शिंज़ो आबे, मोदी और एशिया की बदलती राजनीति


कुमार सुंदरम 
दिसंबर में जापानी परधानमंत्री जैसे नरेंद्र मोदी के लिए सांता क्लॉज़ बन के आए थे. बुलेट ट्रेन, लड़ाकू नौसेनिक विमान, औद्योगिक गलियारे के लिए निवेश और भारत-जापान परमाणु समझौता. भारतीय मीडिया को ज़्यादा तरजीह देने लायक मामले बुलेट ट्रेन और बनारस में शिंजो आबे की गंगा आरती ही लगे, लेकिन इसी बीच परमाणु समझौते को भी मुकम्मल घोषित कर दिया गया. हिन्दुस्तान टाइम्स के विज्ञान व अंतर्राष्ट्रीय मामलों के प्रभारी पत्रकार परमीत पाल चौधरी ने अपने सरकारी स्रोतों के हवाले से इस परमाणु डील को फाइनल करार दे दिया और यह भी खबर दी कि अमेरिकी कंपनी वेस्टिंगहाउस अब रास्ता साफ़ होने के बाद 1000 मेगावाट क्षमता के 6 परमाणु बिजली कारखाने बेचने का मसौदा लेकर तैयार है.


लेकिन भारत में मीडिया और सरकार के दावों के विपरीत, परमाणु समझौता अभी संपन्न नहीं हुआ है. भारत और जापान की साझा घोषणा में परमाणु मसले पर सैद्धांतिक सहमति का उल्लेख है और इसके लिए एक एमओयू पर हस्ताक्षर होने की सूचना है. यह एमओयू भारतीय सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया है लेकिन जापान में इसे साझा किया गया है. यह एमओयू दो लम्बे वाक्यों की घोषणा भर है जिसमें समझौता शब्द तीन बार आता है – हमने द्वीपक्षीय समझते के लिए समझौता कर लिया है ताकि निकट भविष्य में समझौता हो पाए. यह एमओयू परमाणु डील को दोनों तरफ के अधिकारियों के हवाले कर देता है, जिससे भारतीय मीडिया ने अपने हिसाब से यह अर्थ निकाला कि शीर्ष स्तर समझौता हो गया और बाकी ब्योरों पर काम होना भर बचा है. जबकि जापानी मीडिया और राजनीतिक गलियारों में स्थिति बिलकुल उलटी है. भारत के साथ परमाणु डील जापान की पारंपरिक अंतर्राष्ट्रीय नीति से मेल नहीं खाता क्योंकि जापान हिरोशिमा के बाद परमाणु निरस्त्रीकरण का पैरोकार रहा है और परमाणु अप्रसार संधि(एनपीटी) से बाहर के देशों से परमाणु तकनीक का लेन-देन नहीं करता. जापान के विदेश-मंत्रालय और नीति अधिष्ठान में पिछले दस सालों से इस बात को लेकर एक मजबूत अंदरूनी अस्वीकार्यता रही है और कयास यही लगाए जा रहे थे कि अगर डील हो पाती है तो विदेश मंत्रालय और इसके अधिकारियों को किनारे रखकर जापान के दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री शिंजो आबे के व्यक्तिगत दबाव में ही होगी. इस डील की जद्दोजहद को वापस मंत्रालय तक पहुँचने को जापान में एक कदम पीछे जाना समझा जा रहा है. लेकिन मोदी जी के भारत में अंतर्राष्ट्रीय उपलब्धियों का ढोल पीटने से कौन रोक सकता है.
परमाणु समझौता और इसका विरोध

भारत और जापान के बीच यह समझौता इसी वजह से काफी महत्वपूर्ण है कि यह दरअसल 2005 में हुए भारत-अमेरिका परमाणु समझौते का बचा हुआ टुकड़ा है. उस समझौते के दस साल बाद भी अमेरिकी कंपनियों – वेस्टिंगहाउस तथा जेनेरल इलेक्ट्रिक(जीई), और फ्रांसीसी कंपनी अरेवा के अणुबिजली प्रोजेक्ट भारत की ज़मीन पर अटके पड़े हैं तो इसका एक बड़ा कारण भारत और जापान के बीच अब तक परमाणु समझौता न होना है. दोनों बड़ी अमेरिकी परमाणु कंपनियों में इस बीच जापानी शेयर बढ़े हैं और वेस्टिंगहाउस का नाम अब वेस्टिंगहाउस-तोशिबा है और जीई अब जीई हिताची है. बाज़ार में हुए इस बड़े बदलाव ने भारत और अमेरिका की राजनीतिक संधि के सामने समस्या खडी कर दी है. फ्रेंच कंपनी अरेवा के डिज़ाइन में एक बिलकुल ही ज़रूरी पुर्जा – रिएक्टर का प्रेशर वेसल – सिर्फ जापानी कम्पनियां बनाती हैं और उसके लिए भी जापान से भारत का कानूनी करार ज़रूरी है.

