीकरण से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। मिराजकर ने लिखा, “मैंने इस पर गंभीरता से सोचा और अब भी नहीं समझ पाया कि मुझे क्या स्पष्टीकरण देना चाहिए. बात यह है कि मैंने शुभकामना सन्देश बिना ज्यादा सोचे जल्दीबाजी में भेज दिया. मुझे सन्देश को लिखते समय अधिक सावधान रहना चाहिए था. निस्संदेह मैंने जरूरत से ज्यादा अपना कदम आगे बढ़ा दिया. मैं पार्टी से अनुरोध करता हूं कि इस राजनीतिक चूक के लिए जो भी उचित हो वह कार्रवाई करे”. पार्टी के महासचिव पी सुंदरय्या आगबबूला हो गए और उन्होंने कुछ इस अंदाज़ में उन्हें पुनः पत्र भेजा, “आपकी सफाई आपकी चूक से ज्यादा खतरनाक है. आपने राजनीतिक चूक बताकर विषय की गंभीरता को समझने का प्रयास नहीं किया है”. एक साल बाद उन्हें पार्टी से रास्ता दिखा दिया गया. तब और अब में दुनिया में अनेक बदलाव आये हैं. बंद दिमाग और बंद समाज नापसंद किया जा रहा है. तब स्टालिन और ट्रोट्स्की के संघर्ष को वामपंथ आइना मानता था. क्या वही स्थिति भारत के वामपंथ की आज भी है?
मै हाल में प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता भोगेन्द्र झा का तीनमूर्ति पुस्तकालय में ‘ओरल हिस्ट्री‘ के अंतर्गत लिए गए साक्षात्कार को पढ़ रहा था. उसमें झा ने उस वातावरण का जीवंत चित्रण एक प्रसंग सुनाकर किया है. उन्होंने पार्टी में स्टालिन के एक निर्णय (तेहरान से लाल सेना हटाने) का विरोध किया। तब नेतृत्व ने उनसे कहा- “क्या बोल रहे हो? कम्युनिस्ट पार्टी या स्टालिन के द्वारा गलती?” झा ने प्रतिप्रश्न किया कि “क्या यह संभव नहीं कि स्टालिन भी गलती कर सकता है?” इस पर नेतृत्व ने जो जवाब दिया वह अत्यंत मजेदार है: “क्या यह संभव नहीं है कि तुम लडके नहीं लड़की हो?”
साठ व सत्तर के दशक की वैचारिक कट्टरता एवं संकीर्णता तीन बातों के द्वारा बौद्धिकता को नियंत्रित करने का काम करती रही: वैचारिक प्रेरणा जो साहित्यकारों और समाजशास्त्रियों को वैचारिक तरीके से बौद्धिक कार्य करने के लिए उद्वेलित करती रही. यह कुछ हद तक संकीर्णता से मुक्त थी. अन्य दो बातें ‘दबाव‘ व ‘डर‘ था जो वैचारिक एवं स्वतंत्रता का आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य करते रहे। आज प्रेरणा लुप्त हो गई और डर एवं दबाव का प्रयोग हो रहा है. साहित्य क़ी व्यापक आधारभूमि कोई विचारधारा तो हो सकती है परन्तु उसे लक्ष्मण रेखा और मिराजकर फेनोमिना के तहत मापना उसकी स्वायत्तता और उद्भव को रोकने जैसा होगा. यही कारण है कि ‘प्रगतिशील‘ लेखक संघ पार्टी लेखक संघ में तब्दील होकर रह गया है. ‘रेड ब्रिगेड‘ स्वतंत्रता, वैयक्तिकता और सामाजिकता सबको बांधकर रखना चाहता है. यही कारण है कि चंचल चौहान स्वयं प्रगतिशील लेखक संघ की विरासत और आज की स्थिति के बीच की खाई को महसूस कर सकते हैं. थानवी जी के लेख में उन्हें जिस अन्तरराष्ट्रीय पूंजी का लेखक संघ को बदनाम करने का षडयंत्र नजर आया, वह सत्तर के दशक की मानसिकता का द्योतक है. यदि हम इस अन्तरराष्ट्रीय पूंजी के खतरों और बाजारवादी ताकतों के षडयंत्र को समझ जायें तो हमें संवाद करी आवश्यकता महसूस होगी. परम्परागत शत्रुता अब लेखागार का विषय बन गई है. असली खतरा तो उसी बाजार की ताकतों से है, लेकिन वामपंथ को तो आरएसएस से लड़ना है। यदि कल संघ मार्क्स को पढने लगे तो ये मार्क्स को भी प्रतिक्रियावादी घोषित कर देंगे.