लेकिन इस डील को लेकर जापान पर अमेरिका और फ्रांस का दबाव बना हुआ है इसलिए इसको परवान चढाने की कोशिश तो जारी रहेगी. साथ ही, अपने व्यापक प्रभावों के कारण इस डील का बड़े पैमाने पर विरोध भी बना रहेगा. शिंजो आबे की भारत यात्रा के ठीक एक दिन पहले हिरोशिमा और नागासाकी के दोनों मेयर एक साथ आए और प्रेस कांफ्रेंस कर के इस डील का विरोध किया. जापानी राजनीतिक सिस्टम के लिए यह एक असाधारण घटना थी. इसके अलावा, परमाणु दुर्घटना की विभीषिका झेल रहे फुकुशिमा के मेयर कात्सुताका इदोगावा ने भी परमाणु समझौते का मुखर विरोध किया. जापान की कम्यूनिस्ट पार्टी और अन्य विपक्षी दलों ने भी इस समझौते का विरोध किया तथा जापान के दूतावास के सामने न्यूयार्क और लन्दन में लोगों ने विरोध-प्रदर्शन किया.     

भारत में शिंजो आबे की यात्रा के दौरान भारी विरोध प्रदर्शन हुआ. महाराष्ट्र के जैतापुर में दो हज़ार से ज़्यादा किसानों-मछुआरों ने ‘जेल भरो’ आन्दोलन किया और ऐसा ही विरोध गुजरात के मीठीविर्दी और आन्ध्र प्रदेश के कोवाडा में भी किसानों ने किया, जहां जापानी तकनीक की आपूर्ति से परमाणु बिजलीघर लगाए जाने हैं. इनके समर्थन में दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, चेन्नई, बंगलोर, अहमदाबाद और नागपुर में विरोध आयोजित किये गए जिसमें नागरिक संगठनों और वामदलों ने शिरकत की.

शिंजो आबे जिस हफ्ते भारत आए उसी सप्ताह में फुकुशिमा से यह खबर आई की दुर्घटना के चार साल 9 महीने बाद बीस किलोमीटर के दायरे में खतरनाक रेडियोधर्मी कचरे के कुल नब्बे लाख बड़े-बड़े थैले पसरे हुए हैं, जिसको निपटाने के लिए न कोई जगह है न तकनीक क्योंकि परमाणु विकिरण हज़ारों सालों तक रहता है. फुकुशिमा प्लांट अभी भी नियंत्रण से बाहर है और अत्यधिक तापमान को ठंडा रखने के लिए पिछले पांच सालों से प्रतिदिन सौ टन से अधिक पानी काफी दूर से डाला जा रहा है, जो अति-विषाक्त होकर वापस आता है और जापानी सरकार और टेप्को कंपनी के लिए सरदर्द बना हुआ है. इन पांच सालों में हज़ारों टन ऐसा पानी विशालकाय टैंकों में जमा हो रहा है क्योंकि इसे समुद्र में सीधा छोड़ना पूरे प्रशांत महासागर को विषैला बना देगा. फिर भी, बरसात के मौसम में चुपके से कंपनी द्वारा काफी विकिरण-युक्त जहरीला पानी समुद्र में छोड़ने का खुलासा हुआ है.

एक तरफ फुकुशिमा के दुर्घटनाग्रस्त संयंत्र पर काबू नहीं पाया जा सका है तो दूसरी तरफ कम से कम दो लाख लोग जापान जैसे सीमित भूभाग वाले इलाके में बेघर हैं, जिनको सहयोग और मुआवजा देने से सरकार और कंपनी दोनों मुंह मोड़ चुके हैं. इस हालत में, जापान का भारत को परमाणु तकनीक बेचना पूरी तरह अनैतिक है और दरअसल अपने उन परमाणु कारपोरेटों को ज़िंदा रखने की कोशिश का नतीजा है जिनके सारे संयंत्र फुकुशिमा के बाद से पूरे जापान में जन-दबाव में बंद हैं और वे अपना घाटा नहीं पूरा कर पा रहे हैं.

दूसरी तरफ, भारत में परमाणु बिजलीघरों के बेतहाशा निर्माण से लाखों किसानों और मछुआरों की ज़िंदगी तबाह हो रही है और यह परमाणु डील उनके लिए बेहद बुरी खबर है. किसानों की प्राथमिक चिंता तो ज़मीन छीने जाने को लेकर है लेकिन जिन गाँवों की ज़मीन नहीं भी जा रही उनको भी परमाणु बिजलीघरों से बिना दुर्घटना के भी सामान्यतः निकालने वाले विकिरण-युक्त गैस और अन्य अपशिष्टों से बीमारियों का खतरा है, जैसा दुनिया के सभी मौजूदा परमाणु कारखानों के मामले में दर्ज किया गया है. जैतापुर के नजदीक घनी आबादी वाले मछुआरों के गाँव हैं और परमाणु बिजली घर से निकालने वाला गरम पानी आस-पास के समुद्र का तापमान 5 से 7 डिग्री बढ़ा देगा जिससे उनको मिलने वाली मछलियाँ उस इलाके से लुप्त हो जाएँगी. इसके साथ ही भारत में परमाणु खतरे की आशंका भी निर्मूल नहीं है. परमाणु सेक्टर के पूरी तरह गोपनीय और गैर-जवाबदेह होने और आम तौर पर दुर्घटनाओं से निपटने में सरकारी तंत्र की नाकामी के कारण पहले से ही खतरनाक परमाणु संयंत्र भारत आने पर और ज़्यादा खतरनाक हो जाते हैं. परमाणु उत्तरदायित्व मामले पर सरकार और आपूर्तिकर्ता कारपोरेटों के रुख से तो यही पता चलता है कि उनको अपने ही बनाए उत्पादों की सुरक्षा का भरोसा नहीं है और पूरी मीडिया का इस्तेमाल कर के वे जिन संयंत्रों की सुरक्षा का दावा कर रहे हैं और साधारण लोगों को अपनी सुरक्षा दांव पर लगाने को कह रहे हैं, खुद अपना पैसा तक मुआवजे की राशि के बतौर दांव पर रखने को तैयार नहीं हैं.

इसी महीने पेरिस में हुए जलवायु परिवर्तन पर ग्लोबल बैठक (COP21) में भी भारत समेत अन्य सरकारों ने परमाणु ऊर्जा को कार्बन-विहीन और हरित बताकर समस्या की बजाय समाधान का हिस्सा बताने की कोशिश की है और दुनिया भर में परमाणु लौबी की कोशिश है कि इस बहाने विस्तार किया जाए. लेकिन यह तर्क कई स्तरों पर विरोधाभास से भरा हुआ है. एक तो जैतापुर में परामाणु प्लांट लगाने के लिए भारत की सबसे ख़ूबसूरत और पर्यावरणीय दृष्टी से नाज़ुक कोंकण इलाके के पूरे पारिस्थितिक और वनस्पति तंत्र को खुद परमाणु कारखाना बरबाद कर रहा है, और इसके लिए सरकार ने बिलकुल फर्जी तरीके से पर्यावरणीय मंजूरी हासिल की है. दूसरे, वैसे भी परमाणु कारखानों के निर्माण से लेकर युरेनियम ईंधन के खनन, परिवहन और सैंकड़ों साल तक परमाणु कचरे के निस्तारण में कार्बन-उत्सर्जी प्रक्रियाओं का इस्तेमाल होता है जिनको परमाणु लौबी अपने कार्बन छाप (footprint) में नहीं गिनती.