आप जान लीजिये जब समाजशात्री और लेखकों का संघ पार्टी के पूर्णकालिकों के हाथों में चला जाता है तब उसमें नारेबाजों का ही महत्व बढ़ता है. फिर निराला, निर्मल, नामवर घर के भीतर के शत्रु समझ लिए जाते हैं. देखिये, हाल में नामवर सिंह के प्रति किस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया गया है! रामविलास शर्मा को अंत में ‘संघी‘ घोषित कर दिया गया. पूछिए इन नारेबाजों से वामपंथ को उन्होंने किस अंतरराष्ट्रीय ताकत से मिलकर क्षति पहुंचाने का काम किया था?
मुझे आश्चर्य डबरालजी के माफीनामे से इसीलिए हुआ कि वे मिराजकर की तरह पार्टी कार्यकर्ता नहीं हैं. मैंने उन्हें बुलाया था. वे स्वयं नहीं आये थे. उन्होंने बेहिचक अपनी बात रखी थी. मैं वामपंथ के बीच के झगड़े में पड़ना मुनासिब नहीं समझता हूं, पर बौद्धिक जगत से जुड़ा विषय है अतः इसे नकारा भी नहीं जा सकता है. वास्तव में उदय प्रकाशजी के साथ जो हुआ वह वैचारिक अनैतिकता की मिसाल है. वे अपने भाई की मृत्यु के बाद उनके लिए आयोजित एक सामाजिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने गए थे और वहां योगी आदित्यनाथ के साथ मंच साझा करने के कारण वे ‘काफ़िर‘ घोषित कर दिए गए! इसमें डबरालजी भी शामिल थे। यही असली चूक थी जिसे सही साबित करने के लिए उन्होंने प्रतिष्ठान में अपनी सहर्ष व सहज उपस्थिति को चूक बता दिया.
जनसत्ता के विमर्श में जिस प्रकार से व्यक्तिगत तौर पर भाषा एवं भावनाओ का प्रयोग किया गया उसने विमर्श के वास्तविक लक्ष्य को पीछे छोड़ देने का काम किया है. एक दूसरे के विचारो को समझने या आदान-प्रदान करने की जगह कीचड़ उछालने और दृष्टिकोणों में बहस खो गई. यह वामपंथ जगत में व्याप्त परस्पर अविश्वास, असहिष्णुता के साथ घोर व्यक्तिवाद का प्रमाण है. संघ विरोध के नाम पर कब तक छद्म एकता का प्रदर्शन होता रहेगा? आरएसएस के नाम पर वैचारिक बहस को कितने दिनों तक आप रोक सकते हैं? संघ एक ठोस वैचारिक आधार पर खड़ा है. देश में तमाम जनतांत्रिक परिवर्तनों का सारथी रहा है. सामाजिक-आर्थिक विषयो पर इसका progressive unfoldment जिन्हें नजर नहीं आता है उन पर सिर्फ हैरानी ही व्यक्त की जा सकती है. अंतरराष्ट्रीय पूंजी को यदि किसी ताकत से आशंका और भय दोनों है तो वह आरएसएस ही है. इसलिए अमेरिका के निशाने पर वामपंथ से कहीं अधिक संघ है.
मैं दिसम्बर में कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर गया और एक वरिष्ठ नेता से खुलकर इस प्रश्न पर बातचीत की. उनसे मैंने एक सवाल किया: ‘भाजपा में मुस्लिम इक्का-दुक्का हैं यह बात तो समझ में आती है पर कम्युनिस्ट पार्टियां जिनका इतिहास मुस्लिम लीग के साथ आजादी के पहले सहयोग का रहा है और जो आजादी के बाद उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हितों की बात सबसे ज्यादा करती आई हैं, क्यों नहीं वे 1-2 फीसदी भी मुसलमानों को आकर्षित कर पाने में सक्षम हो पाई हैं?’ मुसलमान उनसे क्यों नहीं जुड़ते हैं? अतः वास्तविक प्रश्न उनके बीच सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण को समझने और समझाने का है जो वर्तमान सामाजिक दर्शन के होते संभव नहीं लगता है। इसी दर्शन ने न सिर्फ तजमुल हुसैन, एमएच बेग, एएए फैजी एवं आरिफ मोहम्मद खान जैसे प्रगतिशील चिंतकों को हाशिये पर रखा है.
विचारधाराओं के बीच विरोध होना स्वाभाविक है पर परंतु उनके बीच परस्पर सहयोग और संवाद को रोकना बौद्धिक कायरता और मानसिक विकलांगता मानी जाएगी. जेपी ने इसे अच्छी तरह समझा था, इसीलिये वे संवाद के जीवंत प्रतीक माने गये हैं. तीस के दशक में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के भीतर कम्युनिस्टों से मेलजोल करती रही और अति होने के बाद उनसे उसने नाता तोडा था. वे हर तरफ से गाली सुनते रहे पर संवाद की परंपरा को जारी रखा. 1953 की एक घटना है. नेहरू के आग्रह और आमंत्रण पर वे उनसे मिलने गए। फिर तो तूफान खड़ा हो गया. लोहिया जी और उनके शिष्य मधु लिमये ने सार्वजनिक रूप से उनकी कटु आलोचना की. जेपी ने 9 मार्च 1953 को जारी बयान में कहा कि यह दुखद साबित हुआ, तो नेहरू ने 18मार्च 1953 को बयान जारी कर जेपी के बारे में फैलाई जा रही गलतफहमियों पर टिप्पणी की, “किसी पर दोषारोपण की मैं कड़ी निंदा करता हूं.” जेपी ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बैतूल अधिवेशन में कहा कि “अगर पार्टी का मैं सदस्य नहीं तो पूरे देश भर घूमता, कांग्रेस एवं अन्य पार्टियों के नेताओ से मिलता, उन्हें अपने विचार का बनाने की कोशिश करता.” 1973 से 1978 तक वे संघ के करीब बने रहे. यह उनका अवसरवाद था या लोकतंत्र और परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक? वे मधु लिमये की तरह नारेबाज नहीं थे, अतः वैचारिक और राजनीतिक क्षेत्रों में आजीवन योगदान करते रहे.
संवाद उद्देश्यपूर्ण होता है. पहल करने वालों को अवश्य आलोचना का शिकार होना पड़ता है। थानवी जी ने मेरे सम्बन्ध में ब्लॉग से अनेक टिप्पणियां उद्धृत कीं जिसमें से एक में मुझे ‘विषैला विचारक‘ कहा गया. मैं विचलित नहीं हुआ. ऐसे तो मैं अपने पिताजी जो वामपंथी रहे और कामरेड इन्द्रदीप सिन्हा और योगेन्द्र शर्मा के साथी थे- उनसे भी लगातार वैचारिक बहस करता रहता था. इसे ही वैचारिक लोकतंत्र कहते हैं. मैंने कभी नहीं सोचा था कि वैचारिक कट्टरता विश्वविद्यालयों में इतनी अधिक है कि लोग एक दूसरे को शत्रु भाव से देखते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के एमए की परीक्षा में मैं प्रथम आया. मेरे शैक्षणिक जीवन में तीसरी बार मुझे स्वर्ण पदक मिला. मैंने एमए में “पॉलिटिकल आइडियाज़ ऑफ डॉ. केबी हेडगेवार” पर डिसर्टेशन लिखा था. तब कुछ फैकल्टी सदस्यों ने मुझे चेताया था कि यह मेरे कैरियर के लिए अच्छा नहीं होगा. पर सब कुछ लाभ-हानि और मान-सम्मान को सामने रखकर ही नहीं किया जाता है. मैं अपनी राह पर चला. एमफिल के साक्षात्कार में एक मार्क्सवादी प्रोफेसर ने मुझसे पूछा कि “What is difference between you and Nathuram Godse?” मैंने बड़े अस्वाभाविक तरीके से अपनी उत्तेजना को रोककर अकादमिक मर्यादा को बनाए रखा. पता नहीं मेरा जवाब कितना सटीक था, “Every supporter of Anandpur Sahib Resolution is not Beant Singh & Satwant Singh , so every adherent of Hindu Rashtra is not Nathuram Godse.” एक वरिष्ठ (महिला) प्राध्यापक ने उठकर मुझे गले लगा लिया। विज्ञान भवन में जब श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने मेरी डॉ. हेडगेवार की जीवनी का विमोचन किया था, तब अपने संक्षिप्त लेखकीय उद्बोधन में मैंने इस प्रसंग को सुनाया था. लेकिन इन चीजो ने मुझे काम से कम sectarian नहीं बनने दिया. इसीलिए समाजवादी एवं मार्क्सवादियों से मैं सतत विमर्श करता रहता हूं. बौद्धिक एवं व्यक्तिगत जीवन में ईमानदारी, प्रतिबद्धता और मूल्यों के प्रति निष्ठा यदि नहीं है तो चाहे आप जिस भी विचारधारा के हों और जिस भी अख़बार में स्तंभकार हों या पुस्तकों को छापने का कारखाना चलाते हों या जितने भी मंचों पर मुख्य अतिथि बनते हों, आप इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए जाएंगे. सच्चरित्रता और जन प्रतिबद्धता बौद्धिकता को स्थायी भाव प्रदान करते हैं. वामपंथ हो या दक्षिणपंथ, दोनों को इस आइने में अपनी-अपनी स्थिति का मूल्यांकन करना चाहिए.
भारत नीति प्रतिष्ठान आरम्भ से (सितम्बर 2008) ही स्वतंत्र विमर्श को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध रहा है. सभी प्रकार के विचारकों को आमंत्रित किया जाता रहा है. इनमें वामपंथ से जुड़े लोग भी हैं. आना या नहीं आना उनके हाथ में है. छल या झूठ का सहारा नहीं लिया गया. सत्य बताकर उन्हें बुलाया गया. छल और छद्म से बौद्धिक लड़ाई थोड़े दिनों तक लड़ी जा सकती है परंतु उसकी आयु सीमित होती है. प्रो. अमिताव कूंडू जेएनयू के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं, जब उन्हें मैंने प्रतिष्ठान के हस्तक्षेप पत्र में लिखने और श्री जगमोहन जी के साथ उसे IIC में लोकार्पण के लिए आमंत्रित किया तो मुझे आशंका थी कि उन्हें संघ के नाम पर रोकने का प्रयास होगा. इसलिए मैंने उनके चैम्बर में जाकर बता दिया कि मैं डॉ. हेडगेवार का जीवनी लेखक हूं तथा सच्चर कमिटी की रिपोर्ट पर मैंने अपने मोनोग्राफ “रोटी, रोजगार और राज्य का साम्प्रदायीकरण” में उसकी वैधानिकता और निष्कर्षों पर सवाल खड़ा किया है. हमारे बीच परस्पर विश्वास स्थापित हुआ. वे लोकार्पण करने आये और एक परचा भी लिखा. मेरा अनुमान ठीक निकला, नारेबाजों ने उन्हें रोकने की खूब परंतु असफल कोशिश की थी. रामशरण जोशी हों या कमर आगा या अभय कुमार दुबे या डॉ. रामजी सिंह, सब समझ बूझ कर आरंभिक भड़काऊ प्रतिरोधों के बावजूद कार्यक्रमों में शिरकत करते रहे. आशुतोष (आईबीएन 7) जब हाल में आये तो उन्होंने एक ट्वीट किया क़ि “मेरा होसबोलेजी (संघ के सहसरकार्यवाह) के साथ मंच साझा करना अनेक मित्रों को अच्छा नहीं लगा होगा.” मुझे लगता है कि सभी प्रतिरोधों और विपरीत वातावरण के बावजूद संवाद की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. अभी और भी पत्थर फेंके जाएंगे पर प्रक्रिया रूकने वाली नहीं है. उन लोगों को अपनी गलतफहमियां दूर कर लेनी चाहिए कि वामपंथ के लोगों के आने से प्रतिष्ठान या संघ को वैधानिकता मिलती है. हेडगेवार-गोलवलकर अधिष्ठान मजबूत धरातल पर है और वैधानिकता का मुहताज नहीं है. यह संवाद तो नए संदर्भों क़ी आवश्यकता है और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि परंपरागत खांचों में बंद होकर हम नव-साम्राज्यवादियों एवं विदेशी एवं देशी पूंजी की साठगांठ का मुकाबला नहीं कर पाएंगे. वे हमारी नादानी पर शायद मुस्कुरा रहे होंगे.
बौद्धिक जगत में तीन बातें होती हैं- perception, interpretation और facts. प्रायः धारणा को जो लोग प्रथम स्थान देकर विमर्श करते हैं वे असफल होते हैं. प्रतिष्ठान तथ्य को प्राथमिकता देता है, फिर व्याख्या का और धारणा का नंबर अंत में आता है. विमर्श में जीत-हार किसी विचारधारा की नहीं होती है, सिर्फ समाजोपरक विचार आगे बढ़ता है. स्वामी दयानंद सरस्वती ने कसाही के तीन सौ मूर्ति पूजक ब्राह्मणों के साथ अकेले संवाद किया था. इसने समाज की चेतना को मजबूत बनाने का काम किया था.
इसलिए वैचारिक धरातल पर आवाजाही आज और भी जरूरी है। वैचारिक बहुलता (ideological pluralism) और एक दूसरे के प्रति सदिच्छा में आस्था होना इसके लिए आवश्यक है। वामपंथ में स्टालिनवाद को आदर्श मानने वाले स्वतंत्र और सदिच्छायुक्त विमर्श को वामपंथ की पराजय मानते हैं। इसी विडंबना ने डबराल विवाद को जन्म दिया. संवाद का पहला चरण इसी चक्रव्यूह को तोडना था।
(साभार: इंडियन फोर्थ एस्टेट)
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[ नागरिक उवाच ]
* क्या ख़ाक सफल हुआ ब्राह्मणवाद ? यह सबके सर पर सवार होकर सबको नचा रहा है , फिर भी सबकी गालियाँ खा रहा है | उधर उस ज़रा साम्यवाद को देखिये | दुनिया में कहीं लागू नहीं है , फिर भी सबकी प्रशंसा पा रहा है |
अच्छा लगा कि जिन बातों को निकालने में हम अपनी जुबान बचाते हैं वह राकेश जी ने साफ कहा | वह अकादमीय क्षेत्र में हैं , ऐसा करने का बौद्धिक उपक्रम वह कर सकते हैं | पर मैं एक बात बताऊँ , हम जो लोग गहन राजनीति में नहीं हैं , बस एक सचेत- संवेदनशील नागरिक हैं , सारी विडम्बनाओं को देखते – समझते भी कुछ नहीं कहते | एक तो इस नाते कि हमारा कोई वज़न नहीं है , दूसरे हम अपने मित्र नहीं खोना चाहते , और बहस में हम उनसे जीत नहीं सकते | मै निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि वामपंथ एक स्थापित राजनीतिक सभ्यता और शिष्टाचार हो गया है एक फैशन, प्रगतिशील दिखने और सामाजिक मान्यता प्राप्त करने का | कैसे बोलेंगे इसके खिलाफ ? दूसरी ओर हिन्दू या भारत या दक्षिण मत पढ़े लिखों के बीच एक असभ्यता का द्योतक हो गया है |अब असभ्य आचरण कैसे तो प्रदर्शित करें हम ?
नैतिकता की ओम थानवी जी अक्सर चर्चा करते हैं…इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के आंतरिक लोकतंत्र की चर्चा से भी उन्हें सगर्व करते देखा-सुना जा सकता है। लेकिन इस सिलसिले में एक जानकारी देना जरूरी हो गया है। हर अखबार में जाते हुए संपादक का अपने पाठकों से क्षमा मांगने और बात करने का हक होता है। लेकिन ओम थानवी ने अपने ठीक पूर्व संपादक अच्युतानंद मिश्र जी का आखिरी संपादकीय छपने नहीं दिया था। यह किस नैतिकता के तहत किया गया…क्या इससे एक्सप्रेस ग्रुप का आंतरिक लोकतंत्र जाहिर होता है..थानवी जी इस पर भी प्रकाश डालें तो बेहतर हो।
वाह राकेश जी , आपकी कालम को भी नहीं पता होगा कि वो कितनी महत्वपूर्ण वास्तविकता लिखने जा रही है.
वामपंथी हो या अन्य, समझ सब रहें है , वैचारिक बहस को सार्वजानिक करने के लिए जनसत्ता के साथ साथ आपको भी बधाई.
आप प्रतिष्ठान की ओर से वामपंथियों को निमंत्रित करना जरी रखें ,मैदान कौन छोड़ कर भागता है , दुनिया देखेगी .
सब देखें इन पंक्तियों को
"आरएसएस के नाम पर वैचारिक बहस को कितने दिनों तक आप रोक सकते हैं? संघ एक ठोस वैचारिक आधार पर खड़ा है. देश में तमाम जनतांत्रिक परिवर्तनों का सारथी रहा है. सामाजिक-आर्थिक विषयो पर इसका progressive unfoldment जिन्हें नजर नहीं आता है उन पर सिर्फ हैरानी ही व्यक्त की जा सकती है. अंतरराष्ट्रीय पूंजी को यदि किसी ताकत से आशंका और भय दोनों है तो वह आरएसएस ही है. इसलिए अमेरिका के निशाने पर वामपंथ से कहीं अधिक संघ है ".
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अब तक का सबसे महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है लाल दुर्ग में. कहीं भी उन्होंने भावनात्मक या हलकी टिप्पणी इस लेख में नहीं किया है . ऐतिहासिक संदर्भो और घटनाओ को theorise जिस तरीके से किया गया है वह वामपंथियों को महंगा पर रहा है. इसने तो वाम खेमे में ही बहस चला दी है. इसका सतही जवाब किसी चंचल ने दी है. जवाब पढ़कर लगता है जैसे किसी हारे, घायल और निराश हुए पथिक के मन का गुबार है. खैर राकेशजी ने जिस प्रकार वामपंथ की प्रव्रित्तियो को उजागर किया है उसमे उन्होंने बाकि दक्षिणपंथी लेखको की तरह हलकी या फुहर बात नहीं की है. उन्होंने विमर्श को एक स्तर दिया है. इसे आर एस एस बनाम कम्युनिस्ट विमर्श नहीं बनने दे तो अच्छा रहेगा. राकेश जी ने इस बात की सावधानी बरती है. जनपद एक महत्वपूर्ण मंच है इससे अपेक्षा है कि इस विमर्श को व्यवस्थित स्वरुप दे. इस रचनात्मक और विद्वतापूर्ण योगदान के लिए और राकेश सिन्हा जी को बधाई और धन्यवाद्. इस लेख को पढ़कर मन तृप्त हो गया. कोई ढंग का जवाब आना चाहिए . जनसत्ता में अगर यह छपता तो उसके बहस की दिशा ही बदल जाती . यह लेख सिखाता है की बिना अपमान और व्यक्तिगत प्रहार किये आप विषय पर केन्द्रित होकर बहस कर सकते हैं. उन्होंने अंत में इसके लिए इशारा भी किया है "वैचारिक बह़लता (ideological pluralism) और एक दूसरे के प्रति सदिच्छा में आस्था होना इसके लिए आवश्यक है. "
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