भारत-जापान और एशिया में बढ़ता तनाव 

भारत-जापान के बीच इस परमाणु समझौते के विरोध के कई स्तर हैं और कुल मिलाकर यह मुद्दा उस व्यापक साम्राज्यवादी नीति से जुड़ा है जिसके तहत अमेरिका एक ‘एशियाई नाटो’ की तैयारी कर रहा है. भारत और जापान में दक्षिणपंथी राजनीति को सक्रिय समर्थन देकर चीन के खिलाफ एक धुरी का निर्माण करना शामिल है, जो उस वैश्विक शतरंज का हिस्सा होगा जिसकी बिसात ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ के और भी विशालकाय मुस्लिम-विरोधी फलक पर बिछाई जा रही है. अमेरिका की शह पर जापान के घोर दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री इस साल संसद में नए बिल लाकर विश्वयुद्ध के बाद से जारी उस जापानी संविधान को बेमतलब बना दिया है, जो युद्धोत्तर जापान की पहचान रहा है और जिसके तहत जापान सेना नहीं रखता और सैद्धांतिक तौर पर अंतर्राष्ट्रीय मसलों को सुलझाने के लिए युद्ध को अस्वीकार करता है. विश्वयुद्ध के दौरान आम जापानी जनता, खासकर मजदूर, युवा और महिलाएं सम्राट और उनके जनरलों के अधीन कार्यरत सत्तातंत्र के भयावह शोषण और जबरदस्ती का शिकार हुए थे. उस समय के साम्राज्यवादी जापान को अगर कोरिया, चीन, फिलीपींस, ताइवान और दूसरे पूर्व-एशियाई देश उसकी क्रूरता के लिए याद करते हैं तो खुद जापानी लोग भी जबरदस्ती युद्ध में झोंके जाने के खिलाफ एक आम जनमानस बना चुके हैं. उस अवधि में कम्यूनिस्टों और मजदूरों पर बर्बर दमन ढाया गया था. युद्ध के बाद जापान में मिलीटरी खर्च और सरोकार न होने के कारण ही एक व्यापक औद्योगिक मध्यवर्ग का उभार संभव हो पाया. आज अगर सिर्फ विकसित देशों पर नज़र डालें तो उनके बीच सबसे बड़ा मध्यवर्ग जापान में है, जिसके लिए निजीकरण की तमान कोशिशों के बाद भी शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरे ज़रूरी क्षेत्रों में सबसे अधिक सार्वजनिक निवेश मौजूद है. यही कारण है कि जापान में शिंजो आबे की सैन्यीकरण की नीति का जोरदार विरोध हुआ है और पिछले एक साल में दो-दो लाख लोग कई बार शांतिप्रिय संविधान को बचाने के लिए टोक्यो की सडकों पर उतरे हैं. जापान में शान्ति-आन्दोलन को मिले पॉपुलर समर्थन को बाहरी मीडिया नैतिक आग्रह या बौद्धधर्म आदि के प्रभाव के रूप में पेश करता रहा है जबकि यह वहाँ के राजनीतिक-अर्थशास्त्र से जुड़ा मामला है. इसीलिए जापान की कम्यूनिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट धड़े और व्यापक नागरिक समूह सैन्यवाद के खिलाफ खड़े हैं और पिछले सालों में शिंजो आबे की दक्षिणपंथी नीति के विरोध के उभार के क्रम में ही जापानी वामपंथ ने अपना अभूतूर्व विस्तार किया है.

जापान के इस पुनःसैन्यीकरण के क्रम में ही शिंजो आबे ने दूसरे देशों को मिलीटरी उपकरण व हथियार न बेचने की दशकों पुरानी जापानी नीति को भी पिछले साल तहस-नहस कर दिया और इस बात की पूरी तैयारी कर ली है कि भविष्य में अमेरिका के युद्धों में जापान सक्रिय सहयोगी के बतौर शामिल होगा. यह ख़ास तथ्य है कि जापान के हथियार-निर्यात के दरवाजे खुलने के बाद भारत वह पहला देश है जो जापान से शिन-मिवा यूएस-2 नाम के समुद्र के जहाज से मार करने वाले फाइटर जेट विमान का आयात करेगा. इसके साथ ही, पिछले कुछ सालों में भारत और जापान ने हिन्द महासागर में साझा सैन्य अभ्यास शुरू किये हैं जिसको लेकर चीन ने आपत्ति जाहिर की है. यह सब भारत और जापान के अलावा वियतनाम आसियान समूह के अन्य जैसे देशों और आस्ट्रेलिया को साथ लेकर लेकर चीन को घेरने की अमेरिकी कवायद का हिस्सा है. नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भारत सरकार का इस तरह एक तरफ इस्लामिक स्टेट के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई में शामिल होने की पेशकश करना और पूर्व के मोर्चे पर इस दूसरी सैन्य जमात में शामिल होना एक खतरनाक और बेवकूफाना रुख है, जिसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है. देश के सीमित संसाधनों का फूहड़ अपव्यय तो यह है ही.


भारत और जापान के बीच परमाणु समझौता इस तरह असल में दोनों देशों के कारपोरेट घरानों और दक्षिणपंथी नेताओं की रणनीतिक कवायद है और जापान तथा भारत दोनों जगह साधारण नागरिक इस डील के भुक्तभोगी होंगे और इसीलिए वे इसके विरोध में साथ में खड़े हैं. एक नए एशिया और नई दुनिया की राह इन नागरिक एकजुटताओं के बीच से होकर ही जाती है. 
Read more

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *